शनिवार, 27 जुलाई 2013

कर्मों का लेखा

कर्मों का लेखा 
कर्मों का विधान (क़ानून )अटल और परम है .कहीं भी और कभी भी इसका उल्लंघन  नहीं हो सकता .सार्वत्रिक(सब जगह मान्य ),युनिवर्सल है यह सिद्धांत .आत्मा निर्लेप नहीं है कर्मों की लेप आत्मा पर ही चढ़ती है .आत्मा शरीर में प्रवेश लेने के बाद सुख दुःख का अनुभव ज़रूर करेगी .

इस सृष्टि मंच पर (कर्म क्षेत्र ,स्टेज आफ एक्शन )पर हर आत्मा का बना 

बनाया एक दम से एक्यूरेट पार्ट 

है 

जो उसे बजाना ही है .अपने किए का फल भी भोगना ही है .पुरानी कहावत है बिना मरे तो स्वर्ग भी नहीं मिलता .बिना कर्म किए कुछ नहीं मिलता .आत्मा इस शरीर में प्रवास के दौरान जो कुछ भी करती है उसका फल ज़रूर भोगती है  अच्छा  या बुरा .राजा तो आत्मा ही है कर्मेन्द्रियाँ और 

ज्ञानेन्द्रियाँ तो उसकी प्रजा हैं .हाथ शरीर को होते हैं लेकिन कर्म आत्मा करती है आँखें शरीर को होतीं हैं लेकिन देखती आत्मा ही है .कान शरीर को होते हैं लेकिन सुनती आत्मा ही है कभी किसी शव से बात करके देखो .ज़वाब मिलेगा ?

कर्म करना इलेक्ट्रोन  की तरह आदमी की नियति है .कुदरत का विधान है कर्म करना करते जाना .जब तक सांस तब तक कर्म यहाँ तक के सांस लेना भी एक कर्म है .आपकी सांस अच्छी या बुरी वायुमंडल को असर ग्रस्त किये बिना नहीं रहती .आपका होना ही कर्म है .

ACTION AND DESTINY

केवल परम आत्मा ही अकर्ता है .वह कर्म और उसके  तद्जन्य प्रभाव से बे -असर रहता है . वह जन्म मरण के चक्कर से परे है .उसका अपना कोई शरीर भी नहीं है न स्थूल न सूक्ष्म .

कर्मों की गुह्य  गति को बाप संगम पे ब्रह्मा तन (साधारण मनुष्य तन को परम आत्मा निराकार शिव द्वारा दिया गया नाम ) में प्रवेश कर समझाते    हैं .बाप वह युक्ति समझाते हैं जब हम बच्चे इस अल्पकालिक परिवर्तन की वेला संगम युग पर  अपना मन माफिक भाग्य खुद लिख सकते हैं .इस अमृत वेला किये गए हमारे श्रेष्ठ कर्म हमें समय चक्र की पूरी अवधि(एक पूरे कल्प के लिए ) में सौभाग्य दिलवाते हैं .

कर्म ही हमारी कलम है .पुरुषार्थ रोशनाई (स्याही है )है .अपने निज आनन्द स्वरूप में रमा हमारा चित्त हमारे कर्मों को ऊर्ध्वाधर गति देता है  .ऊंचे ते ऊंचा बनाता है क्योंकि हम हर कर्म स्वाभिमान में रहते हुए ,आत्माभिमान से संसिक्त हो निरहंकारी बन करते हैं .देह अभिमान में रहते किया गया कर्म निकृष्ट कोटि का होगा .. 

"I"  with self respect is soul consciousness and "I " with self arrogance is body consciousness .

सच और झूठ गलत और सही में फर्क हमें साफ़ नजर आता है .संगम पर हमारी पावन दृष्टि (बाप द्वारा दिया ज्ञान का तीसरा नेत्र ),हमारे हर कर्म को परहितकारी ,आत्म प्रेम पूर्ण प्रेम (soul conscious love ,आत्मिक प्रेम ),बनाता है .इस प्रकार किया गया कर्म धर्म सम्मत स्वत : हो जाता है .कर्म और धर्म में समन्वयन और संतुलन रखना यही तो बाप की सीख (श्री मत )है .

