बुधवार, 31 जुलाई 2013

श्री वेंकटेश्वर मंदिर नोवाई (मिशिगन )में योगी आनंदजी जुलाई ३० ,२० १३

श्री वेंकटेश्वर मंदिर नोवाई (मिशिगन )में योगी 

आनंदजी 

जुलाई ३० ,२० १३ 


परम पिता परमेशवर के स्मरण एवं मंत्रोचार के साथ यहाँ भी गुरूजी ने अपना वक्तव्य आरम्भ किया। परमपिता परमात्मा की 

कृपा से ही जीवन में सत्संग की प्राप्ति होती है। भगवान ने "गीता " के लघु कलेवर में सारा ज्ञान भर दिया है। अनुदेश दिए हैं 

मनुष्य को  इस जीवन में ईश्वर प्राप्ति के। मनुष्येतर योनियों में भी एक दो जीवों को ईश्वर प्राप्ति हुई है। कागभुशुण्डी इसके 

प्रमाण हैं। मनुष्य जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने की युक्ति है गीता। हम में से कुछ की चेतना देह भोग  के स्तर पर आकर 


ठहर गई है तो कुछ की मन के स्तर पर आ अटक गई है। बेशक कुछेक आत्मा के स्तर पर भी पहुँच जाते हैं। समझ जाते हैं इस 

देह से न्यारी और प्यारी मैं एक आत्मा हूँ। लेकिन ईश्वर प्राप्ति के स्तर पर तो कोई बिरला ही पहुँच पाता है। जीवन को ईश्वर 

मय बनाने के कुल नौ साधन गीता में बतलाये गए हैं। मनुष्य की फिलवक्त सोई हुई चेतना को जगाना ही गीता का प्रयोजन है। 


परमात्मा द्वारा बोले गए किसी एक सिद्धांत को भी यदि आपने जीवन में उतार लिया तो हमारा जीवन सार्थक और धन्य हो जाएगा। 

गीता हमें कुरुक्षेत्र के मैदान में ला खडा करती है जहां युद्ध की दुन्दुभि बज रही है ,अर्जुन का -पुरुष की तरह विषाद ग्रस्त हो रहा है। भगवत गीता हम 

सब को भी इस माया -मोह और विकारों से मुक्त करने का साधन हैं। अध्यात्म जीवन  का  पहला  फ्री -वे है ,हाई -वे और राज मार्ग है :अभयं 

(अभय ). हमारा जो मन है वह निर्भय हो जाए। निर्भय और अभय का बारीक अंतर समझाते हुए श्री आनंदजी  ने बतलाया :निर्भय का मतलब है डर 

तो है लेकिन हम उससे डरते नहीं हैं। अभय का मतलब है जहां भय है ही नहीं। जहां किसी भी प्रकार का भय है ही नहीं भय का नहींपन ,भय की 

अनुपस्थिति ही अभय है। जब हम भगवान के अंश(वंश ) हैं फिर डर कैसा। भगवान ने  हमें अपने निज स्वरूप में ही तो बनाया था। हम सभी अमृत 

की संतान हैं। भय रहेगा तो फिर ईश्वर प्राप्ति भी नहीं होगी। भय और चिंता से ऊपर हो जाना है गीता सार को आत्मसात करना। 

सांसारिक चीज़ों को भले महत्व दो। लेकिन इन्हें अपना मत समझो। ये अनुराग ये राग ये भाव इन वस्तुओं के प्रति न रहे ये सब कुछ मेरा है यह 

पकड़ के वस्तुओं को व्यक्तियों को बैठना ही भय का कारण बनता है स्रोत है भय का। जो कुछ भी जीवन में है हमारा नहीं है ,सब कुछ भगवान  का 

है। जो कुछ भी हमारे पास अब है यह  पहले नहीं था इसलिए बाद में भी नहीं रहेगा। लाखों कोशायें पल प्रति पल मर रहीं हैं यह शरीर भी क्षण प्रति 

क्षण बदल रहा है। जैसा अब है पहले नहीं था इसलिए बाद में भी नहीं रहेगा। फिर गुमान कैसा? नाज़ कैसा इस तन पे? इस तन के सौन्दर्य पर?रूप 

पर अभिमान कैसा ?


