जीवन जीने की कला वही है जो जीवन के सभी पहलुओं को समाहित किये हो -भौतिक ,मानसिक ,संवेगात्मक ,बौद्धिक और
आध्यात्मिक पक्षों से रु -ब -रु हो।भले योग का केंद्रीय लक्ष्य आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर मानव को ले जाना है लेकिन इसमें
समाहित भौतिक आसनों का सभी को यकसां लाभ मिलता है भले उनका आध्यात्मिक लक्ष्य कुछ भी रहा हो।
योग आसन हमारी काया ,चित्त (मन )और संवेगों में सामंजस्य स्थापित करते हैं। भौतिक धरातल पर हमारे महत्वपूर्ण कायिक अंग
,पेशियाँ स्नायु (तंत्रिकाएं ,नर्व्ज़ )हो सकता है अपना काम ठीक से अंजाम न दे पा रहे हों।आसन उनमें एक समन्वयन ,समायोजन ले
आते हैं। ऐसे में काया पर आसनों का बड़ा अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
मानसिक धरातल पर मनुष्य नकारात्मक विचार ,राग द्वेष पाले रहता है। ऐसे में पेशीय गठानें शरीर के किसी भी हिस्से में पनप
सकती हैं -ग्रीवा में यही गठानें सर्विकल स्पोन्डलाइटिस (Cervical spondylitis ),चेहरे पर न्युराल्जिया (Neuralgia) के रूप में
प्रगटित हो सकती हैं। हर मानसिक ग्रन्थि (राग द्वेष ,ईर्ष्या )की गठान का एक संगत प्रभाव हमारे शरीर को अपनी लपेट में लेता है।
नकारात्मक भावों के संगत एक गठान पेशीय गठान बन के मुखरित हो सकती है।
मन शरीर को असर ग्रस्त करता है शरीर फिर मन को भी करता है।
क्रिया प्रतिक्रिया युगल है यह।
भावात्मक (रागात्मक ,संवेगात्मक दवाब ),इमोशनल टेंशन फेफड़ों के निर्बाध काम में खलल पैदा कर सकता है। श्वसन सम्बन्ध
खलल यहाँ तक के दमा उभर सकता है दमे का उत्प्रेरक तत्व है रागात्मक दवाब। योग का मकसद इन तमाम गठानों को खोलना है।
दीगर है कि योग के पूरे दोहन के लिए इसका ध्यान मनन वाला पक्ष भी
सक्रीय किया जाना चाहिए। भले कई पढ़े लिखे उसे पेसिव
मेडिटेशन कहते हैं।
ध्यान -मनन -मंथन (रूप ध्यान )हमारे चित्त को शुद्ध करता है। राग
द्वेष को मेट देता है। हमारा अंतस शांत हो जाता है।
Proper combination of aasans ,pranayam ,subtle body
relaxation ,and meditation ,tackle these knots ,both at the
physical and mental levels .
