बुधवार, 31 अगस्त 2016

सभै घट रामु बोलै रामा बोलै ,राम बिना को बोलै रे

सभै घट रामु बोलै रामा बोलै ,राम बिना को बोलै रे 

सर्व जीवों और शरीरों में परमात्मा व्याप्त है ,

उसके अतिरिक्त वहां और कौन बोलता है। (१ ). (रहाउ ).

मिट्टी एक ही है ,हाथी से लेकर चींटी तक असंख्य प्रकार के बर्तन उसी से बने हैं। जड़ ,जंगम ,कीट -पतंगों आदि सबमें राम समाया हुआ है। (१) .मुझे अब उस अनंत परमात्मा का ही ध्यान है ,अन्य सब आशाएं मैंने छोड़ दी हैं। संत नामदेव कहते हैं कि वे निष्काम हो गए हैं ,अब स्वामी और दास एक हो गए हैं (अर्थात प्रभु सब जगह व्याप्त हैं ,नामदेव उसी व्याप्ति में लीन हो गए हैं। (२ )(३).

सभै घट रामु बोलै रामा बोलै। राम बिना को बोलै रे। (१ )(रहाउ ).

एकल माटी कुंजर चीटी भाजन हैं बहु नाना रे।

असथावर जंगम कीट पतंगम घटि घटि रामु समाना रे । (१).

एकल चिंता राखु अनंता अउर तजहु सभ आसा रे।

प्रणवै नामा भए निहकामा को ठाकरु को दास रे। (२)(३). 

https://www.youtube.com/watch?v=Vg6K99auDGE

  • 2 years ago
  • 3,572 views
  • मंगलवार, 30 अगस्त 2016

    संसार में हमें किसलिए पैदा किया गया और जन्म लेने का हमें क्या फल हुआ (कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ )

    संसार में हमें किसलिए पैदा किया गया और जन्म लेने का हमें क्या फल हुआ ,

    (कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ )

    यदि क्षण भर के लिए हमने संसार -सागर से पर करने वाले परमात्मा में मन नहीं लगाया। (१).


    हे परमात्मा ,हम ऐसे अपराधी हैं ; जिस परमात्मा ने हमें शरीर और प्राण दिए ,उनमें कोई भाव -भक्ति  नहीं रखी। (१) .

    (हम कभी )पराये धन ,पराये शरीर ,पराई स्त्री ,परायी  निंदा तथा व्यर्थ के विवादों को नहीं छोड़ पाए ; इसलिए हमारा आवागमन नहीं छूट पाया और पुनः पुनः आने का यह प्रसंग नहीं टूटा। (२).

    जिस घर में नित्य हरि कथा होती है ,वहां क्षण भर के लिए भी मैंने फेरा नहीं किया। सदा लम्पटों ,चोरों ,तथा दुष्टों की संगति  में ही बना रहा। (३).

    काम ,क्रोध और अहंकार की सम्पति ही मुझमें है ,किन्तु दया ,धर्म और गुरु की सेवा आदि गुण मैंने सपने में भी नहीं अपनाये। (४).

    परमात्मा दीनदयालु ,कृपालु ,भक्त्त  -वत्सल और निर्भय है। कबीर जी कहते हैं हे  प्रभु ,अपने दास को काठिनाई से बचा लो ,मैं सदा तुम्हारी सेवा ने रत रहूँगा।

    कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ। भवनिधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ।

    (१)

    गोबिंद हम ऐसे अपराधी। जिनि प्रभु जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी। (१ )(रहाउ ).

    परधन परतन परती निंदा पर अपबादु न छूटै। आवागमनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै। (२).

    जिह घर कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हों मै फेरा। लम्पट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा। (३).

    काम ,क्रोध, माइया ,मद, मतसर ए संपै मो माही। दइआ धरमु अरु गुरु की सेवा ए सुपनंतरि नाही। (४).

    दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी। कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी। (५ ).


    तमाम तप -तीर्थ व्यर्थ हैं निंदक के

    तमाम तप -तीर्थ व्यर्थ हैं निंदक के 

    यदि कोई अड़सठ तीर्थों का स्नान करे ,बारह शिव मंदिरों (द्वादश शिवलिंगों -सोमनाथ ,किष्किंधा ,पुरी ,नर्मदा ,देवगढ़ ,पूना या अब पुणे ,रामेश्वरम,द्वारका ,काशी अब वाराणसी ,गोदावरी ,अमरनाथ और औरंगाबाद  )के अतिरिक्त बारह मूर्तियों (आराध्य देव- प्रतिमाओं )-विष्णु ,लक्ष्मी ,शिव ,पार्वती ,ब्रह्मा ,सरस्वती ,यम ,गणेश ,दुर्गा ,भैरों ,सूर्य और चन्द्र )को पूज ले ,यदि वह स्नान- ध्यान के अनेक स्थान बनाए ,तो भी साधु की निंदा करने से उसका सब पुण्य व्यर्थ हो जाएगा। (१ ).

    साधु की निंदा करने वाले का कभी उद्धार नहीं होता ; निश्चय जानो कि वह नरक में ही पड़ेगा (१ ). (रहाउ ).

    यदि वह जीव सूर्य ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में स्नान करे ,सोलह श्रृंगार युक्त स्त्री का दान करे ,समस्त स्मृतियों की कथा अपने कानों से सुने ,किन्तु एक निंदा करने मात्र से उसके ये सब गुण व्यर्थ हो जाते हैं। (२ ).

    यदि वह प्रभु मंदिर में प्रसाद चढ़ाये ,भूमि का दान करे और महलों में सुशोभित हो ; अपना कार्य बिगाड़कर भी दूसरे का कार्य सँवारे तो भी निंदा करने के कारण वह संसार की भौतिक यौनियों में (चौरासी के चक्र में )भटकता रहेगा। (३) .

    संसार उसकी निंदा किसलिए करे ,निंदक का तो अपना प्रसार ही बहुत होता है और कभी भी उसका पोल खुल जाता है। संत रविदास कहते हैं कि हमने निंदक पर खूब सोच -विचार की है (और यह निष्कर्ष निकाला है कि )वह पापी निश्चय ही नरक को सिधारता है। (४ ).

