बुधवार, 31 जुलाई 2013

ज्ञानार्जन के लिए किसी औचारिक शिक्षा की ज़रुरत नहीं है।

30 July 2013 Murli

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English Murli

Essence: Sweet children, you are now sitting personally in front of the Father, Teacher and Satguru. The mercy of the Father is that He becomes your Teacher and teaches you and He becomes the Satguru and takes you back with Him.
Question: What have you promised the Father? What is your duty?
Answer: You have promised: Baba, whatever we hear from You, we will definitely tell that to others and make them equal to ourselves. Our duty is to teach everyone in the same way as the Father teaches us because the locks on our intellects have now opened. Just as we are claiming our inheritance, in the same way, we have to be merciful and enable others to claim their inheritance.
Song: Take blessings from the Mother and Father.
Essence for dharna:
1. Follow the Mother and Father in this study. Stay in the happiness that God has come from the highest-on-high land to teach us.
2. We now have to return to our sweet home, so practise being bodiless. Forget everything including your body.
Blessing: May you be ignorant of the knowledge of desires and, instead of chasing after the mirage of desires, accumulate a true income.
Some children think that if they were to win the lottery, they would give everything to the yagya. However, such money cannot be used for the yagya. Sometimes, children have this desire for themselves and say that if they win the lottery, they will do service with it. However, to be a millionaire now means to lose millions for all time. Chasing after desires is like a mirage; therefore accumulate a true income. Become ignorant of even the knowledge of limited desires.
Slogan: Move along considering obstacles to be a game instead of obstacles and you will overcome those obstacles while singing and laughing as in a game.

Hindi Murli

मुरली सार:- ”मीठे बच्चे-अभी तुम बाप, टीचर, सतगुरू-तीनों के सम्मुख बैठे हो, बाप की यही कृपा है जो टीचर बन तुम्हें पढ़ा रहे हैं, सतगुरू बन साथ में ले जायेंगे”
प्रश्न:- तुम बच्चों का बाप से कौन-सा वायदा है? तुम्हारा कर्तव्य क्या है?
उत्तर:- बाप से वायदा है-बाबा, हम आपसे जो कुछ सुनते हैं वह दूसरों को भी अवश्य सुनायेंगे। आप समान बनायेंगे। हमारा कर्तव्य है-बाप समान सबको पढ़ाना क्योंकि अभी बुद्धि का ताला खुला है। जैसे हम वर्सा ले रहे हैं ऐसे रहमदिल बन दूसरों को भी वर्सा दिलाना है।
गीत:- ले लो दुआयें माँ-बाप की……..
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) पढ़ाई में मात-पिता को फालो करना है। खुशी में रहना है कि ऊंचे ते ऊंचे धाम से भगवान् हमें पढ़ाने आते हैं।
2) अब हमें वापस स्वीटहोम जाना है, इसलिए अशरीरी बनने का अभ्यास करना है। देह सहित सब कुछ भूल जाना है।
वरदान:- इच्छाओं रूपी मृगतृष्णा के पीछे भागने के बजाए सच्ची कमाई जमा करने वाले इच्छा मात्रम् अविद्या भव
कई बच्चे सोचते हैं कि अगर हमारे नाम से लाटरी निकल आये तो हम यज्ञ में लगा दें। लेकिन ऐसा पैसा यज्ञ में नहीं लगता। कई बार इच्छा स्वयं की होती है और कहते हैं कि लाटरी आयेगी तो सेवा करेंगे! लेकिन अब के करोड़पति बनना अर्थात् सदा के करोड़ गंवाना। इच्छाओं के पीछे भागना तो ऐसे है जैसे मृगतृष्णा इसलिए सच्ची कमाई जमा करो, हद की इच्छाओं से इच्छा मात्रम् अविद्या बनो।
स्लोगन:- विघ्न को विघ्न के बजाए खेल समझकर चलो तो खेल में हंसते गाते पास हो जायेंगे।

योगी आनंदजी ,अठ्ठाईस जुलाई की शाम हमारे कैंटन 

(मिशिगन )

स्थित आवास पर पधारे। उनके मुख कमल से निकले 

कुछ बोल हमारी धरोहर बने हमारे आसपास अनुगुंजित 

हैं आप भी लाभान्वित होवें :

