शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

अतिथि कविता : गिर गया गर हाथ से पुर्जा -डॉ .वागीश मेहता


अतिथि कविता : गिर गया गर हाथ से पुर्जा -डॉ .वागीश मेहता 


यूं तो वागीश जी ने यह कविता स्वतन्त्र सन्दर्भों में लिखी है ,पर आज के हालात में ,अगर रौल विन्ची

जी को अपना चेहरा नजर आता है तो उन्हें इस आईने को ज़रूर देखना और पढ़ना चाहिए 

              (1)


गिर गया अगर हाथ से पुर्जा ,

तेरी तक़रीर का क्या होगा ,

इस देश की संवरे न संवरे,

तेरी तकदीर का क्या होगा ?


          (2)
आस्तीन चढ़ा भर लेने से ,

कोई देश नहीं चला करता ,

कुछ सांप पले आस्तीनों में ,

फिर हाथ लकीर का क्या होगा ?

           (3)

बिन अनुभव की आंच तपे ,

सिर पर गर ताज  सज़ा तो क्या ,

जब वाहवाही भट -भाट करें ,

फिर किसी की सूझ सलाह ही क्या ?

            (4)

गर भारत को ही नहीं  जाना ,

फिर इतिहास पढ़ा तो क्या ,

इस वज्र सरीखी दिल्ली ,

तेरी तदबीर का क्या होगा ?

(तदबीर :कौशल ,उपाय )

प्रस्तुति :वीरेंद्र शर्मा (वीरू भाई )

3 टिप्‍पणियां:

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

वागीश जी की बहुत बढिया कविता पढ़ाने के लिए आभार।

रविकर ने कहा…

ज्ञानपीठ लिक्खाड़ को, पुर्जे-पुर्जे ख़्वाब |
पुर्जा उड़ जाए अगर, हालत होय खराब |

हालत होय खराब, चढ़ा ले आस्तीन फिर |
आस्तीन के साँप, सफलता चढ़ती है सिर |

खान-दान का खूह, खुदा है लगा डुबकियाँ |
तृप्त हुई हैं रूह, लगा ले मियाँ सुबकियाँ ||

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

'बिन अनुभव की आंच तपे ,

सिर पर गर ताज सज़ा तो क्या ,

जब वाहवाही भट -भाट करें ,

फिर किसी की सूझ सलाह ही क्या ?'
-
खरी बात ,
पता नहीं सब को क्या हो गया है!