सोमवार, 8 अगस्त 2016

मिथिआ स्रवन परनिंदा सुनहि ,मिथिआ हसत परदरब कउ हिरहि , मिथिआ नेत्र पेखत परत्रिअ रूपाद ,मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद।

मिथिआ स्रवन परनिंदा सुनहि ,मिथिआ हसत परदरब कउ हिरहि ,

मिथिआ नेत्र पेखत परत्रिअ रूपाद ,मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद।

मिथिआ चरन परबिकार कउ धावहि ,मिथिआ मन परलोभ लुभावहि।

मिथिआ तन नही परउपकारा ,मिथिआ बासु लेत बिकारा ,

बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ,सफल देह नानक हरि नाम लए.

भावार्थ :(मनुष्य के )कान व्यर्थ है ,(यदि वे )परनिंदा सुनते हैं ;हाथ व्यर्थ हैं (यदि ये )पराये धन को चुराते हैं ;आँखें व्यर्थ हैं (यदि ये )पराई जवानी का रूप देखतीं ;जीभ व्यर्थ हैं (यदि यह  )खाने -पीने तथा दूसरे  स्वादों में लगी है ;चरन व्यर्थ हैं (यदि ये )पराये नुकसान के लिए भाग -दौड़ कर रहे हैं।

हे मन !तू भी व्यर्थ है(यदि तू )पराये धन का लोभ कर रहा है। (वे )शरीर व्यर्थ हैं जो परोपकार नहीं करते ,(नाक )व्यर्थ है ,जो विकारों की गन्ध सूंघ रही है। (अपने -अपने अस्तित्व का मनोरथ )समझे बिना ये सारे (अंग )व्यर्थ हैं।

हे नानक ! वह शरीर सफल है ,जो प्रभु का नाम जपता है।

   

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