    जे ओहु अठिसठि तीर्थ न्हावै। जे ओहु दुआदस सिला पुजावै। करै निंद सभ बिरथा जावै। (१) .

    साध का निंदक कैसे तरै। सरपर जानहु नरक ही परै। (१ )(रहाउ ).


    जे ओहु ग्रहन करै कुलखेति। अरपै नारि सीगार समेति। सगळी सिंम्रिति स्रवनी सुनै। करै निंद कवनै नही गुनै। (२) .

    जे ओहु अनिक प्रसाद करावै। भूमि दान सोभा मंडपि पावै। अपना बिगारि बिरांना सांढै। करै निंद बहु जोनी हांढै। (३).

    निंदा कहा करहु संसारा। निंदक का परगटि पाहारा। निंदकु सोधि साधि बीचारिआ। कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ। (४ ).





    साधौ   निंदक मित्र हमारा। 

    सुखी रहो निंदक जग माहिं  ,रोग न हो संसारा।

    हमरी निंदा करने वाला ,उतरे भवन  विसारा । 

    निंदक के चरणन  की अस्तुति, (दासों) वाथो बारमबारा। 

    चरण दास कहें सुनिये साधु ,निंदक साधक वारा।  

    साधौ   निंदक मित्र हमारा। 

    निंदक नियरे राखिये ,आँगन कुटी छवाय।

    बिन पानी साबुन बिना निर्मल होत सुभाय(सुभाव ).

    sadhu nindak mitra humare//rajendra das ji maharaj//sant mahima

    • 205 views
    Published on oct 30, 2014
    album thakur hamre raman bihari

    सोमवार, 29 अगस्त 2016

    कहु कबीर छूछा घटु बोलै (खाली घड़ा ही बोलता है -थोथा चना बाजे घना )

    कहु कबीर छूछा घटु बोलै (खाली घड़ा ही बोलता है -थोथा चना बाजे घना ).


    संतु मिलै सुनीऐ कहीऐ। मिलै असंतु मसटि करि रहिऐ। बाबा बोलना किआ कहीऐ।

     जैसे राम नाम रवि रहीऐ। (रहाउ ). (१ )

    संतन सिउ बोले उपकारी। मूरख संग बोले झख मारी। (२ )

    बोलत बोलत बढ़हि बिकारा। बिनु बोले किआ करहि बीचारा। (३).

    कहु कबीर छूछा घटु बोलै। भरिआ होइ सु कबहु न डोलै। (४).

    संत से भेंट हो जाए तो उससे चर्चा चलाने बातचीत करने में आनंद मिलता है। असंत की मुलाक़ात दुःखदायी होती है ,ऐसे  में मौन बने रहना ही उपयुक्त है। (१ ). आखिर संतों के पास जाकर क्या चर्चा करें ?वही जिसके द्वारा राम नाम में लीन होना संभव हो। (१ )रहाउ ).

    संतों के साथ की हुई बातचीत से उपकार होता है, किन्तु मूर्ख से की चर्चा बेकार जाती है। (२ ).

    बेकार बोलने से अवगुण  बढ़ते हैं , किन्तु बिना बोले भी क्या कर सकते हैं ?(३ ).

    कबीर जी कहते हैं कि खाली घड़ा ही बोलता है , यदि वह भरा हो तो वह कभी डगमगाता नहीं (यहां ऐसे मनुष्य का संकेत दिया है जो औछा होकर आत्म -प्रचार करता है ,किन्तु सही अर्थों में उसकी परमात्मा तक पहुँच नहीं होती।  (४ ). 






    बुधवार, 24 अगस्त 2016

    इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी। मनु किरसाणु हरि रिदै जम्माइ लै इउ पावसि पदु निरबाणी।

    इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी। मनु किरसाणु हरि रिदै जम्माइ लै इउ  पावसि पदु निरबाणी।(१ ).

    काहे गरबसि मूड़े माइआ। पित सुतो सगल कालत्र माता तेरे होहि न अंति सखाइआ। (रहाउ )

    बिखै बिकार दुसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई। जपु तपु संजमु होहि जब राखे कमलु बिगसै मधु आस्रमाई। (२ )


    बीस सपताहरो बासरो संग्रहै तीनि खोड़ा नित कालु सारै। दस अठार मै अपरंपरो चीनै कहै नानकु इव एकु तारै।

    विशेष :अब कृषि का दृष्टान्त  देकर गुरूजी जीवात्मा का पथ प्रदर्शन कर रहें हैं।

    इस शरीर को धरती बनाओ ,शुभ कर्मों का बीज बोओ और प्रभु के नाम -स्मरण के जल से उसे सींचो।  मन को किसान बनाकर परमात्मा के साक्षात्कार की खेती कर लो ,इसी में मोक्ष का रहस्य है। (१ ).

    ऐ मूर्ख ,माया का अहंकार क्यों करता है ; इस संसार में माता -पिता ,पुत्र -स्त्री कोई भी अंत समय तुम्हारा सहायी नहीं होगा। (रहाउ ).

    विषय -विकारों के बेकार पौधों को (weeds ,खरपतवार ,जो खेती खराब करते हैं )को उखाड़ फेंकों और इनको हटाकर अंतर -मग्न हो जाओ। (जैसे किसान को खेती के लिए चौकन्ना रहना होता है ,वैसे )जप ,तप संयम द्वारा धरती (शरीर )को तैयार करो ,तब वहां कमल खिलेंगे (हृदय कमल )और मधु -रस टपकेगा (नाम का रस प्राप्त होगा )(२ ).

