तालिबानी तत्परता : रविवार का दिन अमेरिकी साख के ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ जब तालिबान बड़ी आसानी से राजधानी काबुल में घुसकर सत्ता प्रतिष्ठान के केंद्र तक जा पहुंचा। जाहिर है कि अमेरिका और उसके साथियों द्वारा अफगानिस्तान में उपलब्ध कराया गया सुरक्षा आवरण भरभराकर ढह गया। अब सत्ता हस्तांतरण महज एक औपचारिकता रह गई है। अफगानिस्तान के अंतरिम मुखिया के तौर पर अली अहमद जलाली की ताजपोशी की तैयारी चल रही है। वहीं दूसरी ओर दोहा में इस संदर्भ में चल रही वार्ता एक प्रहसन मात्र बनकर रह गई है। वार्ता से जुड़ी परिषद का दारोमदार संभालने वाले अब्दुल्ला अब्दुल्ला ही सत्ता में साङोदारी का नया फामरूला तैयार करने में मध्यस्थ बन गए हैं।
इस पूरे घटनाक्रम में राहत की बात यही रही कि तालिबान ने काबुल में घुसने से पहले ही राजधानी के बाशिंदों को आश्वस्त कर दिया था कि उन्हें डरने की जरूरत नहीं, क्योंकि शहर पर हमला नहीं किया जाएगा। हालांकि शहरवासियों को ऐसा ही भरोसा अफगान सरकार में विदेश एवं आंतरिक मामलों के मंत्री अब्दुल सत्तार मिर्जाक्वाल ने भी एक वीडियो संदेश के माध्यम से दिया था कि सरकार अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बलों के साथ मिलकर काबुल की रक्षा करेगी, लेकिन उनका यह दावा भी भोथरा ही साबित हुआ। तालिबान ने अब काबुल में भी लंगर डाल लिया है। सत्ता एक तरह से उसके शिकंजे में है। बस उसे स्वरूप देना शेष रह गया है।
अमेरिकी असफलता: अफगानिस्तान में इस बदले हुए परिदृश्य का जिम्मेदार पूरी तरह से अमेरिका ही है। वियतनाम के बाद अफगानिस्तान से इस तरीके से हुई विदाई ‘अंकल सैम’ को हमेशा सालती रहेगी। निश्चित रूप से ऐसी असहज स्थिति से बचा जा सकता था, लेकिन बाइडन की बेपरवाही और अदूरदर्शिता ने सबकुछ मटियामेट करके रखा दिया। यहां तक कि अमेरिकी सेना के शीर्ष सैन्य अधिकारियों ने भी जल्दबाजी से बचने और चरणबद्ध तरीके से सैन्य बलों की वापसी का सुझाव दिया था, लेकिन राष्ट्रपति ने ऐसी सलाह को दरकिनार करते हुए वापसी को लेकर वीटो कर दिया। वैसे तो अमेरिका ने 31 अगस्त तक अफगानिस्तान से अपने सभी सैन्य बल वापस बुलाने की तारीख तय की है, लेकिन उसने काफी पहले से ही अपना बोरिया बिस्तर बांधना शुरू कर दिया था।पिछले माह ही रातोंरात बगराम एयरबेस खाली करने जैसी घटनाओं से इसके स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे।
स्वाभाविक है कि इसने तालिबान का हौसला बढ़ाया। इसके परिणाम एक के बाद एक प्रांतों और हेरात से लेकर कंधार और अब काबुल तक तालिबानी कब्जे के रूप में देखने को मिले। इस स्थिति के लिए भी अमेरिका ही पूरी तरह कुसूरवार है। गत वर्ष जब उसने तालिबान के साथ वार्ता आरंभ की थी तो उसमें इस जिहादी समूह ने कई मांगें रखी थीं। इसमें उसने अफगान सरकार के कब्जे में कैद 5,000 तालिबानियों की रिहाई के लिए भी कहा था। अफगान सरकार इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ने में हिचक रही थी, लेकिन अमेरिकी दबाव में उसे झुकना पड़ा। चिंता की बात यह हुई कि उन 5,000 बंदियों के छूटने से तालिबानी धड़े को मजबूती मिली और वही अफगान सुरक्षा बलों के लिए नासूर बन गए। ऐसे में अमेरिका न केवल तालिबान का मिजाज भांपने में नाकाम रहा, बल्कि वह अफगानिस्तान के संदर्भ में दीवार पर लिखी साफ इबारत को भी नहीं पढ़पाया। उसकी खुफिया एजेंसियों की पोल खुल गई। जो अमेरिकी एजेंसियां कह रही थीं कि काबुल पर कब्जा करने में तालिबान को 90 दिन और लग सकते हैं, ऐसे अनुमानों की भी तालिबान ने हफ्ते भर से कम में ही हवा निकालकर रख दी।
समग्रता में देखा जाए तो तालिबान की ताकत का अंदाजा लगाने में बाइडन प्रशासन मात खा गया। पिछले महीने ही बाइडन ने शेखी बघारते हुए कहा था कि तालिबान की तुलना वियतनाम की सेना से करना गलत है, क्योंकि तालिबान तो उसके पासंग भी नहीं और यहां आपको ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलेंगे, जहां अमेरिकी दूतावास की छत पर चढ़े लोगों के हवाई अभियान के जरिये बचाव की नौबत आ जाए। जाहिर है कि आज जो स्थिति बनी उसे परखने में अमेरिका, उसके साथियों और उनकी खुफिया एजेंसियां असफल रहीं। अफगानिस्तान में स्थिरता और स्थायित्व के लिए कुछ मात्र में अमेरिकी सैन्य बलों की उपस्थिति आवश्यक थी, लेकिन उसने परिस्थितियों और परिणाम कीपरवाह न करते हुए आनन-फानन में अफगानिस्तान से निकलने का जो दांव चला, उसने इस समूचे क्षेत्र को एक खतरे में झोंक दिया है।
