संसार में हमें किसलिए पैदा किया गया और जन्म लेने का हमें क्या फल हुआ ,
(कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ )
यदि क्षण भर के लिए हमने संसार -सागर से पर करने वाले परमात्मा में मन नहीं लगाया। (१).
हे परमात्मा ,हम ऐसे अपराधी हैं ; जिस परमात्मा ने हमें शरीर और प्राण दिए ,उनमें कोई भाव -भक्ति नहीं रखी। (१) .
(हम कभी )पराये धन ,पराये शरीर ,पराई स्त्री ,परायी निंदा तथा व्यर्थ के विवादों को नहीं छोड़ पाए ; इसलिए हमारा आवागमन नहीं छूट पाया और पुनः पुनः आने का यह प्रसंग नहीं टूटा। (२).
जिस घर में नित्य हरि कथा होती है ,वहां क्षण भर के लिए भी मैंने फेरा नहीं किया। सदा लम्पटों ,चोरों ,तथा दुष्टों की संगति में ही बना रहा। (३).
काम ,क्रोध और अहंकार की सम्पति ही मुझमें है ,किन्तु दया ,धर्म और गुरु की सेवा आदि गुण मैंने सपने में भी नहीं अपनाये। (४).
परमात्मा दीनदयालु ,कृपालु ,भक्त्त -वत्सल और निर्भय है। कबीर जी कहते हैं हे प्रभु ,अपने दास को काठिनाई से बचा लो ,मैं सदा तुम्हारी सेवा ने रत रहूँगा।
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ। भवनिधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ।
(१)
गोबिंद हम ऐसे अपराधी। जिनि प्रभु जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी। (१ )(रहाउ ).
परधन परतन परती निंदा पर अपबादु न छूटै। आवागमनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै। (२).
जिह घर कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हों मै फेरा। लम्पट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा। (३).
काम ,क्रोध, माइया ,मद, मतसर ए संपै मो माही। दइआ धरमु अरु गुरु की सेवा ए सुपनंतरि नाही। (४).
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी। कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी। (५ ).
(कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ )
यदि क्षण भर के लिए हमने संसार -सागर से पर करने वाले परमात्मा में मन नहीं लगाया। (१).
हे परमात्मा ,हम ऐसे अपराधी हैं ; जिस परमात्मा ने हमें शरीर और प्राण दिए ,उनमें कोई भाव -भक्ति नहीं रखी। (१) .
(हम कभी )पराये धन ,पराये शरीर ,पराई स्त्री ,परायी निंदा तथा व्यर्थ के विवादों को नहीं छोड़ पाए ; इसलिए हमारा आवागमन नहीं छूट पाया और पुनः पुनः आने का यह प्रसंग नहीं टूटा। (२).
जिस घर में नित्य हरि कथा होती है ,वहां क्षण भर के लिए भी मैंने फेरा नहीं किया। सदा लम्पटों ,चोरों ,तथा दुष्टों की संगति में ही बना रहा। (३).
काम ,क्रोध और अहंकार की सम्पति ही मुझमें है ,किन्तु दया ,धर्म और गुरु की सेवा आदि गुण मैंने सपने में भी नहीं अपनाये। (४).
परमात्मा दीनदयालु ,कृपालु ,भक्त्त -वत्सल और निर्भय है। कबीर जी कहते हैं हे प्रभु ,अपने दास को काठिनाई से बचा लो ,मैं सदा तुम्हारी सेवा ने रत रहूँगा।
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ। भवनिधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ।
(१)
गोबिंद हम ऐसे अपराधी। जिनि प्रभु जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी। (१ )(रहाउ ).
परधन परतन परती निंदा पर अपबादु न छूटै। आवागमनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै। (२).
जिह घर कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हों मै फेरा। लम्पट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा। (३).
काम ,क्रोध, माइया ,मद, मतसर ए संपै मो माही। दइआ धरमु अरु गुरु की सेवा ए सुपनंतरि नाही। (४).
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी। कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी। (५ ).
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें