शनिवार, 3 अक्टूबर 2020

अलबत्ता स्थानीय प्रशासन का भय ,गस्ती पुलिस का दबदबा उससे पैदा दहशत वक्त की पहले से ज्यादा मांग है। निर्भया के बाद भी जबकि पूरी देश की संवेदना यकसां थी महिला सुरक्षा को पंख लगे हों ऐसा कहना हिमाकत ही होगी

१९७७ के जुलाई माह में श्रीमती इंदिरागांधी बिहार के बेलछी में अतिविषम परिस्तिथियों में हरिजनों की एक बस्ती के कई रहवासियों की बड़े भूपतियों ज़मींदारों द्वारा की गई हत्या से विचलित होकर उनके परिवारजनों को सांत्वना देने पहुंची थी। यात्रा टुकड़ा टुकड़ा ट्रेन ,जीप ,ट्रैक्टर और दलदली इलाके में हाथी की सवारी के साथ संपन्न हुई थी । 

तब हरिजनों के लिए दलित शब्द का इस्तेमाल चलन में नहीं आया था -दलित यानी पददलित आज  भी उसी स्थिति में है खासकर दलित समुदाय की हमारी बेटियां। निर्भया दलित नहीं थीं ,ज़ाहिर है वर्ण वर्ग कोई भी हो महिला सुरक्षा हमारे यहां हासिये पर ही रही आई है।किसी को किसी का खौफ ही नहीं है न फांसी का न सज़ा याफ्ता ताउम्र बने रहने का। खुलाखेल फरुख्खाबादी है। 

जबकि कन्या -पूजन का चलन इसी भारतधर्मी समाज  में बरकरार है ,भाषण में हमारे यहां : 

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः

का भी प्रलाप है। व्यवहार  में एक के बाद एक हाथरस काण्ड ,बलरामपुर काण्ड दिल्ली काण्ड ,झुमरीतलैया काण्ड ,बिहार काण्ड ,महाराष्ट्र काण्ड ,...... 

राहुल  कह सकते है कोरोना है तो क्या मेरी दादी भी हरिजनों की बस्ती में जातीं थीं। दिक्कत यह है एक सामाजिक भेदभाव ,तिरस्कार ,जातिगत  ऊँच - नीच मनोविज्ञान ,मीडिया एक्स्पोज़र ,नेट और स्मार्ट फोन की अति ,अर्जित संस्कारों से ताल्लुक रखने वाली समस्या का राजनीतिकण पूरी बे -शर्मी के साथ कर लिया जाता है। महिला सुरक्षा को चाकचौबंद चुस्त दुरुस्त गोलबंद करने की गारंटी यहां किसी के भी पास नहीं है ।जैसा समाज वैसा ही तंत्र ,पुलिस ,प्रशासन ,मुख्यमंत्री  किसी एक को कुसूरवार ठहराना वाज़िब नहीं है। 

किसी समाज के नागर बोध का आइना वहां महिला की सामाजिक सुरक्षा स्थिति से गहरे ताल्लुक रखता है। फ़र्ज़ हम सबका है। अच्छे संस्कार अर्जित करने की सामाजिक होड़ हो तो स्थिति में सुधार हो। फिलवक्त तो .....  संस्कार के नाम पर इंटरनेट पे परोसी गई अवांछित सामिग्री ही आबालवृद्धों को लुभाये है।विज्ञापन में नारी शरीर की बारीकियां मुखर हैं। 

इस सबमें एक बदलाव अपेक्षित हैं। इस हमाम में सब यकसां  हैं। 

अलबत्ता स्थानीय प्रशासन  का भय ,गस्ती पुलिस का दबदबा उससे पैदा दहशत वक्त की पहले से ज्यादा मांग है। निर्भया के बाद भी जबकि पूरी देश की संवेदना यकसां थी महिला सुरक्षा को पंख लगे हों ऐसा कहना हिमाकत ही होगी ,दुर्दशा पहले जैसी ही है।इस या उस राजनीतिक ग्रुप के खिलाड़ी अपनी खिलंदड़ी से बाज़ नहीं आ रहे हैं। अपराधी के समर्थन में प्रदर्शन यहां अब होने लगा है। इससे बुरे हालात और क्या होंगें ? 

ज़ाहिर है मामला संस्कारहीनता मूल्यहीनता पूर्व जन्मों की आपराधिक करनी ,भोग यौनि पशु यौनि के स्तर पर रहनी सहनी से भी जुड़ा है।

दुष्यंत जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं :

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ,सब कमल के फूल मुरझाने लगे हैं ,

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा  मक़सद नहीं लेकिन ये सूरत बदलनी चाहिए।

वीरेंद्र शर्मा (८७० /३१ ,भूतल ,निकटस्थ एफएम स्कूल ,सेक्टर ३१ ,फरीदाबाद -१२१ ००३ )

veerubhai1947@gmail.com 

    

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