गुरुवार, 2 जनवरी 2020

यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च । हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः



यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च ।

 हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः


मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश ,और रक्षित किया हुआ धर्म रक्षक की रक्षा करता है इसलिए धर्म का हनन कभी न करना ,इसलिए कि मरा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।

जो पुरुष धर्म का नाश करता है ,उसी का नाश धर्म कर देता है ,और जो धर्म की रक्षा करता है ,उसकी धर्म भी रक्षा करता है। इसलिए मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले इस भय से धर्म का हनन अर्थात  त्याग कभी न करना चाहिए।

यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च ।

 हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः

‘‘जिस सभा में अधर्म से धर्म, असत्य से सत्य, सब सभासदों के देखते हुए मारा जाता है, उस सभा में सब मृतक के समान हैं, जानों उनमें कोई भी नहीं जीता ।’’
महाभारत का  भीष्म पर्व -भरी सभा  में जिसमें नामचीन भीष्म पितामह ,धृतराष्ट्र ,आदिक------ पाँचों पांडव -----मौजूद थे धूर्त और ज़िद्दी मूढ़ -मति दुर्योधन और कर्ण के मातहत दुश्शासन द्रौपदी का चीरहरण करता है यह तो भला हो अपने कन्हैयाँ का वस्त्र अवतार बन के आ गए द्रौपदी की आर्त : पुकार सुनके -और दुश्शासन थक हार के गिर पड़ा 


यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च । हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः । 

महाभारत का वह प्रसंग जिसमें दौपदी का चीरहरण धृतराष्ट्र और भीष्मपितामह आदिक की मौजूदगी में दुःशासन करने की असफल कोशिश करता असफल इसलिए कृष्ण आर्त : द्रौपदी की पुकार सुन उनकी   हिफाज़त अदृश्य बने रहकर करते है। 
गीता में कृष्ण अर्जुन से मुखातिब होते हुए कहते हैं -अर्जुन तू क्षत्री है क्षत्री का धर्म राष्ट्र और कुल की हिफाज़त करना है तू चाहकर भी इसका त्याग नहीं कर सकेगा तेरा स्वभाव तेरी प्रकृति ही तुझे विवश कर देगी इसलिए तू बंधू बांधवों का मोह छोड़ और युद्ध कर। 
ज़ाहिर है धर्म व्यक्ति का अंतर्जात ,अंत :गुण , जन्मजात गुण है। स्वभाव है धारण किया जाता है। 

धारयति इति धर्म :
तेरी कमीज मेरी से उजली क्यों है ?कैसे है ?है ही नहीं ?मेरी कमीज की बात ही और है। 
कुछ इसी अंदाज़ में आज हम मेरा धर्म श्रेष्ठ सबसे ऊपर अव्वल शेष सभी धर्मों से श्रेष्ठ है।दोयम दर्ज़ा हैं शेष धर्म - जो अल्लाह के आगे सिज़दा नहीं करता वह  काफ़िर है। सबकी अपनी मनमानी व्याख्याएं हैं जिनका धर्म की किसी भी मूल किताब (कतेब )से कोई लेना देना नहीं है कहीं भी कुरआन में यह नहीं कहा गया है। वहां भी सभी धर्मों की जो आपसे सहमत नहीं है इज़्ज़त करने की बात कही गई है। 
गुरु ग्रन्थ साहब में भी यही कहा गया है -
एक ओंकार सतनाम ,करता -पुरख, निर्भय निर्वैर 
अकाल मूरत अजूनि सैभंग गुर परसाद 
अर्थात ईश्वर एक है उसमें और उसकी सृष्टि में कोई फर्क नहीं है। ऐसा नहीं है कि सृष्टि का निर्माण करके वह कहीं और बैठ गया है वह इसी में प्रवेश कर गया है। वह निर्भय और निर्वैर है अर्थात न उसे किसी का भय है न किसी से वह वैर भाव वैमनस्य ही रखता है बदला लेने की सोचता है। दूसरा जब कोई है ही नहीं फिर वह किस से भय खायेगा किससे बदला लेगा। उसकी छवि समय सापेक्ष नहीं हैं समय के साथ उसमें बदलाव नहीं आता है.वह हमेशा से है अ -यौनिक है गर्भ में किसी माँ के उलटा नहीं लटकता है मूर्त भी है अमूर्त भी। 
सनातन धर्म भी यही कहता है :
सगुण मीठो खांड़ सो ,निर्गुण कड़वो नीम ,
जाको गुरु जो परस दे ,ताहि प्रेम सो  जीम। 

