सोमवार, 6 अप्रैल 2015

कहाँ सु सीखी आपने ,बात करन की रीत ,

कहाँ सु सीखी आपने ,बात करन की रीत ,

दिन दूनी निशि चौगुनी ,बढ़ती जाती प्रीत। 

सम पे रहना आपने ,कहाँ सु सीखा मीत ,

मीठी हो या तिक्त ,आपकी ,बतियों  में है प्रीत।  

मावस हो या पूर्णिमा ,गाते देखा गीत ,

पावस हो या ग्रीष्म हो ,देखा तुम्हें विनीत। 

मौसिम की बटमार में ,तुम हरदम  रहे सुनीत ,

रंग बदलती शाम में होते तुम अभिनीत। 

ऋतुएँ आईं और गईं , मुस्काए जगजीत 

निर्गुण ब्रह्म बने रहे ,दुग्ध में ज्यों नवनीत। 

आर्जव तुम में दीखता अर्जुन सा मनमीत ,

वाणी में अक्सर तिरी अनुगुंजित संगीत। 

साक्षी भावित तुम रहे ,सुख दुःख में मनमीत,

स्तिथप्रज्ञ बने रहे आंधी ओला शीत। 

2 टिप्‍पणियां:

Rahul... ने कहा…

स्थिरप्रज्ञ बने रहे आंधी ओला शीत ...
एकदम आपकी तरह .

दिगम्बर नासवा ने कहा…

साक्षी भावित तुम रहे ,सुख दुःख में मनमीत,
स्तिथप्रज्ञ बने रहे आंधी ओला शीत ...
ऐसे ही स्तिथप्रग्य रह सके जीवन में तो इश्वर की प्राप्ति दूर नहीं ...
भावपूर्ण दर्शन समेटे सभी दोहे ... राम राम जी ...