आज की राजनीतिक झरबेरियों की चुभन और राजनीति के धंधेबाज़ों द्वारा पैदा किये गए परिवेश पर ज़बर्ज़स्त टिपण्णी है यह धारधार रचना:संगीता जी गीत की
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सूरज से अपनी चमक उधार लिए बैठे हैं
ज़िन्दगी को वो अपनी ख़्वार किये बैठे हैं ।
हर बात पे सियासत होती है इस कदर
फैसला हर गुनाह का ,सब खुद ही किये बैठे हैं ।
बरगला रहे एक दूजे को ,खुद ही के झूठ से
सब अपना अपना एक मंच लिए बैठे हैं ।
फितरत है बोलना ,तोले बिना कुछ भी
बिन पलड़े की अपनी तराज़ू लिए बैठे हैं
हिमायत में किसी एक की इतना भी ना बोलो
अपनी ज़ुबाँ को बाकी भी ,धार दिए बैठे हैं ।
सिक्के के हमेशा ही होते हैं दो पहलू
हर सिक्का अब हम तो हवा में लिए बैठे हैं ।
------ चिठ्ठाकार संगीता जी गीत
संगीता जी इज़ाज़त से आपकी ,एक तुकबंदी मेरी भी :
खुद अपने मुख्तार बने बैठे हैं ,
तंत्र लोक को बकैती से अपनी,
शर्मसार किये बैठे हैं,
वोट मांगते असमिया धूप में ,
लोकतंत्र को ही तार तार किये बैठे हैं।
1 टिप्पणी:
वीरेंद्र जी ,
आपने इस रचना की नब्ज पकड़ ली है । ये मैंने बिल्कुल यही महसूस करते हुए लिखी थी । फेसबुक पर लोग जो राजनीति से प्रेरित हो आपस में ही बहस करते देखे थे, तब ही इसे लिखा गया था ।
आपकी लिखी तुक बंदी कहें या शेर इस रचना को पूरा कर रहे हैं ।आभार
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