वस्तु और साधनों का भोग जीवन निर्वाह के लिए है। लेकिन हमारी वृत्तियों में उनका दखल हमारा स्वभाव बिगाड़ देता है। हमें बीमार बना जाता है। 


अगर आपके पास पैसा ज्यादा है तो आयकर का भय बना रहेगा। याद रहे ईशवर तत्व का जो सानिद्य है वही अकाल है शाश्वत  है। अभय है। वस्तु 

और पदार्थ का आश्रय इस संसार का आश्रय किसी व्यक्ति का आश्रय भय पैदा करेगा। 

रावण के पराक्रम की  चर्चा है "मानस " में उसकी भृकुटी टेढ़ी हो जाने पर दिग दिगंत में आंतक व्याप जाता था। लेकिन वही रावण जानकी का हरण 

करते वक्त भय से कुत्ते की तरह कांपता है। भय भीत है क्योंकि वह दुराचार के मार्ग पे जा रहा है। विवेक बुद्धि हीन होकर। जबकी ईश्वर की शक्ति 

हमें ऊर्ध्वगामी बनाती है ऊपर की और ऊंचे ते भी ऊंचा बना देती है। निर्भय बनाती है। भगवान  के संसर्ग  में ही व्यक्ति अभय होगा। 

अंत :करण  की 


पवित्रता भी जीवन में ज़रूरी है। ईश्वर प्राप्ति के लिए बुद्धि का पात्र निर्मल होना बहुत ज़रूरी है। जो व्यक्ति अपनी शुद्धता से विवेक से गिर जाता है 

उसे शाश्त्र भी पवित्र नहीं कर सकता। याद रहे हमारी आत्मा ही वह नदी है जिसमें संयम और पुण्य के घाट बने हुए हैं। इन घाटों का नाद सुनों।

शरीर की सुनोगे तो कमज़ोर बनोगे। सत्संग द्वारा अर्जित  पूंजी  ही अंत में साथ जाती है। शेष बचती है बाकी सब चुक जाती है। साथ नहीं जाती 

है। 

जिस नदी में सत्य का जल उछलता है वही पावन बना सकती है। शेष नदियों का जल काया को भले शुद्ध करे मन का स्पर्श नहीं करता है। 

असत्य का संग भय पैदा करता है। 

"ये आग का दरिया है और डूब के  जाना है "

सांसारिक जल से काया और वस्त्रों की ही शुद्धि हो सकती है शाश्वत सिर्फ सत्य की नदी ही है। गीता ज्ञान के जल से ही असल शुद्धि हो सकती है। 

ज्ञान का आश्रय ही अंतिम और स्थाई आश्रय है। ज्ञान वह अग्नि है जो अज्ञानता की अग्नि को भस्म कर देती है। हमारा देश तो ज्ञान का उपासक 

रहा है। सूचना प्रोद्योगिकी का अतिक्रमण कर ज्ञान प्रोद्योगिकी की तरफ एक बार फिर से गीता ज्ञान ही ले जाएगा। नोलिज ही पावर थी तब भी। 

आपने कुमारिल भट्ट  के शिष्य और और वय :संधि स्थल पर खड़े शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच शाश्तार्थ का किस्सा बतलाया। भट्ट  के तो  तोते 

भी परम गुनी थे। जिसके 

तोते भी ज्ञानी द्वारपाल थे वह मंडन मिश्र अपने अभिमान में बोले ये बालक (शंकराचार्य )मुझसे शाश्त्राथ करेगा इसकी तो अभी गुरुकुल जाकर 

ज्ञानार्जन की उम्र है। युवा शंकराचार्य बोले आप इसकी परवाह न करें -प्रात :कालीन सूर्य त्रिगुण (तीन लोकों )के अँधेरे को हर लेता है। आखिर में 

मंडन मिश्र ही पराजित हुए। ज्ञान की हमारे यहाँ ऐसी समृद्ध संस्कृति थी। 

सिर्फ आज का किस्सा नहीं है यह। ज्ञान की उपासना के बिना जीवन एक लुटे हुए व्यक्ति की तरह ही होगा। अफ़सोस है आज बच्चे श्री राम की माँ 

का नाम भी नहीं जानते हैं। 

दान की महिमा  भी करती है गीता। बिना दान के आसक्ति नहीं मिटने वाली है। देने वाला ही भगवान का  प्रिय बनता है।  

अपनी आय का दस फीसद तुम भी दान दो। 

ॐ शान्ति 



Yogi Anand Ji

तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणी च ।
नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं, या ज्ञान कलया कृता ॥

