मंगलवार, 30 जून 2009

पेरिस से कानपूर तक फतवे ही फतवे .

औरत माँ है ,दादी-माँ है ,माँ है नानी -माँ है ,महिषासुर मर्दनी है ,फ़िर भी महिषासुर फतवे पे फतवे जारी करने से बाज़ नहीं आता .क्यों फोकस मैं उसी औरत का शरीर बनाये रखा गया है ?पेरिस से कानपूर तक ,अतिउदार सरकोजी हों या दकियानूस मदारसी ,किसी देवबंदी स्कूल के वीसी ,सभी एक ही थाली के बेंगन ."मोडेसटी दाऊ नेम इस विमेन " से लेकर "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ,आँचल मैं है दूध और आंखों मैं पानी ".क्यों आदमी की पुरूष की आंखों का पानी कहाँ गया .ये तमाम परम्परा गत छवियाँ औरत का आज भी पीछा कर रहीं हैं .वो क्या पहने न पहने इससे आगे का पुरूष को दिखाई नहीं देता .क्या आँख मैं रतोंध (नाईट ब्लाइंड नेस )है ?या फ़िर सारा विजन ही मायोपिक है ,बैनाकुलर विजन क्या पुरूष के पास है ही नहीं या वर्चस्व की आग मैं खो गया .पुरूष वर्चस्व (मेल शाव निजम )यही तो सारा झगडा है .वर्चस्व कैसा ?किस बात का ?हिन् भावना है ये .एटमी ताकत से भी ताक़तवर है आज राजनितिक ताकत ,एटमी बटन उसी के हाथ मैं होता है .कुदरत अपना फ़ैसला ख़ुद कर लेगी .आधी दुनिया को सामाजिक हाशिये पर कब तक रखियेगा ?बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी औरतें सभी क्षेत्रों मैं आगे आ चुकी हैं ,कैसे रोकियेगा ?कल तक इंदिरा थी आज एक सोनिया सब पे भारी है .शालीन भी है ,परम्परा बद्ध भी ,लिबास उसका अपना चयन है ,औधा हुआथोपा हुआ नहीं है ,सुषमा का अपना तेवर है .

1 टिप्पणी:

संदीप ने कहा…

जी, बिल्‍कुल, कब तक स्त्रियों को दोहरी सर्वहारा बना कर रखेंगे, पूंजी की मार और पुरुष वर्चस्‍ववाद की सतायी आधी आबादी एक न एक दिन विद्रोह करेगी ही, अब कुछ हद तक किसी न किसी रूप में कर ही रही है।