गुरुवार, 21 जुलाई 2016

तूं किआ लपटावहि मूरख मना ,सुत मीत कुटंब अरु बनिता

तूं किआ लपटावहि मूरख मना ,सुत मीत कुटंब अरु बनिता

इन ते कहहु तुम कवन सनाथा।

हे मूर्ख मना ,हे निर्बुद्ध तू क्यों लिपटता है -पुत्र ,मित्र ,परिवार और स्त्री से। बता इनसे कौन सा सुख मिला है।

अनिक उपावी रोगु न जाइ ,रोग मिटै हरि अवखधु लाइ।

अनेक यत्नों से रोग नहीं जाता। एक हरि के नाम की दवा (औषधि )खाने से रोग चला जाता है।

घट घट मे हरजू बसै ,कहयो पुकार.

(तुझमें राम मुझमें राम ,सबमें राम समाया रे ,कोई नहीं है पराया रे भैया )

राम बोले रामा बोले ,राम बिना कोई बोले रे।

वारी आप्पो अपणी ,सब को ही आई वारी है ,

जिसके जी प्राण है ,क्यों साहिब मनुहो विसारी है।

(दुनिया दो दिन का है मेला सबकी बारी आनी ,उसे (रब को )याद रख क्यों बिसराये बैठा है प्राणि ,ये प्राण भी उसी से है जिसे भूले बैठा है। )

जब हम होते तब तूं नाहीं ,अब तूँ हीं मैं नाहीं।

(जब मैं था तब गुरु नहीं ,अब गुरु है मैं नाहिं ,प्रेम गली अति सांकरी तामें दो  समाई ,अहम और गुरु से मिलन साथ साथ नहीं होते )
.
दाते दात रखी हाथ अपने।

उसकी अहैतुकी कृपा उसकी मर्जी पर है।

His Causeless Mercy depends upon him whom to shower and select ,only He knows and decides.









1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

हरी नाम की दवा है सब जगह पर किस्मत वाले ही उसे पहचान पाते हैं ....