लेकिन कभी आत्माभिमानी बन और कभी देहाभिमानी बन किया गया हमारा कर्म ही हमारे भाग्य की लकीर को तोड़ सकता है .इसलिए सावधान यह संगम युग है यहाँ पद्मापद्म प्राप्ति भी है ,गिरे तो चकनाचूर .

ACTION AND SANSKARS

हर कर्म आत्मा पे अपनी छाप छोड़ता है.इसी कार्मिक एकाउंट के अनुसार मनुष्य को अच्छा मनमाफिक या बोझिल और बुरा जन्म मिलता है . आत्मा अपना यह कर्मों का लेखा साथ ही लेके जाती है शरीर छोड़ते वक्त .यदि आज आपने कोई मदरसा (कालिज )बनवाया है ,अगले जन्म में आपको अच्छी शिक्षा मिलेगी .कुछ बच्चे जन्म से ही अतिरिक्त प्रतिभा के धनी होते हैं वह पूर्व जन्म में भी कुछ अतिरिक्त अ- साधारण करके आते हैं .

कुछ जन्म से बीमार तन लिए आते हैं .थेलासिमिया या फिर आटिज्म से ग्रस्त ही पैदा होतें  हैं .ज़ाहिर है यह पूर्व के जन्म के कर्मों का ही हिसाब किताब है जो चुक्तू होना है .

आपको अपने हर कर्म का हिसाब आगे पीछे देना ही पड़ता है .

ACTIO AND REBIRTH :

जब आत्मा शरीर छोडती है वह संक्रमण की स्थिति में होती है इस सूक्ष्म अवधि में जो शरीर छोड़ा है न उसका कोई बंधन या मोह शेष रहता है न आगे मिलने वाले तन का कोई बंधन रहता है .निर्बन्ध होती है यह अवस्था आत्मा की .लेकिन आत्मा में संस्कारों का अमिट लेखा होता है .

इसीलिए कहा गया -

करम गति टारै नाहीं टरै ,मुनि वशिष्ठ से पंडित ज्ञानी ,

शोध के(सोझ /सोच )के लगन  धरहि,

सीता हरण मरण दशरथ को ,

पल में विपत्ति(विपती,विपदा ) परै .

प्रकाश के वेग का अतिक्रमण करती है आत्मा की रफ़्तार .एक सेकिंड में एक शरीर को पुराने वस्त्र की तरह छोड़ आत्मा उड़ जाती है और अपनी भावी माँ के गर्भ में प्रवेश ले लेती है इसीलिए आत्मा को कहा ही पंछी गया है . 

यदि आत्मा भारत में शरीर छोडती है और उसका हिसाब किताब अमरीका में बकाया है पूर्व जन्मों का ,आत्मा वही पहुंचेगी आपसे आप .एक से दूसरेजन्म में आना ही आना है .हर जन्म में वस्त्र (शरीर )त्याग के बाद आत्मा का स्वभाव संस्कार बदलता है .दूसरी आत्माओं के साथ भी सम्बन्ध बदलते हैं .बेहद के बाप निराकारी शिव परमात्मा संगम पर आपको ये कहानी सूना रहें हैं कोई और नहीं .

THE FIELD OF ACTIONS 

इस भौतिक (लौकिक )संसार को कर्म क्षेत्र कहा  गया है .कर्म तो करना ही पड़े .इसी साकारी दुनिया में अच्छे बुरे का हिसाब किताब बनता है .जब आत्मा शरीर में प्रवेश ले लेती है कर्मेन्द्रियाँ ,ज्ञानेन्द्रियाँ ,मन ,बुद्धि ,अहंकार ,चित्त  इसी जड़ शरीर के मार्फ़त कर्म करती है अभिव्यक्त होती है .अभिनीत होती है इस सृष्टि मंच पर .