    बीस और सात के निवास स्थान (अर्थात पांच महाभूत -आकाश ,वायु ,अग्नि ,जल ,धरती ,पांच तन्मात्राएँ अर्थात इन्द्रियों के विषय -स्पर्श ,रूप ,रस ,गंध ,श्रवण ,पांच कर्मेन्द्रिया -organs of action -हाथ ,पैर ,मुख ,जनेन्द्रिय ,तथा मलद्वार (गुदा ),पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (organs of knowledge )-मुख ,नेत्र ,कर्ण ,नासिका ,चमड़ी (त्वचा ),पांच प्राण -प्राण  ,अपान ,उदान ,समान ,वयान (व्यान ); एक मन तथा एक  बुद्धि -कुलमिलाकर २७ (सत्ताइस )-इनमें अपने आप को संयत करें तथा तीनों अवस्थाओं (बचपन ,जवानी ,बुढ़ापा )में (अवश्यम्भावी )मृत्यु को याद रखें।

    दसों दिशाओं और सम्पूर्ण वनस्पति (अर्थात और किन्हीं टीकाकारों के मत में चारों वेद ,छ: शास्त्र (षड दर्शन )और अठारह पुराणों आदि सभी धर्म ग्रंथों )में परमात्मा के नाम (अस्तित्व )को खोजें तो हे नानक !इसी स्थिति में प्रभु उसको (संसार समुद्र )से पार कर देगा। (३ ).


    .





    फूल खिलता है मुरझाने का तख़य्यल लेकर , जिसे हंसता हुआ पाओगे ,वो परेशाँ होगा।







    फूल खिलता है मुरझाने का तख़य्यल  लेकर ,

    जिसे हंसता हुआ पाओगे ,वो परेशाँ  होगा।

    कहत  कबीर सुनो मन मेरे ,

    ते  ही हवाल होएंगे तेरे।

    https://www.youtube.com/watch?v=I0xInKlmQMU



    माना की इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके , कुछ (हार )खार कम ही कर गए ,गुज़रे जिधर से हम।



    माना की इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके ,

    कुछ (हार )खार कम ही कर गए ,गुज़रे जिधर से हम।

    https://www.youtube.com/watch?v=w_2QabR2EDI

    Japji Sahib Katha Pauri 2 - Giani Sant Singh Ji Maskeen

    • 133,659 views
    Japji Sahib Katha Pauri 2 - Giani Sant Singh Ji Maskeen

    मंगलवार, 23 अगस्त 2016

    पर का बुरा न राखो चीत , तुमको दुःख नहीं भाई मीत।

    पर का बुरा न राखो चीत ,

    तुमको दुःख नहीं भाई मीत।

    https://www.youtube.com/watch?v=FTk0jj61UWI

    सर्व रोग का औखद नाम।

    जाके हृदै विश्वास प्रभ  आया ,

    तत्व ज्ञान तिस मन भर आया।







    पर का बुरा न राखो चीत ,
    तुमको दुःख नहीं भाई मीत।

    To download this video in mp3 format, please download youtube to mp3 converter software. Link is given below:http://download.cnet.com/Free-YouTube-t…
    YOUTUBE.COM
    LikeShow more reactions
    Comment

    रविवार, 21 अगस्त 2016

    चिंता ताकि कीजिये जो अनहोनी होय , ए मारग संसार को नानक थिर नहीं कोय।

    चिंता ताकि कीजिये ,जो अनहोनी होय ,

    ए मारग  संसार को ,नानक थिर नहीं कोय।

    तुलसी भरोसे राम के ,रहो(रह्यो ) खाट पे सोय ,

    अनहोनी होनी नहीं ,होनी होय सो होय।

    अनहोनी कोई नहीं है। दुःख है। दुःख है तो इसका कारण भी है :अज्ञान। जिसे मैं वरत सकता हूँ खर्च कर सकता हूँ उसे छोड़कर उस वर्तमान को छोड़कर या तो मैं अतीत को जीता हूँ अतीत के दुःख को पकड़े बैठा रहता हूँ जो मैं अब बरत नहीं सकता जो अब है नहीं उसकी परछाइयाँ मेरा पीछा नहीं छोड़तीं।  या फिर मैं भविष्य की आशंका से ग्रस्त रहता हूँ कहीं ये न हो जाए कहीं वो न हो जाए ,ये होगा तो क्या होगा वो होगा तो क्या होगा।

    दुःख है तो उससे छुटकारा भी है :निवृत्ति । वह है ज्ञान।निवृत्ति का साधन है ज्ञान ,ज्ञान में आनंद है रस है :ज्ञान ही तो निवृत्ति है। अज्ञान ही दुःख   है।

    अज्ञान निरंजन को निरंकार को छुपा लेता है प्रकाश की कुछ किरण कुछ रौशनी ,ज्ञान ,परमात्मा को प्रकट कर देता है वही ज्ञान है उसी की रौशनी में भगवान प्रकट होता है।

    मैं कृत हूँ करता नहीं हूँ करता चिंता करे मैं क्यों चिंता करूँ ?  

    https://www.youtube.com/watch?v=31B5eBtWKi0

    तुम मेरे पास होते हो ,जब कोई दूसरा नहीं होता !

    नानक दुखिया सब संसार ,

    सो सुखिया जिस नाम धार।

    Nanak Dukhiya Sab Sansar- O Nanak the whole world is in pain. This Punjabi saying tells us that all humans, regardless of wealth, status, power ect are in some way or another unhappy. This is because the mind always craves for more than it has. Also Guru Ji is telling us that we all suffer from the pain of separation from God.All our pains stem from this. The only way to escape this pain is become one with God and attain liberation from the Samsara cylce (Mukti).Sat Sri Akal (God the eternal one is true).

