मंगलवार, 9 जून 2015

मांगत मांगत मानि घटै ,प्रीति घटै नित के घर जाई

मांगत मांगत मानि घटै ,प्रीति घटै नित के घर जाई ,

औछे के संग में बुद्धि घटै ,क्रोध घटै  मन के समुझाई।

इस छंद में व्यवहार सम्बन्धी सीख दी गई है ,नीति भी समझाई  गई है। आत्मसाक्षात्कार रीयल आई से मिलने की प्रेरणा

भी दी गई है।

माँगन मरण समान है ,बिरला बंचै कोइ ,

कहे कबीर रघुनाथ सूं ,मतिर मंगावै मोहि।

To beg and to die are equal

From which rarely few can escape ;

Even from (bounteous )Raghunath

I mayn't have to beg ,Kabir says.

मरूँ पर मांगू नहीं ,अपने तन काज ,

परमारथ के कारने , मोहि  न आवै लाज।

               Of Philanthropy

For the sake of my own I may

Rather die than ask for alms

But for the well -being of others ,

Of my shame I have no qualms . 

3 टिप्‍पणियां:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आज के जमाने में सब गड्ड-मड्ड हो गया है :-(

Ashi ने कहा…

बहुत सुंदर।
............
लज़ीज़ खाना: जी ललचाए, रहा न जाए!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जीवन दर्शन लिए आज की पोस्ट ...