पाकिस्तानी प्रपंच: इसमें कोई संदेह नहीं कि तालिबान को पाकिस्तान का सहयोग और समर्थन हासिल है। ऐसे में अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के कब्जे से उसकी कई मुरादें पूरी हो सकती हैं। एक तो बीते कुछ वर्षो के दौरान अफगानिस्तान में भारतीय निर्माण गतिविधियों से नई दिल्ली-काबुल के रिश्तों में जो नई गर्मजोशी आई, उन पर संदेह के बादल मंडरा सकते हैं। पाकिस्तान लंबे अर्से से इस प्रयास में लगा था कि अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को कैसे सीमित कर भारतीय हितों पर पर आघात किया जाए। अब वह इस मुहिम को कुछ धार देता हुआ नजर आएगा। इससे भी बड़ा खतरा इस बात का है कि पाकिस्तान अफगान धरती को आतंक की नई पौध तैयार करने में इस्तेमाल कर सकता है जैसाकि उसने पिछली सदी के अंतिम दशक में किया भी। इस समय पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की हालत बेहद खस्ता है और‘फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स’ के संभावित प्रतिबंधों से सहमे पाकिस्तान पर अपने यहां कायम आतंकी ढांचे पर प्रहार करने का दबाव है। ऐसे में वह दुनिया की आंखों में धूल झोंकने के लिए अपने आतंकी ढांचे पर दिखावटी आघात कर उसे अफगानिस्तान में स्थापित कर सकता है।
पाकिस्तान का मित्र चीन भी उसके इन हितों की पूर्ति में मददगार बनने के लिए जोर-आजमाइश करता दिखेगा। वह पहले से ही अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा खाली किए जा रहे स्थान की भरपाई के लिए लार टपका रहा है। अफगानिस्तान में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए भी चीन की नीयत खराब है। ऐसे में पाकिस्तानी प्रश्रय से स्थापित होने वाली तालिबानी सत्ता इस्लामाबाद और बीजिंग दोनों के हित साधने का काम करेगी। भारत के लिए यह दुरभिसंधि निश्चित रूप से एक खतरे की घंटी होगी, जो पहले से ही बिगड़ैल पड़ोसियों से परेशान है।
भारत के समक्ष कायम दुविधा
तालिबानी सत्ता को लेकर भारत के समक्ष सबसे बड़ा संकट वैचारिक आधार का है। दरअसल एक जिहादी संगठन होने के नाते तालिबान भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के लिए असहज करने वाला पहलू है। हालांकि, विदेश नीति के कई जानकार तालिबान के साथ संवाद की वकालत कर चुके हैं। उनका मानना है कि कूटनीति में कोई स्थायी शत्रु नहीं होता। इसके बावजूद तालिबान को लेकर भारत की स्वाभाविक हिचक किसी से छिपी नहीं। कुछ दिन पहले विदेश मंत्री एस. जयशंकर की तालिबान के प्रतिनिधि से मुलाकात की खबरें आई थीं, जिनका भारतीय विदेश मंत्रलय ने जोरदार तरीके से खंडन भी किया था। हालांकि, तब और अब में काफी फर्क आ चुका है। अब काबुल में तालिबानी परचम फहरा चुका है। तालिबान के पहले दौर और वर्तमान समय के बीच मेंअफगानिस्तान की तस्वीर काफी बदल चुकी है। उल्लेखनीय है कि बीते वर्षों के दौरान अफगानिस्तान में व्यापक स्तर पर विकास और पुनर्निर्माण के काम हुए हैं। इस बार सत्ता कब्जाने के अपने अभियान में तालिबान ने भी कुछ अलग संकेत दिए। उसने परिसंपत्तियों को खास निशाना नहीं बनाया। यहां तक कि काबुल में भी शांति का परिचय दिया है। वह यह बखूबी जानता है कि हिंसा के कारण उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलने से रही। इस पर शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की दुशांबे में हुई बैठक में भी आम सहमति बनी थी।
वहीं, यूरोपीय संघ ने भी तालिबान को स्पष्ट रूप से चेतावनी दे दी है। ऐसे में अमेरिका के साथ वार्ता के जरिये तालिबान को जो अंतरराष्ट्रीय वैधता प्राप्त हुई है, वह शायद उसे कायम रखने का कुछ प्रयास करे, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सहयोग के अभाव में तालिबान के लिए सत्ता को सुचारु रूप से चला पाना संभव नहीं होगा। चूंकि, भारत की वहां कई परियोजनाएं दांव पर लगी हैं तो इस मामले में वैचारिक आधार से कहीं बढ़कर व्यावहारिकता से फैसला करना होगा, लेकिन इसमें किसी तरह के जोखिम से भी बचा जाना चाहिए। खासतौर से पाकिस्तान और चीन के साथ तालिबान के समीकरणों को सही तरह से समझकर ही आगे बढ़ना उचित होगा।
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