    शनिवार, 20 अगस्त 2016

    जब जब होय अरिष्ट अपारा। तब तब देह धरत अवतारा।

    जब जब होय अरिष्ट अपारा।

    तब तब देह   धरत अवतारा।

    जब जब होय धर्म की हानी  ,

    बाढ़ें असुर ,अधम, अभिमानी

    तब -तब विविध, प्रभु धरे शरीरा ,

    हरें कृपानिधि , सज्जन पीड़ा।





    जो ज़हर -ए -हलाहल है वही अमृत है नादाँ , मालूम नहीं तुझको अंदाज़ -ए -पीने के।

    जो ज़हर -ए -हलाहल है वही अमृत है नादाँ ,
    मालूम नहीं तुझको अंदाज़ -ए -पीने के।
    ---------डॉ. मोहम्मद इकबाल (अल्लामा इकबाल )
    ...See More
    Giani Sant Singh Ji Maskeen About Sri Dasam Granth (Charitropakhyan)

    रविवार, 14 अगस्त 2016

    थाल विच तिंनि वसतू पईओ सतु संतोखु वीचारो। अम्रित नामु ठाकुर का पइओ जिसका सभसु अधारो। जे को खावै जे को भुंचै तिसका होइ उधारो।

    थाल विच तिंनि वसतू पईओ सतु संतोखु वीचारो।

    अम्रित नामु ठाकुर का पइओ जिसका सभसु अधारो।

    जे को खावै जे को भुंचै तिसका होइ उधारो।


    गुरु साहिब ने मुदावेणी में आदि श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के वर्ण्य -विषय का उपदेश किया है।

    'इनका कथन है कि इसमें सत्य ,सन्तोष और चिंतन का संकलन हुआ है। (सत्य -अकाल पुरुष की संज्ञा ,संतोष -जीवन जीने की कला ,विचार या चिंतन -आत्मा ,परमात्मा और सृष्टि संबंधी दार्शनिक चर्चा ). यदि कोई जीव प्रभु -सत्ता में विश्वास उसके नाम -स्मरण के आश्रय इन तीनों  महत्   तत्वों का भोग करे अर्थात इनकी गहनता को पहचाने तो उसका उद्धार हो सकता है। '

    आदि श्री गुरु ग्रन्थ साहिब मुक्तात्मा गुरुओं ,सच्चे सन्त -महात्माओं की वाणी और भाटों की गुरु -प्रशस्तियों का संकलन है। संत महात्मा सदैव सबके लिए समान होते हैं ; वे 'सत्य' के साधक एवं प्रचारक होते हैं ,इसीलिए उनकी वाणी सार्वलौकिक और सर्वकालीन होती है। उनके वचन युग -युगान्तर में अटल सत्य होते हैं। अतः आदि श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित वाणी 'सत्य की वाणी 'है।

    संत महात्माओं की वाणी गुरु ग्रन्थ साहिब में संग्रह करने के दो कारण हो सकते हैं -एक स्वयं गुरु साहिब अपने से पूर्व हुए सन्त -महात्माओं की वाणियों का पाठ किया करते थे ,उपदेश रूप में इन्हें अपने शिष्यों को सुनाते एवं  इनकी व्याख्या उन्हें समझाते थे। दूसरे ,गुरूजी ने इन वाणियों में गुरु परम्परा की विचारधारा की पुष्टि होती अनुभव की।

    आदि श्री गुरु ग्रन्थ साहिब मध्यकालीन संतों की  वाणी का अमूल्य संकलन है ,जिसमें सम्पादक श्री गुरु अर्जुन देव जी ने विग्रह और विघटन के युग में व्यापक भारतीय दृष्टि  से प्रादेशिक ,भाषायी ,वर्गीय अथवा जातीय वृत्तों -घेरों से परे एक समान मंच की स्थापना की। वाणीकारों की समयावधि बारहवीं से सत्रहवीं शती ईसवी तक ,लगभग ५०० वर्षों की थी -वे इतने दीर्घकाल की सर्वांगीण परि-स्थितियों के भुक्त -भोगी एवं अध्यात्म अनुभवी महापुरुष थे।  

    शनिवार, 13 अगस्त 2016

    अमर भारती सलिला की 'गुरमुखी 'सुपावन धारा। पहन नागरी पट ,उसने अब भूतल -भ्रमण विचारा।


    अमर भारती सलिला की 'गुरमुखी 'सुपावन धारा।

    पहन नागरी पट ,उसने अब भूतल -भ्रमण विचारा।

    अकाल पुरख के बचन सिउ परगट चलाइयो पंथ।

    सभ सिक्खन को बचन है गुरु मानीओ ग्रन्थ।

    गुरु खालसा जानीओ प्रगट गुरु की देह।

    जो सिख मो मिलबो चहै खोज इनी मो लेह।

    प्रत्येक क्षेत्र प्रत्येक संत की वाणी।

    सम्पूर्ण विश्व में घर -घर है पहुँचानी।

    शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

    Just want to share a story with u

    Just want to share a story with u
    Once there was a man,he wanted to test the presence of God.. He went to the temple., bow down. Join his hands and asked God to grant his wishes. He asked God for a flower and a butterfly. He was very confident and sure that that he would be fullfilled. As he opened his eyes, what he saw was out of his imagination. There was a cactus plant and a caterpillar.
    He doubted on the presence of God, mocked on people who worshiped lord. He was angry n disappointed that he threw both the things in the backyard of his garden. As time passed, he happened to go the backyard of the garden. For some time he could not believe his eyes. There he saw a beautiful flower grown frm the cactus and a beautiful butterfly has metamorphised frm the caterpillar. He had no words, he was stuuned to see the miracle of God. His wish was bestowed by God, but in a different manner.
    That man was cinfident and sure that God will grant his wish. Bt had no faith. Its the faith that will lead us to God Our faith swings at the time of adversity. We put God on test. This is the very basic nature of human beings. Our faith is like pendulum, keeps on swinging to n fro. God has his own calender. He has kept everything fr all of us So hold on ur faith do nt allow it to swing.
    If I cant stand in drought, I cant ask fr rains To believe that God is our secret friend who may not be their on our victories, but of sure he will carry us in his hands when we are abt to fall.
    Faith in God is trusting yourself. This trust will lead us to God.
    If God has brought us to the edge, he will either gives us wings or hod oyr hand.
    So let us all worship God our lord to whole heart. Stand by his side holding hands



