आज़ाद भारत में आईपीसी की धारा १२४ ए क्यों
इसकी संविधानिक वैधता जांचने से पहले दो फाड़ दो टूक सरे आम कहा जा सकता है जब तक टिकैत विचार के लोग विदेशी पैसे पे पल्लवित पोषित हो रहे हैं भारतीय दण्ड संहिता की धारा १२४ ए क्यों नहीं होनी चाहिए ?-ये सवाल ऐसे ही लोगों से पूछना चाहिए जो कहते हैं ट्रेक्टर कोई रोक के तो दिखाए बक्कल तार देंगे। और फिर इसी टिकैत विचार के लोग लाल किले पे धावा बोल देते हैं। 'खुला खेल फरुख्खाबादी 'खेलते हैं। पुलिस वालों को अपने जान बचाने के लिए लालकिले की चौहद्दी में मौजूद खाई में कूदना पड़ता है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी है जमहूरियत में लेकिन 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' ,'अफ़ज़ल हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल ज़िंदा हैं,', 'कितने अफ़ज़ल मारोगे ,हर घर से अफ़ज़ल निकलेगा ' ,'कितने याकूब मारोगे हर घर से याकूब निकलेगा ' जैसे देश तोड़क नारे अभिव्यक्ति की शर्त पूरी करते हैं ?
बेशक फिरंगियों ने ये क़ानून बनाया था भारत तब पराधीन था। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं। आज़ाद भारत में संविधान सभा के समक्ष बोलते हुए भारतीय संविधान के पितामह बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने ये कहा था :"व्यक्ति को सविनय अवज्ञा ,असहयोग और और सत्याग्रह के तरीकों को अब छोड़ना चाहिए। "लोकतंत्र में विरोध के तरीकों से मुखातिब थे वह जब उन्होंने ये कहा -अब हम आज़ाद हैं और अब हमें अपना विरोध प्रदर्शित करने के लिए अराजकता का परित्याग करना चाहिए।दूरन्वेषी थे अम्बेडकर भांप ली थी उन्होंने आने वाले भारत की तस्वीर।
आज जबकि राष्ट्रविरोध को मोदी विरोध का पर्याय मान लिया गया है टिकैत सोच के लोग न अपेक्स कोर्ट की मानते हैं टूलकिट के पुर्जे बनके मनमानी कर रहें हैं। धारा १२४ ए को हटाना बेलगाम घोड़ों को खुला छोड़ देना ही सिद्ध होगा। माननीय कोर्ट इस क़ानून की वैधानिकता की जांच शौक से करे राष्ट्ररक्षा के उपाय भी सुझाये।आदेश पारित करे उसकी राय सर माथे पर।
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संविधान सभा को दिए अपने आखिरी भाषण में बीआर आंबेडकर ने कौन सी तीन चेतावनी दी थीं? संविधान दिवस पर विशेष
स्वतंत्र भारत के इतिहास में 26 नवंबर का अपना महत्व है, क्योंकि इसी दिन वर्ष 1949 में, भारत के संविधान को अपनाया गया था और यह पूर्ण रूप से 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ था। इसलिए इस दिन को भारत के एक नए युग की सुबह को चिह्नित करने के रूप में जाना जाता है। संविधान के निर्माताओं के योगदान को स्वीकार करने और उनके मूल्यों के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए, 26 नवंबर को 'संविधान दिवस' (Constitution Day) के रूप में मनाया जाता है।
गौरतलब है कि, भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने वर्ष 2015 में 19 नवंबर को गजट नोटिफिकेशन द्वारा 26 नवंबर को 'संविधान दिवस' के रूप में घोषित किया था। इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा वर्ष 1979 में एक प्रस्ताव के बाद से इस दिन को 'राष्ट्रीय कानून दिवस' (National Law Day) के रूप में जाना जाने लगा था।
बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर का चर्चित भाषण 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा द्वारा अपनी कार्यवाही को समाप्त करने के एक दिन पहले, संविधान की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष, बी. आर. आंबेडकर ने सभा को संबोधित करते हुए एक भाषण दिया, जोकि काफी चर्चित हुआ। गौरतलब है कि इस भाषण में उन्होंने नव निर्मित राष्ट्र के सामने आने वाली चुनौतियों का विस्तार से वर्णन करने के साथ ही बड़े संयमित शब्दों में उन चुनौतियों से निपटने के तरीके भी सुझाए थे। मौजूदा लेख में, हम उनके द्वारा भारत, भारत के संविधान और भारत के लोकतंत्र को लेकर दी गयी 3 चेतावनियाँ एवं उनके तार्किक सुझाव आपके समक्ष रखेंगे।
आंबेडकर की तीन चेतावनी बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की पहली चेतावनी, लोकतंत्र में 'विरोध के तरीकों' के बारे में थी। "व्यक्ति को सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह के तरीकों को छोड़ना चाहिए," उन्होंने कहा था। उनके भाषण में दूसरी चेतावनी, किसी राजनीतिक व्यक्ति या सत्ता के आगे लोगों/नागरिकों के नतमस्तक हो जाने की प्रवृति को लेकर थी। "धर्म में भक्ति, आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकती है। लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक की पूजा, पतन और अंततः तानाशाही के लिए एक निश्चित मार्ग सुनिश्चित करती है," उन्होंने कहा था।
उनकी अंतिम और तीसरी चेतावनी थी कि भारतीयों को केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतोष प्राप्त नहीं करना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक लोकतंत्र प्राप्त कर लेने भर से भारतीय समाज में अंतर्निहित असमानता खत्म नहीं हो जाती है। "अगर हम लंबे समय तक इससे (समानता) वंचित रहे, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डाल लेंगे," उन्होंने कहा था। इसके अलावा वह अपने भाषण के दौरान इस बात को लेकर काफी सचेत थे, कि यदि हम न केवल रूप में, बल्कि वास्तव में संविधान के जरिये लोकतंत्र को बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें इसके लिए क्या करना होगा।