जीवन क्षम ऊर्जा जागृत होती है। मन हल्का हो जाता है।प्रसन्न बदन
और प्रफुल्ल एक साथ। सर्वप्रकार संतुलित। अब तक यही ऊर्जा
रागद्वेष के चलते प्रसुप्त पड़ी थी।
दमा ,मधुमेह ,उच्च रक्त चाप (Hypertension ),जोड़ों के दर्द (arthritis ),पाचन सम्बन्धी विकारों में अलावा इसके कई लाइलाज
पुराने पड़े मानवीय संरचना से ताल्लुक रखने वाले रोगों में एक आनुषांगिक चिकित्सा के रूप में योग आसनों का अपना स्थान
बरकरार है।
नाच्यो बहुत गोपाल ,अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल
-सूरदास
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल ,
काम क्रोध को पहरि चोलना ,
कंठ विषयन की माल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
महामोह के नूपुर बाज़त ,
निंदा सबद रसाल ,
भरम भयो ,मन भयो पखावज़,
चलतअ असंगति चाल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
तृष्णा नाद करत घट भीतर ,
नाना विधि दै ताल ,
माया को कटि फैंटा बांध्यो ,
लोभ तिलक दियो भाल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
कोटिक कला काछी बिखराई ,
जल थल सुधि नहीं काल ,
सूरदास की सबै अविद्या ,
दूर करो नन्द लाल ,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल।
सूरदास के आखिरी दिनों की रचना है यह प्रपत्ती मार्ग से ताल्लुक रखता है यह पद।
सूरदास कहते हैं :हे मेरे आराध्य ,मेरे परमात्मा अब मैं इस संसार के आवागमन के चक्कर में बहुत नांच लिया। इस जन्म मरण चक्र से अब मुझे मुक्त कर दो। जीव रूप में मैंने बहुत कष्ट उठाया है। अब अपने चरणों में रखके मुझे संसार के बंधनों से मुक्त करो।
काम क्रोध के वस्त्र धारण किये थे मैंने। ये वृत्तियाँ ही मेरी पहचान बन गईं। इन्द्रियों के विषयों में ही मैं आसक्त रहा। अर्थ और काम बस इसी से शोभित हुआ। संसार में मेरी बाहरी वृत्तियाँ ही प्रगट होती रहीं। इन्हीं की कंठी पहने रहा मैं।
जैसे संगीत की गोष्ठी होती है उसमें नूपुर बांधके नर्तक नर्तकी नाचते हैं ऐसे ही महामोह के नूपुर मेरे पैरों की गति बनकर मुझे नचाते रहे। मोह ही मेरे जीवन का आकर्षण बना रहा। जहां -जहां मेरा मोह था बस वहीँ वहीँ की मैंने बात सुनी। लोगों की निंदा ही मुझे रसीले गीतों सी लगी।
मन संसार के भ्रम में पड़कर पखावज की तरह बजता रहा। मैं उसी संगीत में डूबा रहा उसे ही नाद समझ बैठा। मन बुरी चाल ही चलता रहा। मेरे लिए मन की आवाज़ ही पखावज हो गई।
जैसे नाद पर संगीत लहरियां चलती हैं उसी प्रकार तृष्णा की ध्वनि को ही मैंने संगीत का नाद समझ लिया। तृष्णा का नाद ही मेरे भीतर बजता रहा। अनेक प्रकार की तालें (संगी साथी )मुझे विपथ गामी बनाते रहे। संगी साथियों ने मिलकर मेरे मोह की गति को तृष्णा के नाद को बढ़ाया। अपनी कमर में मैंने माया का फैंटा बांध लिया और लोभ का तिलक माथे पर लगा लिया। आचरण में लोभ को ही शीर्ष पर (सर्वोपरि )रखा।
अनेक प्रकार की कलाएं निर्मित करके मैंने लोगों को दिखलाई। नट बनके मैंने लोगों को दिखलाया। कोटिक कलाओं का स्वांग रचा। संसार में मैं इतना रम गया मुझे दिशाओं का भी ज्ञान नहीं रहा। अपने सुखों में ही डूबा रहा मैं। मुझे दिशा भ्रम हो गया।
मेरी सारी अविद्याएँ कृष्ण अब तुम दूर करो।
सुने इन बंदिशों को और डूबें भक्ति रससागर में।
6 टिप्पणियां:
महान ऋषियों के गहन प्रयोग का निष्कर्ष है वैदिक ज्ञान।
योग आसन हमारी काया ,चित्त (मन )और संवेगों में सामंजस्य स्थापित करते हैं।
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बहुत सही कहा आपने योगासनों के बारे में, शुभकामनाएं.
रामराम.
बिल्कुल सही कहा आपने ... सार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति
जीवन जीने की कला वही है जो जीवन के सभी पहलुओं को समाहित किये हो...
बहुत अच्छा कहा आपने|
योग के पूरे दोहन के लिए इसका ध्यान मनन वाला पक्ष भी
सक्रीय किया जाना चाहिए
बहुत सुंदर संदेश
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