    निज नारी के संग ,नेह तुम नित्य बढईयो। पर नारी की सेज ,भूल सुपने नहीं जइयो








    निज नारी के संग ,नेह  तुम नित्य बढईयो। 

    पर नारी की सेज ,भूल सुपने  नहीं जइयो। 

    पर नारी सो नै छुरी पैनी कर जानो  ,

    पर नारी के भजे काल व्यापो तन मानो। 



    रीत न जानत प्रीत की, फैशन(पैशन ) की परतीत 

    बिच्छु बिसियर  बैश्या, कहो  कबन के मीत 

    चंचलान के चरित को ,चीन्ह सकत  नहिं  कोय ,

    ब्रह्मा बिष्नु रुद्रादी सब, सुरपत  कोऊ होय।  


    निज नारी के संग ,नेह  तुम नित्य बढईयो। 

    पर नारी की सेज ,भूल सुपने  नहीं जइयो। 

    पर नारी सो नै छुरी पैनी कर जानो  ,

    पर नारी के भजे काल व्यापो तन मानो।

    25



    रीत न जानत प्रीत की, फैशन(पैशन ) की परतीत 

    बिच्छु बिसियर  बैश्या, कहो  कबन के मीत 

    चंचलान के चरित को ,चीन्ह सकत  नहिं  कोय ,

    ब्रह्मा बिष्नु रुद्रादी सब, सुरपत  कोऊ होय।  

    https://www.youtube.com/watch?v=ottBojc32Rs


    गुरुवार, 11 अगस्त 2016

    To Be Or Not To Be

    Your presence may value the presence of someone ;who may or may not matter to you .This aspect of your life  so wonderful ,so much of life ,when your life is being valued by others .

    On the contrary your life has no value for the person whom you value the most .So all of us living in a self created mirage .

    Ready to see what we want to see .On the above we spend all our lives in making others to see what we visualize .

    Is this show of  our strength ,power ?No mere act of cowardice .To keep ourselves shrouded by the cloth of ego ,'I' -ness .

    To feel happy and winners in making others crying .

    This act is  not conducted by illiterate ones or the ones who has  no access to net world .

    This achievement is scored by the ones who are the authority ,by the ones who move around with loaded daggers(Pistols ) in their wallets .

    Is this what education teach us? To pull others down so that we can climb ,Crab mentality .Are we human beings or animals .

    This is a fact .

    How much good an animal does .

    God will never transform the creature into human being .

    But we human beings do such conduct that we on our own get transformed into animals .

    This is a plight .Living in jingles (jungles) surrounded by animals known as humans .

    As humans we should all possess one quality that is to empathize with others .But we know only to sympathize and pity the situation .

    We are ready to criticize and ready with suggestions.But will never try to stand in other person's position and feel the pain .Why can't we feel the pain ; when God has blessed us with the power to feel .Why we fail here ?

    Is it necessary we feel the same pain only when we have our hurt .Can not visualize darkness until everything around us is dark ?

    We make friends with ones who have the same frequencies as we have .Friends are the best part of our lives ,so much so that we can not dream our lives without them .They are there with us through our thick and thin because we have chosen them .

    But why this rule apply to all other relations which we have .

    Why they do not understand us or simply we can't understand them .

    A ridge is built instead of a bridge .This ridge widens and gets deep with passage of time.

    Scholars say whatever we are going through ,this is because of our past KARMAS .They will not leave us ;we have to bear with them .Accept them with whole hearted smile through your sorrows and be happy that Lord is standing behind you .

    You too support and protect .

    So nice to hear .But ask a person who is standing in this situation .I know I am being too negative but it is true at some points of our lives we become too unbearable .

    Our strength gives up we surrender to the situation .

    Succumb to our destiny .

    As it is said time heals everything your pains and sorrows too will vanish one day .But the scar always remain there .

    Life is not an easy game .We are being chosen to live it because God trusted us .But what we are doing defaming his trust .Giving up .

    Yes ,we very easily give up .We forget the real essence of our birth .Why we were born ?What is the reason behind this .

    We start believing in the theory of KARMAS .We forget as humans we have the power to change the course of our destiny .

    We stop practicing ,stop working only wait what it will happen on its own .

    So never let anyone to reign over you .

    You will be transformed into a slave ,lose your real identity .

    Love can give you power and can take it away from you .

    So always keep that power in your hand .

    Note :This is a piece of writing -cum personal address to a friend -cum fatherly personality .

    कहूँ कि वह कोई और नहीं मेरी मानस पुत्री है तो अतिशयोक्ति न होगी सच होगा। अक्सर हम खुद से ही बातें करते रहते हैं मन की जुबान कचर कचर चलती रहती है। नाटक के एक पात्र से हम खुद से ही बतियाते रहते हैं।

    लिखना अन्वेषण हैं खुद से मुलाकात है। एनाल्जेसिक है लिखना ,दर्द -निवारक है लिखना।

    माइसा !(मायशा ,माइशा ?),ये सही परिचय है नुपूर माथुर मेरी मानस पुत्री का ,तुमसे -ता -आरुफ़ करवाया है उसकी  लेखनी का तुम खुद भी तो लिखती हो। चाहो तो मिल सकती हो मेरे तैं ,मेरी ख़ुशी के लिए एक बेटी दूसरी से मिले।

    जयश्रीकृष्ण !मेरे लिए फख्र की बात होगी परस्पर एक सम्वाद चले।




    मंगलवार, 9 अगस्त 2016

    जो दीसै सो चालणहारु ,लपटि रहिओ तह अंध अंधारु

    अनिक भाति माइआ के हेत ,सरपर होवत जानु अनेत।

    बिरख का छाइआ सिउ रंग लावै ,ओह बिनसै उहु मनि पछुतावै।

    जो दीसै सो चालणहारु ,लपटि रहिओ तह अंध अंधारु।

    बटाऊ सिउ जो लावै नेह ,ता कउ  हाथि न आवै केह।

    मन हरि के नाम की प्रीति सुखदाई ,

    करि किरपा नानक आपि लए लाई।  

    भावार्थ : माया के प्रेम (आकर्षण )अनेक किस्मों (प्रकार ,तरहों )के हैं ,(लेकिन यह सारे )अंत में नष्ट हो जाने वाले समझो।
    (यदि कोई मनुष्य )वृक्ष की छाया के साथ प्रेम करे ,(परिणाम यह होगा कि )की वह छाया नष्ट हो जाती है ,और वह मनुष्य

    मन में पश्चाताप  करता है। गोचर जगत नश्वर है ,चलायमान है ,अभी है, अभी नहीं है ,निरन्तर बदलाव से गुजर रहा है।

    यही तो माया है।

    अभी सुख है अभी दुःख है , अभी क्या था ,अभी क्या है ,

    जहां दुनिया बदलती है उसी का नाम दुनिया (माया )है।

    This life is a tenure ,we are endowed with a definite number of breaths .

