जो पाथर कउ कहते देव ,ता की बिरथा होवै सेव।
जो पाथर की पाईं पाइ ,तिस की घाल अंजाई जाइ। (१ ).
ठाकुरु हमरा सद बोलंता ,सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता। (१ )(रहाउ ).
अंतरि देउ न जानै अंधु ,भ्रम का मोहिआ पावै फंधु।
न पाथरु बोलै ना किछु देइ ,फ़ोकट करम निहफल है सेव। (२ ).
जे मिरतक कउ चंदनु चढ़ावै ,उसते कहहु कवन फल पावै।
जे मिरतक कउ बिसटा माहि रुलाई ,तां मिरतक का किआ घटि जाई। (३ ).
कहत कबीर हउ कहहु पुकारि ,समझि देखु साकत गावार।
दूजै भाई बहुतु घर गाले ,राम भगत है सदा सुखाले।
भावार्थ :जो लोग पत्थर की मूर्तियों को ही परमात्मा मानकर उनकी सेवा में रत होते हैं ,उनकी सेवा विफल रहती है। जो पत्थर की मूर्तियों के चरण छूते हैं ,उनका समूचा श्रम वृथा होता है। (१ ).
हमारा स्वामी तो चिर (सदा )चेतन है ,वह समस्त जीवों को सर्वस्व देनेवाला है। (१ ). (रहाउ ).
अज्ञानी मनुष्य अंतर्मन में बसने वाले परमात्मा को नहीं जानता ,इसीलिए भ्रम और मोह के फंदों में फंसा रहता है। पत्थर की मूर्तियां न तो बोलती हैं , न कुछ दे सकतीं हैं ; उनके सम्बन्ध में कमाया कर्म और उनकी सेवा सब व्यर्थ और निष्फल है। (२ ).
यदि कोई मुर्दे को (पत्थर की मूर्ति निर्जीव होने के कारण मुर्दा कही गई है ) चन्दन लगाए तो भला सोचो ,वह उससे क्या फल पा सकता है ?(इसके विपरीत यदि मुर्दे को गंदगी में लिपटा दो ,तो भला उसका क्या घट जाएगा। )(३ ).
कबीर कहते हैं कि ऐ मायाधारी गंवार जीव ,समझ -बूझकर काम करो। द्वैत भाव से तो जीवन में हानि ही उठानी होती है,केवल राम भक्ति ही सुखदाई है।
कबीर तो अन्यत्र भी कहते हैं :
कांकर पाथर जोरिके मस्ज़िद लई बनाय ,
तां पे मुल्ला बांग दे ,क्या भरा हुआ खुदाय।
पाहुन पूजे हरि मिले ,तो मैं पूजूँ पहाड़ ,
ता ते ये चाकी भली पीस खाय संसार।
कबीर धर्म के बाहरी स्वरूप ,कर्म काण्ड पर व्यंग्य करते हैं। अंतर की यात्रा को प्रेरित करते हैं।
मोकु(मोको ) कहाँ ढूंढें रे बन्दे ,मैं तो तेरे पास में।
न तीरथ में ,न मूरत में ,न एकांत निवास में ,न मंदिर में न मस्ज़िद में ,
न काबा कैलास में। (न काशी ,कैलाश में ).
न मैं जप में न मैं तप में ,न मैं बरत उपास(उपवास ) में ,न मैं किर्या -करम में रहता
न मैं जोग संन्यास में।
न ही प्राण में न ही पिंड में ,न हूँ मैं आकास में ,न मैं परबत गुफा में ,न साँसों के सांस में।
खोजो तो तुरत मिल जाऊँ एक पल की तलाश में ,कहत कबीर सुनो भाई साधो ,मैं तो हूँ विश्वास में।
प्रभु को पाने के लिए अन्तर की सूक्ष्म यात्रा करनी होगी।अंदर की सूक्ष्म यात्रा में गुरुग्रंथ साहब को(शबद को ) बिठाना होगा .हस्ती मिटानी होगी अपनी। चींटी बनना होगा ,हाथी नहीं। हाथी बाहरी कर्म -काण्ड का प्रतीक है चींटी अंतर की यात्रा का।
हर रेत खांड में बिखरो ,हसथी चुनो न जाई ,कह नानक गुरु भली बताई चींटी होइके खाई।
https://www.youtube.com/watch?v=bqjOLnOLv9I
https://www.youtube.com/watch?v=sRg6RE-lwI0
जो पाथर की पाईं पाइ ,तिस की घाल अंजाई जाइ। (१ ).