ज्ञानार्जन के लिए किसी औचारिक शिक्षा की ज़रुरत नहीं है। 

साधना 

का अपना महत्व है जीवन में। 

साधना रत होने पर प्रकृति में जो भी ज्ञान प्रवाहित हो रहा है रेडिओ तरंगों 

पर सवार हो वह हम तक अनायास पहुंचेगा। मंतोच्चार की मंगल ध्वनी से 

वायुमंडल को पवित्र बनाते हुए गुरु आनंदजी ने  अपना प्रवचन आरम्भ 

किया।  आपने बतलाया विश्व के तमाम ज्ञात अज्ञात धर्मों का भगवत 

गीता  सार तत्व है ।जीवन और जगत के  अठ्ठाईस मूल प्रश्नों का उत्तर है 

"गीता 

".स्वयम भगवान् के मुख से उच्चरित है यह ग्रन्थ। जीवन के लिए 

पारसमणि है गीता ज्ञान। भारत जब इस ज्ञान  से संपन्न था सोने की 

चिड़िया था। 

अमरीका से ऊपर था। आज प्राय :इस ज्ञान का लोप होने पर भारत कहाँ है 

यह बतलाने की ज़रुरत नहीं है आप सब जानते हैं।अपनी पीठ खुद ही क्यों 

उघाड़ के दिखलाई जाए।

भगवान का  मूल स्वरूप निर्गुण निराकार का ही है उसी स्वरूप का दुनिया 

भर में गायन है सनातन धर्म वंश हो या इस्लाम ,ईसाइयत हो या सीख्खी। 

आप भगवान को तरह तरह की वस्तुएं अर्पित करते  हैं। भगवान सिर्फ 

हमारा  "मन " चाहता है ,कोई वस्तु द्रव्य या पदार्थ नहीं। 

जीवन  का सार और मकसद बस इतना ही है यह शरीर माँ बाप की सेवा में 

अर्पण हो और चित्त भगवान में। 

मन को हद के भौतिक सुख  के लिए ही इस संसार में मत लगाओ। इनकी 

प्राप्ति के बाद इनसे उपराम हो जाओ। भूल जाओ इन्हें। 

भगवान कहते हैं इस विश्व के सारे सौन्दर्य और एश्वर्य में भी मैं ही हूँ।

आनंद लेना है तो बे -हद का लो। मीरा ,महावीर या बुद्ध कोई मूर्ख  नहीं थे 

सारा धन वैभव और एश्वर्य छोडके निकल आये थे। 

सिकंदर जो विश्व विजय का सपना लेके निकला था उसकी भी आँखें एक 

सन्यासी ने ही खोली  थीं। सिकंदर ने अपने अहंकार में आकर कहा था 

सन्यासी तुम्हारे पास क्या है :बस एक ये कमंडल ,एक लोटा जल और 

गेरुआ 

वस्त्र।  सन्यासी ने साधू भाव से कहा :सिकंदर जिसने यह संसार बनाया 

वह ईश्वर मेरा है। तुम्हारे साम्राज्य की कीमत यह एक लोटा भर जल है 

जिसके अभाव में तुम्हारे प्राण पखेरू अभी अभी उड़ जाते। जब तक 

भगवान साथ न 

हो किसी चीज़ की कोई कीमत नहीं है कोई वकत नहीं है। विकार ग्रस्त होने 

पर ही संसार असार हो जाता है। अहंकार सबसे बड़ा विकार है  जिसके मद

 में तुम मदमाये हो।

इस संसार में जो ज़रूरीयात की चीज़ें हैं तुम्हारी आवश्यकताएं हैं नीड्स हैं 

उनकी प्राप्ति ज़रूरी है बस।  चस्का लगाना है किसी चीज़ का तो सबसे 

बड़ी वह चीज़ ईश्वर ही है कोई वस्तु , व्यक्ति या साधन नहीं। भगवान के 

लिए खर्च किया गया धन ही अखूट रहता है लूट का धन जल्दी ही  चुक भी 

जाता है। बाकी 

सब तो यहीं रह जाना है। 

बहर-सूरत इच्छाओं एषनाओं  का कोई अंत नहीं : 

 संतों की वाणी से उद्धरण  देते  हुए आपने कहा -

मेरो मन अनत कहाँ  सुख पावे ,जैसे उड़ी  जहाज को पंछी ,

उड़ी  जहाज पे आवे। 

एक बेहतरीन शैर के माध्यम से आपने वस्तु और व्यक्ति के पीछे दौड़ने 

वालों को यह सन्देश दिया -

न जाने किसकी हमें उम्र भर तलाश रही ,

जिसे भी करीब से देखा वह दूसरा निकला। 

उपासना शब्द को आपने नै परवाज़ दी। ईश्वर के पास बैठना ही उपासना है 

बोले तो (उप +आसन ). उड़ने की तरकीब बतलाई आपने हम सबको यह 

कहकर जहां पवित्रता होती है परमात्मा भी वहीँ होता है। पवित्र बनो और 

उड़ो !ऊंचे ते ऊंचा। 

ॐ शान्ति 

भ्रम से ब्रह्म की ओर् - A journey from Disilluion towards the 

Divine - under the spiritual guidance of Guru Yogi Anand 

Ji ! — with Amit Saini and Virendra Sharma.



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7 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

माता पिता से कितना कुछ सीखना होता है, वे ही प्रथम गुरु हैं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सच ही ईश्वर द्रव्य पदार्थ नहीं केवल मन चाहता है .... सुंदर प्रस्तुतीकरण

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…


ईश्वर को कोई भौतिक वस्तु ,रूपये पैसे नहीं चाहिए ,उन्हें केवल श्रद्धा-भक्ति चाहिए
latest post,नेताजी कहीन है।
latest postअनुभूति : वर्षा ऋतु

Anita ने कहा…

हर मुरली ज्ञान का सागर है..

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

मन से ही संभव है.

रामराम.

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

इच्छाओं के पीछे भागना तो ऐसे है जैसे मृगतृष्णा इसलिए सच्ची कमाई जमा करो, हद की इच्छाओं से इच्छा मात्रम् अविद्या बनो।...pate ki bat icchaon ke pichhe bhagne se kabhi kisi ka bhala nahi hua hai ....

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

हर तरह से सारवान विचार..... कितना कुछ है जानने समझने और सीखने को ....