शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

याद में रह सकेंगे फिर .

एकाग्रता मन की ही नहीं चित्त की भी हो .चित्त एक सरोवर है .शांत होता है तो तलहटी में पड़ी चीज़ें भी साफ़ साफ़ दिखलाई देती हैं .उद्वेलित होता है जलप्लावित होता है तो कुछ दिखलाई नहीं देता है .उर्मियाँ बेतहाशा उठती गिरती रहतीं हैं .तो आपलावन चित्त में होता है .मन तो शांत हो जाता है .चित्त एकाग्र आसानी से नहीं होता है .बुद्धि में तो व्यवस्था रहती है लेकिन चित्त में प्रवाह ही प्रवाह रहता है .मंथर गति हो विचारों की तो चित्त एकाग्र हो .

मन में चित्त और बुद्धि दोनों के संस्कार रहते हैं .पांच हमारी कर्मेन्द्रियाँ हैं और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ फिर मन ,बुद्धि   संस्कार और चित्त .

आत्मा इन सबकी बोस है .मालिक है .जो कुछ हम अपनी आँखों से देखते हैं कानों से सुनते हैं ये सारी सामिग्री मन में जाके जुड़ जाती है .आँख तो कैमरा है .बुद्धि फ़िल्टर है .जो कुछ आँख देखती है वह फ़िल्टर होने के बाद हमारी स्मृति का हिस्सा बन जाता है .

माया है सागर समान वह श्रुति भी है रूप भी है .अंत :करण पहले होता है मन की निर्मिती बाद में होती है .अंत :करण ही हमारा चित्त है .मन बाहर से आता है .सुनना और देखना बाहर से आकर मन का हिस्सा बन जाता है .मन की एकाग्रता का मतलब है मन निर्विचार हो जाए बाहर से कुछ अन्दर न आ पाए .अन्दर का सुख (विचार )अंदर रहे .

चित्त भी निर-चंचल हो जाए ,स्थिर हो जाए सरोवर शांत हो जाए .एक उर्मि भी न दिखे उठे .

ऐसा हो तो मैं  आत्मा अपने निज धर्म में स्थापित हो वूं .व्यर्थ चिंतन (परचिन्तन )का बोझ आत्मा पे न चढ़े .आत्मा हलकी रहे तभी तो याद की ड्रिल करेगी .याद की रूहानी ड्रिल ."मैं आत्मा उस परम ज्योति स्वरूप परमात्मा  की संतान हूँ .

आदमी भी जब शरीर से भारी होता है तो ड्रिल मास्टर को कहाँ फोलो कर पाता है . वह तो बस अच्छी खुराक खा सकता है .हजम भी तो होना चाहिए .

आत्मा को भी नीरोगी बनाने के लिए ज्ञान की खुराक चाहिए .रूहानी ड्रिल चाहिए .लोग कहते हैं हम याद में (परम पिता निराकार ज्योतिर्लिन्गम शिव की) स्वयं को ज्योति स्वरूप मान कर बैठते तो हैं .टिक नहीं पाते हैं याद में .भाग खड़े होते हैं .व्यर्थ संकल्पों के ट्रेफिक में फंस जाते हैं हम .

क्यों होता है ऐसा ?

योग तो उस परमात्मा से तब लगे जिसकी पहचान ज्योति है जब हम स्वयं भी अपने  ज्योति स्वरूप(आत्म स्वरूप ) में टिक सकें समान चीज़ों में ही तो जोड़ लग सकता है .गोंद  से आप मिट्टी की टूटी हुई मूर्ती को नहीं जोड़ सकते . एक सेकिंड में जहां चाहे पहुँच सकें .मन बुद्धि को स्थिर कर चित्त को एकाग्र कर कहीं भी उड़ सकें .सबसे तेज़ रफ़्तार रोकिट  है हमारी आत्मा .संकल्प एक स्विच है .फिर याद में टिक क्यों नहीं पाते हो ?

आत्मा भारी होगी तो बाप (परमात्मा )से सम्बन्ध नहीं जुड़ सकेगा .स्थूल संबंधों पर ही बुद्धि बारहा जायेगी .उसने ऐसा क्यों किया ?,क्यों? क्या? कैसे?अब आगे के लिए क्या होगा ?बस क्यों क्यों करते करते एक "क्यू " लग जाती है व्यर्थ संकल्पों की .