    ई दम दा मैं नु कि वे भरोसा ,आया ,आया न आया न आया। 


    इस (जगत )से यह अँधा मनुष्य अपनत्व बनाये बैठा है ,नेहा लगाए बैठा है। जो( भी) मनुष्य( किसी) यात्री से सम्बन्ध

    जोड़ लेता है ,अंत में उसके साथ (हाथ )कुछ नहीं लगता -रहता है।

    हे मन ! प्रभु के नाम का प्रेम ( ही ) सुख देने वाला है ;(पर )हे नानक !(यह प्रेम उस मनुष्य को प्राप्त होता है ,जिसे प्रभु

    कृपा करके (अपनी ओर )लगाता है।

    https://www.youtube.com/watch?v=hfiUbrvTuK4

    सोमवार, 8 अगस्त 2016

    मिथिआ स्रवन परनिंदा सुनहि ,मिथिआ हसत परदरब कउ हिरहि , मिथिआ नेत्र पेखत परत्रिअ रूपाद ,मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद।

    मिथिआ स्रवन परनिंदा सुनहि ,मिथिआ हसत परदरब कउ हिरहि ,

    मिथिआ नेत्र पेखत परत्रिअ रूपाद ,मिथिआ रसना भोजन अन स्वाद।

    मिथिआ चरन परबिकार कउ धावहि ,मिथिआ मन परलोभ लुभावहि।

    मिथिआ तन नही परउपकारा ,मिथिआ बासु लेत बिकारा ,

    बिनु बूझे मिथिआ सभ भए ,सफल देह नानक हरि नाम लए.

    भावार्थ :(मनुष्य के )कान व्यर्थ है ,(यदि वे )परनिंदा सुनते हैं ;हाथ व्यर्थ हैं (यदि ये )पराये धन को चुराते हैं ;आँखें व्यर्थ हैं (यदि ये )पराई जवानी का रूप देखतीं ;जीभ व्यर्थ हैं (यदि यह  )खाने -पीने तथा दूसरे  स्वादों में लगी है ;चरन व्यर्थ हैं (यदि ये )पराये नुकसान के लिए भाग -दौड़ कर रहे हैं।

    हे मन !तू भी व्यर्थ है(यदि तू )पराये धन का लोभ कर रहा है। (वे )शरीर व्यर्थ हैं जो परोपकार नहीं करते ,(नाक )व्यर्थ है ,जो विकारों की गन्ध सूंघ रही है। (अपने -अपने अस्तित्व का मनोरथ )समझे बिना ये सारे (अंग )व्यर्थ हैं।

    हे नानक ! वह शरीर सफल है ,जो प्रभु का नाम जपता है।

       

    गीता का प्रथम अध्याय हमें बतलाता है इस जीवन और जगत को देखने का हमारा तरीका विकार ग्रस्त है


