बुधवार, 19 मई 2021

पुस्तक समीक्षा :ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की लेखक :अनिल गांधी प्रकाशन :नोशन प्रेस #८ ,थर्ड क्रॉस स्ट्रीट ,सीआईटी कॉलोनी ,मयलापुर ,चैन्नई (तमिलनाडु ) ६ ०००० ४

नील सोनी और अलका आर्य नदी के दो छोर हैं। नील एक रंगकर्मी है और अलका आर्य आरक्षित कोटे से ऊँचे औंधे वाली अफ़सरानी है। नदी के दो छोर हैं दोनों लहरें जिन्हें जोड़ती ज़रूर हैं एक नहीं कर पातीं।  

ज्वार -भाटा से रागात्मक संबंध कब एक सुनामी में बदल जाएं ,'ताऊ  -ते' या 'कैटरीना' हो जाएं इसका कोई निश्चय नहीं। नील परम्परा-बद्ध लेखन की तरह हैं तो अलका छंद मुक्त कविता से लेकर नै कविता,हाइकु से लेकर क्षणिका तक एक साथ सब कुछ है। कब बैलाड , आलाऊदल की तरह वीर-गाथा बन जाए हल्दी घाटी हो जाए इसकी भी  कोई प्रागुक्ति नहीं कर सकता। 

 उपन्यास के अंदर एक अंडरकरेंट है अंतर् धारा है सतह के बहुत नीचे जहां एक साथ थियेटर की प्रतिबद्धता और अनुशासन  है ,साधन और साध्य का ऐक्य भी है तो अफसरी की बदमिज़ाजी और अहंकार भी है। और इसके के नीचे दबी कुचली एकल नारी की व्यथाकथा है निस्संगता और बेबसी है। अलका के यहां स्थायित्व नहीं है। शी इज़ इमोशनालि अनस्टेबिल।

एक तुनकमिज़ाज़ी का मूर्त रूप है अलका आर्य जो सामूहिक रूप से धू... आँ पैदा करती है और उस धुंध के आड़ में अपनी पसंद ढूंढ लेती है। आउट आफ दी वे जाकर नील की  मदद करती है। उसकी पेंशन रिलीज़ कराती है। अर्थ प्रबंधन में भी मददगार साबित होती है। 

अफसरी उसके हाथ में ऐसा हथगोला है जिसे  समाज के चील कौवो और गिद्धों पे दागने में वह ज़रा भी नहीं हिचकती। एक सामाजिक गुलेल से वह विपक्षी को  कब निशाने पे ले ले नील इससे बेहद आतंकित रहता है। 

अलका और नील लिविंगइन रिलेशनशिप ,सहजीवन में हैं इसे कस्बाई प्रवृत्ति के लोगों को समझाने में उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। सामाजिक झरबेरियों की चुभन यहां बेहद की है। पेशे से नील एक टीचर है जो सेवा निवृत्ति के बाद अपनी पेंशन रिलीज़ कराने के लिए बेतहाशा ख़ाक छान रहा है ,हताश होने से पहले अलका उसे एक झटके में बाहर निकाल लेती है लालफीता शाही के चक्रव्यू से। नील उपकृत है दबा जाता है अलका के एहसानात  में।

अलका एक उत्पीड़ित आहत बाघिन है जो बेहद आहत हुई है अपनों  के हाथों।पैदाइशी लेबल से उबरने में उसका जीवट उसका मददगार बनता है। अलका के यहां जातिगत दलदल  कभी भी बघनखे खोल के नर-सिंह  अवतार ले सकती है। बड़े बड़ों को वह उनकी औकात कद काठी बतलाने में ज़रा देर नहीं लगाती है।

गाली -गलोच से लेकर एक खौफ पैदा करना अपने आसपास के परिवेश में उसकी आदत बन गई है। घबराते हैं उससे उसके मातहत है। लेकिन वह अंदर से टूटी हुई एक आधी अधूरी महिला है, जो सम्पूर्णता की तलाश में है।चीज़ें उसे आकर्षित ज़रूर करती हैं लेकिन वह उन्हें निर्जीव बनाकर रखना चाहती है साधना चाहती है सईस  के  घोड़े की तरह जब दिल चाहे चाबुक फटकार दो ,ऐड़ लगा दो। यही उसकी डिफेन्स मैकेनिज़्म है जीने का अंदाज़ है। चन्दा ,श्यामा ,नील के नाटकों की समक्ष हैं अदाकारा हैं जो अलका को बतलाती हैं नील एक पूर्ण -पुरुष है। वह उलट पुलट कर सब कुछ देख लेना चाहती है सच्चे सौदे की तलाश में है।कोई बिचौलिया नहीं चाहिए उसे।  

आखिरी पृष्ठों में कथा दुलकी चाल से दौड़ने लगती है। अलका की तलाश पूरी होती है पाठक इस मैराथन खेले में शुरू से लेकर आखिर तक सांस रोके रहता है उसे लगता रहता है ये नदी के दो कूल एक दूजे को देख तो सकते हैं मिल नहीं पाएंगे। 
 
उपन्यास  में यूं दर्ज़न भर से ज्यादा पात्र हैं जो ऑक्सिलरी मेडिसिन की तरह उद्दीपन और उद्दीपक की तरह कथा को आगे ठेल ने में मदद गार बनते हैं कहीं कोई स्पीड ब्रेकर नहीं है उद्दाम आवेग है रागात्मक आलोड़न है यहां ,उपन्यास पढ़ने से ताल्लुक रखता है सिर्फ एक मर्तबा नहीं बार -बार।        

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