रविवार, 13 सितंबर 2015

सत्संग के झरोखे से धर्म क्या है

सत्संग के झरोखे से : धर्म क्या है ?


धर्म आचरण की वस्तु है चर्चा की नहीं चर्या की वस्तु  है। जिससे इस लोक (इह लोक )में अभ्युदय हो परलोक में श्रेयस(कल्याण ) की प्राप्ति हो वह धर्म है। जिसके करने से कृष्ण प्रसन्न हों फिर चाहे वह हमारा कोई कर्म हो या विचार वह धर्म है । धर्म जीवन को दिशा देता है आँख की तरह। विज्ञान गति देता है जैसे पाँव। विज्ञान की यात्रा बाहर की ओर  है धर्म की अंदर की ओर है।  विज्ञान करके देखता है। चलकर के देखता है किसी मार्ग पर फिर मानता है। धर्म शब्द को प्रमाण मानता है।श्रुति (वेद )शब्द प्रमाण हैं ,धर्म पहले ही  मानकर चलता है।

दोनों सत्य का ही अन्वेषण करते हैं मार्ग भिन्न हैं।

एक विधिवत धर्म का मार्ग है जो बतलाता है कि व्यक्ति को क्या करना चाहिए। व्यक्ति को क्या करना चाहिए ये रामायण सिखाती है। मर्यादित आचरण ही रामचरित मानस है। जिसे सुनकर भगवान शंकर ने अपने मन में रख लिया था धारण कर लिया था वही रामचरितमानस है।

क्या नहीं करना चाहिए ये महाभारत सिखाती है।कटु वचन नहीं बोलना चाहिए किसी की मज़ाक में भी हंसी नहीं उड़ानी चाहिए बोलने में संयम रखना चाहिए यह महाभारत सिखाती है। द्रौपदी ने जब मायावी महल को टोहते दुर्योधन पानी में गिर गया तो यही तो कहा था -अंधों के अंधे ही होते हैं।

युधिष्ठिर द्यूत क्रीड़ा में सब कुछ दांव पे लगा बैठे  महाभारत हमें बतलाती है कि जूआ खेलना बुरी बात है।

शबरी और सूर्पनखा दो अलग किरदार (पात्र ,चरित्र )हैं रामायण के। सूर्पनखा में अहंता भाव है अपने सुन्दर होने का अहंकार है। राक्षसी है लेकिन अपनी माया से परम सुंदरी का वेश भरके आई है। रामतो स्वयं मायापति हैं माया उनकी दासी है। सूर्पनखा के पास सिर्फ आँख है दृष्टि नहीं है। आँख सिर्फ रूप देखती है राम का। रूप से राग पैदा होता है। राग से बंधन।

शबरी में निरहंकार दैन्य है दीनता है अनुराग है राम के प्रति।शबरी राम का स्वरूप दर्शन करती है। उसके पास दृष्टि है दृष्टि अनुराग देखती है अनुराग मुक्त करता है।रूप वाह्य है स्वरूप भीतरी है। आभ्यांतरिक है स्वरूप।

1 टिप्पणी:

Kailash Sharma ने कहा…

अगर व्यक्ति सद आचरण का पालन करता है तो वही सबसे बड़ा धर्म है...बहुत सार्थक प्रस्तुति...