ठाकुरु हमरा सद बोलंता ,सरब जीआ कउ प्रभु दानु देता। (१ )(रहाउ ).
अंतरि देउ न जानै अंधु ,भ्रम का मोहिआ पावै फंधु।
न पाथरु बोलै ना किछु देइ ,फ़ोकट करम निहफल है सेव। (२ ).
जे मिरतक कउ चंदनु चढ़ावै ,उसते कहहु कवन फल पावै।
जे मिरतक कउ बिसटा माहि रुलाई ,तां मिरतक का किआ घटि जाई। (३ ).
कहत कबीर हउ कहहु पुकारि ,समझि देखु साकत गावार।
दूजै भाई बहुतु घर गाले ,राम भगत है सदा सुखाले।
भावार्थ :जो लोग पत्थर की मूर्तियों को ही परमात्मा मानकर उनकी सेवा में रत होते हैं ,उनकी सेवा विफल रहती है। जो पत्थर की मूर्तियों के चरण छूते हैं ,उनका समूचा श्रम वृथा होता है। (१ ).
हमारा स्वामी तो चिर (सदा )चेतन है ,वह समस्त जीवों को सर्वस्व देनेवाला है। (१ ). (रहाउ ).
अज्ञानी मनुष्य अंतर्मन में बसने वाले परमात्मा को नहीं जानता ,इसीलिए भ्रम और मोह के फंदों में फंसा रहता है। पत्थर की मूर्तियां न तो बोलती हैं , न कुछ दे सकतीं हैं ; उनके सम्बन्ध में कमाया कर्म और उनकी सेवा सब व्यर्थ और निष्फल है। (२ ).
यदि कोई मुर्दे को (पत्थर की मूर्ति निर्जीव होने के कारण मुर्दा कही गई है ) चन्दन लगाए तो भला सोचो ,वह उससे क्या फल पा सकता है ?(इसके विपरीत यदि मुर्दे को गंदगी में लिपटा दो ,तो भला उसका क्या घट जाएगा। )(३ ).
कबीर कहते हैं कि ऐ मायाधारी गंवार जीव ,समझ -बूझकर काम करो। द्वैत भाव से तो जीवन में हानि ही उठानी होती है,केवल राम भक्ति ही सुखदाई है।
कबीर तो अन्यत्र भी कहते हैं :
कांकर पाथर जोरिके मस्ज़िद लई बनाय ,
तां पे मुल्ला बांग दे ,क्या भरा हुआ खुदाय।
पाहुन पूजे हरि मिले ,तो मैं पूजूँ पहाड़ ,
ता ते ये चाकी भली पीस खाय संसार।
कबीर धर्म के बाहरी स्वरूप ,कर्म काण्ड पर व्यंग्य करते हैं। अंतर की यात्रा को प्रेरित करते हैं।
मोकु(मोको ) कहाँ ढूंढें रे बन्दे ,मैं तो तेरे पास में।
न तीरथ में ,न मूरत में ,न एकांत निवास में ,न मंदिर में न मस्ज़िद में ,
न काबा कैलास में। (न काशी ,कैलाश में ).
न मैं जप में न मैं तप में ,न मैं बरत उपास(उपवास ) में ,न मैं किर्या -करम में रहता
न मैं जोग संन्यास में।
न ही प्राण में न ही पिंड में ,न हूँ मैं आकास में ,न मैं परबत गुफा में ,न साँसों के सांस में।
खोजो तो तुरत मिल जाऊँ एक पल की तलाश में ,कहत कबीर सुनो भाई साधो ,मैं तो हूँ विश्वास में।
प्रभु को पाने के लिए अन्तर की सूक्ष्म यात्रा करनी होगी।अंदर की सूक्ष्म यात्रा में गुरुग्रंथ साहब को(शबद को ) बिठाना होगा .हस्ती मिटानी होगी अपनी। चींटी बनना होगा ,हाथी नहीं। हाथी बाहरी कर्म -काण्ड का प्रतीक है चींटी अंतर की यात्रा का।
हर रेत खांड में बिखरो ,हसथी चुनो न जाई ,कह नानक गुरु भली बताई चींटी होइके खाई।
https://www.youtube.com/watch?v=bqjOLnOLv9I
https://www.youtube.com/watch?v=sRg6RE-lwI0
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