भगवान कहते हैं कि.... तत्व-ज्ञान के लेशमात्र का उदय होने से जीवन में जो बहुमूल्य सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप दान अथवा अन्तःकरण- शुद्धि के और किसी भी साधन से पूर्णतया नहीं हो सकती ।



"मामनुष्मर युद्ध्य च"

सांसारिक बाह्य भौतिक विषयों में यह सामर्थ्य नहीं है कि... वह किसी भी मनुष्य के मन को क्षुब्ध या लुब्ध बना सके, व्यक्ति के मन में विक्षेप या हलचल का होना तो उन विषयों का हमारे मन के आसक्ति पूर्ण सम्बन्धों पर ही निर्भर करता है । मन के द्वारा विषयों का राग पूर्वक चिन्तन किये जाने पर ही, ये विकार मनुष्य के उपर शासन कर पाने में समर्थ हो पाते हैं ।
अतएव मन में चिन्तन तो केवल मायापति का ही होना चाहिये.....माया का नहीं । "मामनुष्मर युद्ध्य च"

भगवत-गीता पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा गाया गया, जीवन की पूर्णता का वह महाकाव्य है जो संसार के मोह-भ्रमजाल एवं विपरीत ज्ञान में फँसे लोगों को निकाल कर, मानव जीवन की वास्तविकता का बोध कराता है ।

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररुपिणं, यमाश्रितो हि वक्रोपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥

नित्य, ज्ञानमय भगवान शंकररुपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ...जिनके आश्रित होने मात्र से ही वक्र (टेढ़ा) चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है ।

विषय भोगों के लिये प्रतिदिन नित्य नये नये साधनों की खोज करने वाले लोग, दुःखों से भरे हुए मृत्यु के संसार सागर में ही भटकते रहते हैं ।

जब भी मनुष्य अपने जीवन में केवल सांसारिक विषय सुख भोगों का चिन्तन करके, उन्हें ही प्राप्त करने का प्रयास करता है, तब उसे संसार के विषय भोग तो प्रायः प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु वे सभी के सभी स्वरुप से अनित्य, क्षणभंगुर तथा विनाशी होने से, उनके परिणाम में केवल दुःख ही हाथ लगता है ।

इन विषय सुख भोगों के प्रेम के पीछे चाहे कोई भी उद्देश्य क्यों न हो, एक बार चित्त का विषय लोलुप हो जाने पर, मनुष्य दुःखों का खारा समुद्र पीने के लिये विवस हो जाता है ।

जिस तरह निर्मल जल से शरीर एवं वस्त्र शुद्ध होता है, उसी प्रकार धर्माचरण एवं ज्ञान से बुद्धि तथा मन पवित्र होता है... हरिॐ.....

आत्मयोग साधना के अन्तर्गत, जीवन में अपने सहज स्वरुप, पूर्णता की प्राप्ति हेतु, त्यागने योग्य एकादश अमानवीय वृत्तियाँ......

१) विषयों में आसक्ति का त्याग...

२) अहंकार का त्याग...

३) स्वार्थपूर्ण भावनाओं का त्याग....

४) राग-द्वेष का सर्वथा त्याग...

५) आलस्य, प्रमाद, व अज्ञानता का त्याग...

६) विलासिता एवं भोगमय वृत्तियों का त्याग....

७) असत्य आचरण का त्याग...

८) अनावश्यक सांसारिक प्रपंच का त्याग...

९) दुष्कर्मों का त्याग...

१०) किसी के प्रति भी घृणा का त्याग...

११) हर प्रकार की आन्तर-बाह्य मलीनता एवं अशुद्धि का त्याग



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4 टिप्‍पणियां:

पुरुषोत्तम पाण्डेय ने कहा…

आदर्श आप्त वचन हैं,जिनके सहारे हमारा सनातन धर्म टिका हुआ है.प्रकाशन के लिए आपको साधुवाद.

रविकर ने कहा…

शुभकामनायें आदरणीय-

Anita ने कहा…

जिस तरह निर्मल जल से शरीर एवं वस्त्र शुद्ध होता है, उसी प्रकार धर्माचरण एवं ज्ञान से बुद्धि तथा मन पवित्र होता है... हरिॐ.....
सुंदर ज्ञान श्रंखला !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत सुंदर और मनभावन, शुभकामनाएं.

रामराम.