मंगलवार, 20 अक्टूबर 2020

कबीर चंदन का बिरवा भला बेढियो ढाक पलास , ओइ भी चंदन होइ रहे बसे जु चंदन पास।

फिर छिड़ी  बात बात मिट्टी की      

मैं बचपन को बुला रही थी ,बोल उठी बिटिया मेरी ,

नंदन वन सी फूल उठी ,यह छोटी सी कुटिया मेरी ,

'माँ ओ ' कहकर बुला रही थी , मिट्टी  खाकर आई थी ,

कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में ,मुझे खिलाने लाई थी..........   

       ........ ..... ..... .......  ..... सुभद्रा कुमारी चौहान। 

                            ज़माना कन्वेंशनल  विजडम की ओर  लौट रहा है।परम्परा को चूम रहा है दुलरा रहा है। विज्ञान अब पश्चिम के  झरोखे से यही कर रहा है कह रहा है : जो बच्चे मिट्टी में खेलते कूदते बड़े होते हैं वह अपेक्षाकृत न सिर्फ तंदरुस्त रहते हैं उनकी त्वचा भी रुक्ष नहीं होती भाँति -भाँति की एलर्जीज़ एलर्जन्स के हमले से भी ये बच्चे कमोबेश बचे रहते हैं। मज़ेदार बात ये है ये बात अब किसी अजेंडा के तहत नहीं शोध की खिड़की से छनकर फिनलैंड योरोप और अमरीका के कई नगरों से आई है। 

मिट्टी का गुणगायन किया गया है मेरे देश की मिट्टी सोना उगले -उगले हीरे मोती .....शोध ने यह भी चेताया है खेती ऑर्गेनिक हो मिट्टी की लवणीयता अतिरिक्त रूप से बढ़ी हुई न हो न ही उसमें रसायनों कीटनाशकों नाशिजीवों का रिसाव ज़रुरत से ज्यादा हुआ हो। 

एक अपना देश हैं खाते इस देश की मिट्टी  से उपजा अन्न  गीत चीन के गाते हैं ढोल पाकिस्तान का पीटते हैं और यह सब एक अदद मल्लिका -ए -इटली और उसके अतिगुणवान चिरकुमार सपूत की वजह से हो रहा है। मणिशंकर कंकड़ से लेकर शशि फरूर ,खुर्शीद बरमान जैसे लोग पाक में जाकर पाक अब्बा  के कसीदे काढ़ते हैं भारत के बारे में वहां जाकर कहते हैं यहां तब्लीग़ियों के साथ दुभांत होती है उन्हें बदनाम किया जाता है। 

ज़ाहिर है  दोष भारत की मिट्टी  में नहीं आया है मिट्टी आज भी भारतीय शौर्य और मेधा के शिखर पुरुष रचती है पैदा करती है जो देश के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर देते हैं दोष उन मनीष पनवाड़ियों का है जो देश के इन तमाम शौर्य के सर्वोच्च शिखरों को भी घिघियाके कहते  हैं अरे वो सरकारी कर्मचारी।आप क्या हैं श्री मान आप भडवे हैं उकील हैं वह भी एक संकर कुनबे के भ्रष्ट शहज़ादे और उसकी अम्मा के। कुसूर आपका नहीं है आप तो नेक माँ बाप की संतान थे ,संग का रंग चढ़ गया। इसीलिए कहा गया है :

कबीर बाँसु बडाई  बूडिया इउ मत डुबो कोइ ,

चंदन के निकटै बसै बाँसु सुगंधु न होइ। 

कबीर चंदन का बिरवा भला बेढियो  ढाक  पलास , 

ओइ  भी चंदन होइ रहे बसे जु चंदन पास। 

गंध को सु उपसर्ग का संसर्ग मिले तो वह सुगंध और 'दुर 'का साथ नसीब होने पर  दुर्गन्ध हो जाती है दोष मेरे देश की मिट्टी का नहीं है इन ना- शुक्रों का है खाते मेरे देश का हैं  गीत गाते हैं चीन और पाक के.

 घाटी में भी फिर बाज़ कुलबुलाने लगें हैं इन्हें इनकी पूर्व नज़रबंदी दिलवानी होगी। 

कन्वेंशनल विज़डम भली लेकिन उसके कद्रदान तो हों संतमहात्मा और कुलटाओं का भेद समझे ,ऑर्गेनिक फार्मिंग के लाभ हानि की विवेचना करें।    

                                                                        

                                                                                    

                                                                    

1 टिप्पणी:

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