आंबेडकर के प्रमुख सुझाव आंबेडकर ने अपनी पहली चेतावनी के सम्बन्ध में यह सुझाव दिया था कि यदि हमे अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करना है तो संवैधानिक तरीकों पर तेजी से अपनी पकड़ बनानी होगी। उनका मानना था कि कि हमें खूनी क्रांति के तरीकों को पीछे छोड़ देना चाहिए। इससे उनका तात्पर्य, सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की पद्धति को छोड़ देने से था। यह चौंकाने वाला अवश्य हो सकता है, परन्तु उन्होंने अपने इस विचार को साफ़ करते हुए आगे कहा था कि जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों के उपयोग करने के लिए कोई रास्ता मौजूद नहीं था, तब इन असंवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाना उचित था। लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हैं (संविधान के जरिये), वहां इन असंवैधानिक तरीकों को अपनाने का कोई औचित्य नहीं हो सकता है।
आंबेडकर ने अपनी दूसरी चेतावनी के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिए जॉन स्टुअर्ट मिल के लोकतंत्र के प्रति विचार को उद्धृत करते हुए कहा था कि किसी नेता या किसी संस्था के समक्ष, नागरिकों को अँधा समर्पण नहीं करना चाहिए। दरअसल मिल ने कहा था कि, "किसी महापुरुष के चरणों में अपनी स्वतंत्रता को समर्पित या उस व्यक्ति पर, उसमें निहित शक्ति के साथ भरोसा नहीं करना चाहिए, जो शक्ति उसे संस्थानों को अपने वश में करने में सक्षम बनाती हैं।" आंबेडकर का यह मानना था कि उन महापुरुषों के प्रति आभारी होने में कुछ भी गलत नहीं है, जिन्होंने देश के लिए जीवन भर अपनी सेवाएं प्रदान की हैं। लेकिन कृतज्ञता की अपनी सीमाएं होती हैं। आंबेडकर ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए आयरिश पैट्रियट डैनियल ओ'कोनेल के विचार को भी सदन के सामने रखा था। डैनियल ओ'कोनेल के मुताबिक, "कोई भी व्यक्ति अपने सम्मान की कीमत पर किसी और के प्रति आभारी नहीं हो सकता है, कोई भी महिला अपनी शुचिता की कीमत पर किसी के प्रति आभारी नहीं हो सकती है और कोई भी देश, अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर किसी के प्रति आभारी नहीं हो सकता है।"
आंबेडकर यह मानते थे कि भारत के मामले में, यह सावधानी बरती जानी, किसी अन्य देश की तुलना में कहीं अधिक आवश्यक है। उनके अनुसार भारत में, भक्ति (या जिसे आत्मा के उद्धार का मार्ग कहा जा सकता है), देश की राजनीति में वह भूमिका निभाती है, जो दुनिया के किसी भी अन्य देश की राजनीति में निभाई नहीं जाती है। उनका यह मानना था कि, धर्म में भक्ति, आत्मा के उद्धार का मार्ग हो सकती है, लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक-पूजा, तानाशाही की राह सुनिश्चित करती है। आंबेडकर ने अपनी तीसरी चेतावनी के सम्बन्ध में यह सुझाव दिया था कि हमें मात्र राजनीतिक लोकतंत्र (Political Democracy) से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, बल्कि हमे समानता (Equality), स्वतंत्रता (Liberty) और बंधुत्व (Fraternity) के अंतर्निहित सिद्धांतों के साथ सामाजिक लोकतंत्र के लिए भी प्रयासरत रहना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को एक सामाजिक लोकतंत्र (Social Democracy) भी बनाना होगा। उनके अनुसार, एक राजनीतिक लोकतंत्र तब तक प्रगति नहीं कर सकता, जब तक कि उसका आधार सामाजिक लोकतंत्र नहीं होता है।
गौरतलब है कि मई 1936 में छपी 'जाति का विनाश' (Annihiliation of Caste) नामक अपनी उल्लेखनीय पुस्तिका में उन्होंने यह साफ़ तौर पर कहा था कि लोकतंत्र में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए सबसे पहले समानता लाने पर जोर दिया जाना होगा और राजनीतिक परिवर्तन के पहले, सामाजिक परिवर्तन पर जोर दिया जाना चाहिए। उनका कहना था, "राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं चल सकता जब तक कि वह सामाजिक लोकतंत्र के आधार पर टिका हुआ नहीं है। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? यह जीवन का एक तरीका है, जो जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को पहचान देता है।" भारत नामक विचार को जीवित रखने के लिए आम्बेडकर के अंतिम शब्द हमे पढने चाहिए एवं आत्ममंथन करना चाहिए। उनके कहना था कि, "... हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने हमें महान जिम्मेदारियां दी हैं। स्वतंत्रता के बाद से हम कुछ भी गलत होने पर अब अंग्रेजों को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं। यदि यहाँ से चीजें गलत हो जाती हैं, तो हमारे पास खुद को छोड़कर, दोष देने के लिए कोई नहीं होगा..."
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यह उनकी दूरदर्शिता ही थी कि वे संविधान सभा के आख़िरी भाषण में आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के ख़ात्मे को राष्ट्रीय एजेंडे के रूप में सामने लेकर आये।
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