 इस्लाम में भी यही बात है। अल्लाह एक है। 
मोहम्मद साहब के अब्बाजान  मूर्तियां बना के बेचते थे।देवी देवताओं की मूर्ति। 

बालक मोहम्मद उनका मज़ाक बनाते हुए कहता तुम्हारी ये मूर्तियां जब खुद की हिफाज़त नहीं करती ,कर सकतीं हैं तो औरों को कैसे बचाएंगी। इस्लाम में  हर दिन एक नए देव की पूजा होती थी। ३६५ से ज्यादा देवी देव-गण पूजे जाते थे साल भर । मोहम्मद ने बिगुल बजाया -अल्लाह एक है और कोई  
  दूसरा है ही नहीं। 
There is only one God and no second 
सभी धर्मों की  मूल सीख एक ही है भेदभाव का कारण हमारा खुद को श्रेष्ठ मानने का भाव है. खुद को श्रेष्ठ मानना। अपने मुंह मियाँ मिठ्ठू बनना है। 
'भगवा आतंक' ; 'इस्लामी आतंक'; वगैहरा - वगैहरा सब प्रलाप हैं हमारे बनाये हुए हैं धंधे हैं धंधे - बाज़ी है राजनीतिक धंधे -बाज़ों की।
शायद इसीलिए उमर-ख़ैयाम से अभि-प्रेरित हो हरिवंश राय बच्चन जी लिख गए -
वैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद मेल कराती मधु -शाला 
कम ही लोग इस तथ्य से वाकिफ हैं कि बच्चन जी शराब को हाथ भी नहीं लगाते थे। उन्हीं ने लिखा -
कायस्थ कुल में जन्म लिया ,मेरे पुरखों ने इतना ढाला ,
मेरे लोहू के अंदर है पचहत्तर प्रतिशत हाला। 
और यह भी उन्हीं ने लिखा था - 

जहां कहीं मिल बैठे हम तुम ,
वहीँ रही हो ,मधुशाला 
लाल सुरा की धार लपट सी ,कह न इसे देना ज्वाला ,
फेनिल मदिरा है मत इसको कह देना  उर का छाला, 
दर्द नशा है इस मदिरा का ,विगत स्मृतियाँ साकी हैं ,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आये मेरी मधुशाला 
भाई साहब !न कोई साकी (मधुबाला ,बार टेंडर )थी न कोई प्याला। यह तो बिछोड़ा था आत्मा का परमात्मा से ,माशूका का आशिक से। 
संदर्भ :खतरे में रहने दो ,ख़तरा न हटाओ -जब सारे धर्म ही खुद पर ख़तरा महसूस करने लगें ,तो समाधान भी इन खतरों से ही निकलेगा (हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक ,नै दिल्ली गुरूवार ०२ जनवरी २०२० ,स्तम्भ : नश्तर ,लेखा राजेंद्र धोड़पकर )पर एक प्रतिक्रिया 
प्रस्तोता :वीरेंद्र शर्मा ,F/0 कमांडर निशांत शर्मा ,२४५/२ ,विक्रम विहार ,शंकर विहार कॉम्प्लेक्स ,दिल्ली -छावनी -११० ०१०         https://www.youtube.com/watch?v=dxtgsq5oVy4

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