मन रे तू काहे न धीर धरे ,वो निर्मोही मोह न जाने
जिनका मोह करे।
इस जीवन की चढ़ती -ढ़लती धूप को किसने बांधा ,
रंग पे किसने पहरे डाले ,रूप को किसने बांधा ,
काहे ये जतन करे।
उतना ही उपकार समझ कोई ,जितना साथ निभा दे ,
जनम मरण का मेल है सपना ,ये सपना बिसरा दे ,
कोई न संग मरे।
मन रे तू काहे न धीर धरे ,वो निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे ,
मन रे तू काहे न धीर धरे।
जिनका मोह करे।
इस जीवन की चढ़ती -ढ़लती धूप को किसने बांधा ,
रंग पे किसने पहरे डाले ,रूप को किसने बांधा ,
काहे ये जतन करे।
उतना ही उपकार समझ कोई ,जितना साथ निभा दे ,
जनम मरण का मेल है सपना ,ये सपना बिसरा दे ,
कोई न संग मरे।
मन रे तू काहे न धीर धरे ,वो निर्मोही मोह न जाने जिनका मोह करे ,
मन रे तू काहे न धीर धरे।
1 टिप्पणी:
चंचल मन से धीर की चाह ... पर उम्र से साथ सब कुछ सीख जाता है ...
ज्ञान की खान है आजकल आपका ब्लॉग ... राम राम जी ...
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