    गीता का प्रथम अध्याय हमें बतलाता है इस जीवन और जगत को देखने का हमारा तरीका विकार ग्रस्त है ,यह विकार ग्रस्त नज़रिया ही हमारे दुखों की वजह बना हुआ है ,हम खुद को करता और भोक्ता दोनों ही माने हुए हैं जबकि हम तो भुक्त हैं ,भोक्ता कृष्ण हैं ,करता प्रकृति के गुण हैं -गुण ही असल करता हैं ,गुण ही गुणों में बरत ते हैं -सतो-रजो -तमो गुण (त्रिगुणात्मक प्रकृति ,माया )ही करता है। डू -अर हैं।
    अर्जुन बड़ी बड़ी बातें करता है देहात्मक बुद्धि से ग्रस्त है स्वयं को देह मानता है अपनी ही हद बंदी कर लेता है भीष्म -द्रोण को पर -पितामह और गुरु बतलाता है जबकि ये अधर्म के साथ खड़े हैं दुर्योधन का अन्न खाकर इनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है अर्जुन को कुरु वंश का विनाश तो दिखता है द्रौपदी का चीरहरण ,अवमानना नहीं दिखलाई देती है ज्ञानियों की माफिक वह कृष्ण को ही उपदेश देने लगता है -मधु सूदन हमें ये शोभा नहीं देता हम कुरु वंश में वर्ण संकर पैदा करने की वजह बने -कुल की स्त्रियों को वैधव्य प्रदान करने वाले कहे जाएं ....कुल कलंकित होवें ,स्त्रियाँ कुरुवंश की कुलटा हो जाएँ।
    कृष्ण अर्जुन को बतलाते हैं तुम सीमित शरीर नहीं हो ,असीम हो सच्चिदानंद स्वरूप हो ,कोई ऐसा वक्त नहीं था जब तुम नहीं थे या मैं नहीं था या ये कथित कुलगुरु नहीं थे ,ये आगे भी रहेंगें ,देह नष्ट होती है ,जो परिवर्तनशील है वही माया है जो परिवर्तन शील नहीं है वह 'तुम' यो -ओर रीयल सेल्फ है ।
    Virendra Sharma
    सब ग्रन्थों का सार है गीता
    सब ग्रन्थों का सार है गीता :योगीआनंदजी द्वारा दिए गए प्रवचन पर आधारित (छ :अगस्त ,२०१३ ,साउथ ब्लूमफील्ड माउनटेन्स ,पोंटियाक ट्रेल ,मिशिगन )
    साधारण सी मेले ठेले में मिलने वाली बांसुरी से असाधारण स्वर निकालते हुए योगी आनंदजी ने प्रवचन संध्या को अप्रतिम माधुर्य से भर दिया था। मन्त्रों की महिमा का बखान करते हुए आपने कहा -मन्त्र न सिर्फ ईश्वर का आवाहन करते हैं हमारे ब्रेन के लिए भी एक टोनिक (आसव )का काम करते हैं। ब्रेन फ़ूड हैं मन्त्र जो दिमाग में भरे सारे कचरे को बाहर निकालने की सामर्थ्य लिए रहते हैं।
    गीता के महत्व को बतलाने के लिए आपने औरंगजेब के भाई दारा शिकोह का उद्धरण दिया जो सुकून के तलाश में काशी की तरफ निकल आये थे। आप ने काशी के विद्वानों से उन्हें देवभाषा संस्कृत सिखलाने का आवाहन किया ताकी आप पुराणों में बिखरे हुए ज्ञान रत्नों का अरबी फारसी में अनुवाद कर अपने राज्य की प्रजा तक पहुंचा सकें। इस समस्त रूहानी ज्ञान से आप चमत्कृत और सम्मोहित थे। काशी के समस्त विद्वानों ने दारा को संस्कृत भाषा सिखाने से इस बिना पर इनकार कर दिया ,वह एक यवन थे।
    दारा लौटने लगे अपने लोगों की तरफ मार्ग में उनका साक्षात्कार एक ऐसे सन्यासी से हुआ जो सांसारिक प्रपंचों जाति और धर्म भेद का अतिक्रमण कर चुके थे। इस सन्यासी ने दारा को संस्कृत भाषा में पारंगत बना दिया। दारा ने पूरी निष्ठा और अथक परिश्रम और लगन के साथ तकरीबन ५२ प्राचीन धर्म ग्रंथों और पुराणों का अरबी फ़ारसी में अब तक अनुवाद कर लिया था। लेकिन समय के साथ उनकी शारीरिक ऊर्जा चुकने लगी थी वह लौट ही रहे थे वह परम हंस सन्यासी उन्हें मार्ग में फिर मिल गए। दारा को अभी भी मलाल रह गया था क्योंकि धर्मग्रन्थ तो अभी अनेक थे जो अनुवादित होने के लिए शेष थे। सन्यासी को दारा ने अपने मन की व्यथा बतलाई।
    सन्यासी ने कहा -बड़े अज्ञानी निकले तुम तो जीवन के इतने बरस यूं ही खराब कर दिए -सिर्फ एक गीता का अनुवाद कर देते तो सब ग्रंथों का सार समझ लेते।
    कैसे हमारा जीवन सफल हो सकता है ,भरपूर और संपन्न हो सकता है यह गीता में यथार्थ विधि बतलाया गया है। इसके लिए कुछ छोड़ने की भी आवश्यकता नहीं है। जो जहां हैं वहीँ ठीक है। वहीँ रहते हुए व्यक्ति हरेक बीमारी ,अनेक दुखों और नकारात्मकता से बच सकता है। बस गीता के अनुशीलन की ज़रुरत है। भागवत गीता व्यक्ति को अन्दर से शांत और स्वस्थ चित्त बना जीवन जीना सिखला देती है।
    तुम्हें तुम ही से मिलवा देती है गीता। तुम कौन हो तुम्हारा असल परिचय क्या है आज का व्यक्ति यह भी नहीं जानता है। उसकी नियति उस यंत्र मानव (रोबो )सी हो गई है जो दुनिया भर के सवालों का तो ज़वाब जानता है लेकिन उस से उसका हाल पूछो तो बगलें झाँकने लगेगा।अगर जीवन जीने की कला ही हमारे पास नहीं है तो बाहर का हासिल सब कुछ सारे भौतिक सुख साधन हम अपने साथ लेकर डूबेंगे।
    मन का ,आत्मा का खालीपन पैसे से नहीं खरीदा जा सकता है। परमात्मा का परिचय हमें आत्मिक संतुष्टि से भर सकता है। संसार असार नहीं है ऐसा बिलकुल नहीं है की इस भौतिक जगत का कोई मतलब नहीं है लेकिन जो ईश्वर ज्ञान है वही ईश्वर तत्व सब का संचालक है।
    हम कौन हैं कहाँ से आये हैं यह ही पता नहीं है आज के आदमी को। जीवन कोई रुके हुए तालाब का जल नहीं है वेगवती नदी की तरह प्रवाहमान है। गीता सारी सूचना (सूचना प्रोद्योगिकी ,इन्फर्मेशन टेक्नालोजी )का ज्ञान छिपाए हुए है। गीता पढ़ने से आपका जीवन आसान हो जाएगा। अहंकार नहीं आयेगा। खुद तमाशबीन बन खुद को ,जीवन को दृष्टा भाव से देख सकोगे।
