नाच्यो बहुत गोपाल ,अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल
-सूरदास
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल ,
काम क्रोध को पहरि चोलना ,
कंठ विषयन की माल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
महामोह के नूपुर बाज़त ,
निंदा सबद रसाल ,
भरम भयो ,मन भयो पखावज़,
चलतअ असंगति चाल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
तृष्णा नाद करत घट भीतर ,
नाना विधि दै ताल ,
माया को कटि फैंटा बांध्यो ,
लोभ तिलक दियो भाल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
कोटिक कला काछी बिखराई ,
जल थल सुधि नहीं काल ,
सूरदास की सबै अविद्या ,
दूर करो नन्द लाल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
सूरदास के आखिरी दिनों की रचना है यह प्रपत्ती मार्ग से ताल्लुक रखता है यह पद।
सूरदास कहते हैं :हे मेरे आराध्य ,मेरे परमात्मा अब मैं इस संसार के आवागमन के चक्कर में बहुत नांच लिया। इस जन्म मरण चक्र से अब मुझे मुक्त कर दो। जीव रूप में मैंने बहुत कष्ट उठाया है। अब अपने चरणों में रखके मुझे संसार के बंधनों से मुक्त करो।
काम क्रोध के वस्त्र धारण किये थे मैंने। ये वृत्तियाँ ही मेरी पहचान बन गईं। इन्द्रियों के विषयों में ही मैं आसक्त रहा। अर्थ और काम बस इसी से शोभित हुआ। संसार में मेरी बाहरी वृत्तियाँ ही प्रगट होती रहीं। इन्हीं की कंठी पहने रहा मैं।
जैसे संगीत की गोष्ठी होती है उसमें नूपुर बांधके नर्तक नर्तकी नाचते हैं ऐसे ही महामोह के नूपुर मेरे पैरों की गति बनकर मुझे नचाते रहे। मोह ही मेरे जीवन का आकर्षण बना रहा। जहां -जहां मेरा मोह था बस वहीँ वहीँ की मैंने बात सुनी। लोगों की निंदा ही मुझे रसीले गीतों सी लगी।
मन संसार के भ्रम में पड़कर पखावज की तरह बजता रहा। मैं उसी संगीत में डूबा रहा उसे ही नाद समझ बैठा। मन बुरी चाल ही चलता रहा। मेरे लिए मन की आवाज़ ही पखावज हो गई।
जैसे नाद पर संगीत लहरियां चलती हैं उसी प्रकार तृष्णा की ध्वनि को ही मैंने संगीत का नाद समझ लिया। तृष्णा का नाद ही मेरे भीतर बजता रहा। अनेक प्रकार की तालें (संगी साथी )मुझे विपथ गामी बनाते रहे। संगी साथियों ने मिलकर मेरे मोह की गति को तृष्णा के नाद को बढ़ाया। अपनी कमर में मैंने माया का फैंटा बांध लिया और लोभ का तिलक माथे पर लगा लिया। आचरण में लोभ को ही शीर्ष पर (सर्वोपरि )रखा।
अनेक प्रकार की कलाएं निर्मित करके मैंने लोगों को दिखलाई। नट बनके मैंने लोगों को दिखलाया। कोटिक कलाओं का स्वांग रचा। संसार में मैं इतना रम गया मुझे दिशाओं का भी ज्ञान नहीं रहा। अपने सुखों में ही डूबा रहा मैं। मुझे दिशा भ्रम हो गया।
मेरी सारी अविद्याएँ कृष्ण अब तुम दूर करो।
सुने इन बंदिशों को और डूबें भक्ति रससागर में।
3 टिप्पणियां:
संत कवि सूरदास की यह कविता मन के अँधेरे को दूर कर देती है -अद्भुत शब्द और भाव संचयन -अध्यात्म पीयूष भी !
जब संसार का चरित्र समझ आ जाता है, मन सत्य पर आधारित याचनायें करने लगता है।
भक्तिमय पोस्ट !
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