मंगलवार, 3 अगस्त 2021

जन्म जयंती मैथलीशरण गुप्त

जन्म जयंती मैथलीशरण गुप्त 

है राष्ट्र भाषा भी अभी तक देश में कोई नहीं ,

 हम निज विचार जना सकें ,जिनसे परस्पर सब कहीं। 

इस योग्य हिंदी है तदपि ,अब तक न निज पद पा सकी ,

भाषा बिना भावैकता अब तक न हम में आ सकी.(मैथलीशरण गुप्त )

(२ ) घन घोर वर्षा हो रही है ,गगन गर्जन कर रहा ,

     घर से निकलने को कड़क कर  वज्र वर्जन  कर रहा।

     तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं ,

     किस लोभ से वे आज भी लेते नहीं विश्राम हैं। 

      बाहर निकलना मौत है आधी अंधेरे रात है ,

      आह शीत  कैसा पड़  रहा है ,थरथराता गात है। ('किसान' प्रबंध काव्य से )

(३ )हो जाए अच्छी भी फसल पर लाभ कृषकों को कहाँ ?

     खाते खवाई बीज ऋण से हैं रंगे रख्खे यहां। 

      आता महाजन के यहां यह अन्न सारा अंत में ,

      अधपेट रहकर फिर उन्हें है कांपना हेमंत में। ('किसान' प्रबंध काव्य से )

गुप्त जी की पीड़ा में महाजन -साहूकार -ज़मींदार की तिकड़ी में फंसा किसान रहा है तो उपेक्षित नारी पात्र भी। उर्मिला के त्याग रेखांकित करने वाला काव्य कोई गुप्त मैथलीशरण ही लिख सकते थे। आज भी किसान टिकैतों चढूनियों  के हथ्थे चढ़ा हुआ है। 

नौवीं आठवीं की पुस्तक में पढ़ा होगा यह गीत गुप्त जी का (१९५० -६० )की अवधि में आज भी कंठस्थ है अपनी सादगी गेयता और  सम्प्रेषणीयता को लेकर :

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को 

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के 
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को 

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो

- मैथिलीशरण गुप्त

स्वातंत्र्य पूर्व और स्वतंत्र भारत के संधिकाल को आलोकित करने वाले इस कवि  ने पूर्व में उन्नीसवीं शती के रेनेसाँ में हिंदी खड़ी बोली का श्रृंगार कर उसे सांस्कृतिक चेतना परम्परा और मूल्य बोध से जोड़ा। 

राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है ,

कोई कवि  बन जाए सहज सम्भाव्य है। (महाकाव्य साकेत से )

"हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार;
अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार?('साकेत' महाकाव्य  )

भारतीय राष्ट्रीय चेतना के प्रखर प्रवक्ता रहें हैं राष्ट्रकवि राधा मैथलीशरण गुप्त। दिनकर और आप  में एक और भी साम्य है दोनों ही राज्य सभा के लगातार बारह वर्षों तक माननीय सदस्य रहे। 

सन्दर्भ -सामिग्री :जन्मजयंती  पर दैनिक जागरण (२ अगस्त २०२१ में )सप्तरंग पुनर्नवा के अंतर्गत स्मरण किये गए हैं गुप्त जी रजनी गुप्त द्वारा gupt.rajni@gmail.com


      

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