    आनंदजी फिर एक उद्धरण देते हैं एक मदारी था जो एक के बाद एक हतप्रभ करने वाले करतब दिखलाता ही जा रहा था। लेकिन उस मदारी के झमूरे के चेहरे पर कोई भाव ही नहीं था वह निर्भाव ही था। किसी ने पूछा भाई तुम चमत्कृत दिखलाई नहीं देते। क्या मांजरा है। झमूरा बोला -मैं सब जानता हूँ। इन करतबों की सचाई मुझे मालूम है इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नहीं है।
    आप सिर्फ एक श्लोक गीता के हरेक अध्याय से चुन लें और इसका पारायण आरम्भ कर दें। आपको रोज़ अच्छी नींद आयेगी। घर में जगह जगह उसको प्रदर्शित करो प्ले कार्ड लगा दो श्लोक लिखके। उस श्लोक का जीवन दर्शन जानो। जीवन का सारा विज्ञान आपके सामने खुलके ठहर जाएगा।
    अर्जुन ने भगवान से पूछा -भगवन ऐसा व्यक्ति जो बहुत व्यस्त रहता है वह आपको कैसे प्राप्त कर सकता है। आज ऐसे लोग हैं जिनके पास अपार संपदा है लेकिन खाने के लिए भी वक्त नहीं है।
    भगवान बोले -जो तुम्हारा भटकता हुआ मन है वह मुझे दे दो। अपनी बुद्धि भी मुझे दे दो। इससे तुम मेरे अन्दर निवास करोगे। अब मन और बुद्धि कोई भौतिक वस्तु कोई फल या फूल तो है नहीं जो उठाओ और भगवान को दे दो।
    भगवान फिर कहते हैं :आँख के द्वारा देखने का ,कानों द्वारा सुनने का ,जीभ द्वारा स्वाद लेने का काम तुम नहीं कोई और कर रहा है। इन्दियाँ अपने अपने स्वभाव में संलिप्त हैं यह तुम नहीं हो। अपना दिलचस्पी लेने वाला उपभोक्ता बन स्वाद लेने रूप और ध्वनि का उपभोक्ता बनने वाला स्वभाव मुझे दे दो।
    इन्द्रीय सुख बोध छोड़ दो। अब जीवन निर्वाह के लिए स्वास्थ्य के लिए जीवन में व्यवस्था के लिए जीओ। देखो कौन सा भोजन तुम्हारे लिए उपयुक है स्वास्थ्यकर भोजन ही करो स्वाद के लिए नहीं। स्नान करो स्वच्छता के लिए। शरीर रुपी मंदिर को पवित्र बनाए रखने के लिए। वस्त्र पहनो मर्यादा के लिए। मंदिर जाओ तो भगवान के प्रेम से संसिक्त हो जाओ यह बतलाने दिखाने के लिए नहीं ,हम बहुत धार्मिक हैं।धर्म कर्म करने वाले हैं पूजा पाठी हैं। इस बाहरी स्वरूप से कोई प्राप्ति नहीं होने वाली है। दिखाऊँ हैं ये सब चीज़।
    भगवान के साथ हर चीज़ को जोड़ दो। वह पवित्र हो जायेगी। जिस चीज़ से मन परेशानी से भरता है वह मन ही मुझसे जोड़ दो। केला हो या सेव या फिर कोई अन्य अन्न या मिष्ठान्न ईश्वर अर्पण के बाद वही प्रसाद हो जाता है।भगवान ने कहा अपनी वह बुद्धि ही मुझे दे दो जो संशय ग्रस्त बनी रहती है । इस संशय बुद्धि को ही मुझे दे दो। तुम कर्म करो निर्णय करने की शक्ति बुद्धि को हम देंगे।
    जितना अधिक इन्द्रीय सुख भोग करते रहोगे उसी अनुपात में बीमार भी होते रहोगे। जीवन औषधालय हो जाएगा दवा खा खा के। जो व्यक्ति इस बुद्धि को मेरे से लगाता है वह मेरे में ही निवास करता है।
    आज का आदमी कहता है यह मन और बुद्धि तो पहले ही ३६ जगह व्यस्त है आपसे कैसे लगाएं। भगवान कहते हैं यदि तुम असमर्थ हो ऐसा नहीं कर सकते तो सिर्फ अभ्यास करो। लेकिन अभ्यास निरंतर होना चाहिए। टुकड़ा आपके मुंह में ही जाता है क्योंकि बचपन से खाने का अभ्यास जो है।
    नारद जी ने एकलव्य को एक मन्त्र ही दिया था। हे एकलव्य अभ्यास ही गुरु है। द्रोण ने तुम्हें धनुर्विद्या नहीं सिखलाई तो क्या। तुम्हारा अभ्यास तो तुमसे कोई नहीं छीन सकता है। इसे ही अपना गुरु बनाओ।
    गीता तो हमने आपको पढ़ा दिया और अनेक लोग गीता पर बोल रहें हैं लेकिन ज्ञान को जब तक प्रयोग में नहीं लाओगे एक मेथड एक प्रोद्योगिकी में नहीं बदलोगे ज्ञान को तो उसका असर भी कैसे होगा। अर्जुन ने कहा अभ्यास के लिए समय नहीं हैं। हम सब ऐसे ही अर्जुन हैं।
    गुरु आनंदजी ने कहा शान्ति से भरा भोजन ही प्राण तत्व पैदा करता है। शान्ति नहीं है क्योंकि भोजन के लिए भी पूरा समय नहीं है। अभ्यास कैसे हो भगवान ने इसके लिए भी गीता में एक युक्ति बतलाई है :
    एक मन्त्र बतलाया है अभ्यास को साधने का। चलो अभ्यास भी नहीं कर सकते हो तो न सही। मेरे लिए कर्म करो। सब कुछ भगवान को ही जाता है यह सोच के कर्म करो। एक व्यक्ति घर की सफाई कर रहा है बस इतना सोच ले सफाई करते वक्त घर मेरा नहीं है भगवान का है। यह जीवन भी भगवान का है।जो भी कुछ करो भगवान को खुश करने के लिए ही करो। जितने भी दिव्यगुण हैं वह सभी भगवान को अच्छे लगते हैं। देखो तो सही -अपने जीवन से हम कितना बुराई को अलग कर पा रहे हैं। अच्छाई को कितना ग्रहण कर पा रहें हैं। तो भगवान बतलायेगा देखो मैं ये हूँ। भगवान ने स्वयम कहा गीता में -जो भी कर्म करो इस भाव से करो ,भगवान के लिए कर रहा हूँ। ऐसा करने से भगवानमय बना सकता है व्यक्ति जीवन और जगत को। हर चीज़ फिर भगवान की ही लगेगी।
    आनंदजी ने बतलाया एक स्वभाव हम जन्म जन्मान्तर से लिए आ रहे हैं एक स्वभाव हमारा संग साथ बनाता है। अच्छे लोगों का संग साथ रखो। संसार की सफलता से भी कहीं श्रेष्ठ है आध्यात्मिक असफलता।
    ॐ शान्ति।

    Yogi Anand Ji
    गीता दूसरा अध्याय :सांख्य योग
    श्लोक (४ ):
    अर्जुन बोले -हे मधुसूदन ,मैं इस रणभूमि में भीष्म और द्रोण के विरुद्ध बाणों से कैसे युद्ध करूँ ?हे अरिसूदन वे दोनों ही पूजनीय हैं। यहाँ अर्जुन ने भगवान के लिए अपने पूरे विवेक सहित मधुसूदन और अरिसूदन संबोधनों का प्रयोग किया है। मधुसूदन एक राक्षस था जिसको भगवान कृष्ण ने मारा था तथा अरिसूदन शत्रुओं का संहार करने वाले को कहा जाता है।
    अर्जुन कहना चाहते हैं ...और आगे देखें

    Posted just now by Virendra Kumar Sharma