पहले अभिमान आता है .उसने मेरी बे -इज्ज़ती कर दी .मेरी बात नहीं मानी .

अरे भाई उसने जो कर दिया सो कर दिया .जो कह दिया सो कह दिया .वह तो एक मर्तबा कहके भूल गया हम अपनी बुद्धि में हजार बार लाके उसका चिंतन करके अपनी स्थिति खराब कर लेते हैं .हम उस बात  को पकड़ लेते हैं जिसे स्वयं बोलने वाला भूल चुका है .हज़ारों बार उस बात को सोच के स्वयं को दुखी कर लेते हैं .सम्बन्ध में भी वह भारीपन आ जाता है .बीती हुई बातों का चिंतन आत्मा के लिए बोझ है .उसे फुल स्टॉप लगाना है .बिंदु स्वरूप में आना है -मैं आत्मा हूँ ज्योति बिंदु स्वरूप .उस परम आत्मा की संतान हूँ जिसकी पहचान भी यही ज्योति है इसीलिए वह ज्योतिर्लिन्गम है .

भविष्य की चिंता करना भी वेस्ट है .भले हम प्लान बनाए .होगा वही जो होना है .

तो हम हलके रहे तो ड्रिल करें .हाँ रूहानी ड्रिल .स्व :उन्नति करें .स्व :चिंतन करें .सुदर्शन चक्र फिराएं -मैं आत्मा शांत स्वरूप हूँ .शान्ति के सागर परमात्मा शिव की संतान हूँ .मैं आत्मा आनंद स्वरूप हूँ .आनंद के सागर परमात्मा की संतान हूँ .प्रेम स्वरूप हूँ प्रेम के सागर की संतान हूँ .

पर चिंतन से आत्मा पर बोझ बनता है .स्व :चिंतन उन्नति की सीढ़ी है .स्व :चिंतन के लिए समय निकालो .हम दूसरों के अवगुण देखते हैं पर -चिंतन करते हैं .जहां भी ईर्ष्या ,द्वेष बदला लेने की भावना आ जाती है वहां फिर प्यारे कैसे बनेंगे ?अपनी कमियों का सोचो .जो मीठा होता है वह प्यारा लगता है ,क्योंकि मीठे बोल बोलके वह हमें सुख देता है .

जो निरहंकारी है वह प्यारा लगता है .मीठे बोल बोलकर वह हमें सुख देता है .श्री मत कहती है मीठे बोल बोलकर सबके प्यारे बनो .

जहां न्यारा (साक्षी भाव )बनना है वहां न्यारा बनो जहां प्यारा बनना है वहां (परिवार में )प्यारे बनो .साक्षी दृष्टा बनो .सामने वाले ने अपना पार्ट बजा दिया आप उससे जितने न्यारे रहेंगे उतने ही औरों के (प्रभु के )प्यारे रहेंगें .डीटेच होकर दूसरे का पार्ट देखना है .प्यारे और न्यारे पन  का बेलेंस रखना है .

याद में रह सकेंगे फिर .

ॐ शान्ति ..

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9 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच है, अनुकरणीय बातें..

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

थोड़ा मुश्किल है... मगर सही है...

~सादर!!!

Anupama Tripathi ने कहा…

Balance bahut zaroori hai ......nishchaya hi .....sunder sarthak alekh.......

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

मन से मित्रता हो जाये तो बात बने पर मन एकतरफ़ा अपनी ही चवन्नी चला कर उल्टे सीधे कामों में फ़ंसाएं रखता है, बहुत ही सुंदर आलेख.

रामराम.

Arvind Mishra ने कहा…

भावभरा प्रवचन

Anita ने कहा…

बहुत सरल शब्दों में सुंदर ज्ञान की बातें...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

यदि इतना ही समझ लें तो ज़िंदगी आसान हो जाए ... बहुत सुंदर लेख

अरुन अनन्त ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (14 -07-2013) के चर्चा मंच -1306 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

राहुल ने कहा…

कभी-कभी पढ़कर मैं सोचता हूँ कि आपकी पोस्ट कितना कुछ सीखा देती है....आप अनवरत लिखते रहें....कई पोस्ट पर मैं टिप्पणी नहीं दे पाया... उसके लिए माफ़ी...
काफी बिजी था..