इस रंग भूमि  में हमारे कर्म ही बीज का काम  करते हैं जो इस कर्म क्षेत्र में बोये जाते हैं .हमारे विचार ,आत्मा की मनन शक्ति  इस खेत को जोतते हैं हल चलाते हैं .जैसी इस भूमि (मिट्टी)की गुणवत्ता (विचार सरणी )होती है जैसा बीज (कर्म )होता है वैसी ही फिर फसल मिलती है इसीलिए कहा गया -जो बोवोगे यहाँ वही तो काटोगे .

NEUTRAL ACTIONS 

हरेक आत्मा परमधाम से आकर जब इस शरीर में प्रवेश करती है वह अपने सम्पूर्ण निर्विकारी स्वरूप में ज्ञान गुणों से संपन्न होती है .आत्मा अपने मूल स्वभाव संस्कार की ईश्वरीय दाय लिए रहती हैइसीलिए उस समय के कर्म शान्ति और आनंद फल दाई ही होतें हैं .

संगम युग पर जो हम पुरुषार्थ (प्रयत्न )करते हैं पुण्य का खाता ज़माकरते हैं बाप की निरंतर  याद में रहते कर्म करते   हुए विकर्म विनाश करते हैं उन्हीं का फल होता है सतयुग के कर्म जो "अ -कर्म "कहाते हैं क्योंकि इनका आगे हिसाब किताब नहीं बनता है फल भोग नहीं मिलता है अलबत्ता सतयुग और त्रेता के तमाम जन्म भुगताने के बाद यह विरासत 

चुक जाती है .यही कर्म न्यूटर (न्यूटरल)एक्शन कहाते हैं .जो पूर्ण समस्वरता लिए रहते हैं प्रकृति और पुरुष के साथ सर्व आत्माओं के साथ सब कुनबों  के साथ  प्रेम भाव लिए रहते हैं .यह संसार एक ही कुनबा सा  तो होता है तब .

GOOD AND BAD ACTIONS :THE LAW OF CAUSE AND EFFECT

द्वापर युग (ताम्र युग )के बाद से ही आत्मा में खाद पड़ने लगती है .सोने में मिश्र धातु की खोट इतनी आ जाती है ,कर्म उससे असरग्रस्त हुए बिना नहीं रहते .उधर आत्मा संगम युग का ज़मा प्रालब्ध खर्च कर चुकी होती है लिहाजा अब  कर्म आपके नेक और बद इरादों से प्रभावित हो  अब बुरे और अच्छे दोनों तरह के होतें हैं .

देह अभिमान में आ जाती है आत्मा गुण और अवगुणों में मुकाबला शुरू हो जाता है .इसी कशमकश रस्सा कशी में  पाप और पुण्य भी आमने सामने हो जाते हैं .आत्मा कमज़ोर होने लगती है .आत्म बल क्षीण होने लगता है .आपकी अन्तश्चेतना (अंत :करण)आपको चेताती है गलत काम न कर बंदे लेकिन आत्मा चित्त की सुन ही नहीं पाती .अवहेलना कर देती है चित्त की .बाहर का निश्चय उसे घेरे रहता है .करूँ  न करूँ का द्वंद्व थमता नहीं है हालाकि आत्मा जानती है परमात्मा ने मुझे विवेक बुद्धि भले बुरे को साफ़ साफ़ अलग देखने की दी है लेकिन अंत :करण की आवाज़ विकारों के तले दब जाती है .विकारों की माया जीत जाती है यहीं से आत्मा कर्मबंध में आ जाती है .बंधक बन जाती है विकारों की .कभी देह का आकर्षण खींचता है कभी धन  का .कर्म कर लेते हैं आप बाद में कहते हैं मेरा यह इरादा बिलकुल नहीं था  मैं ऐसा बिलकुल ही नहीं करना चाहता था .देह अभिमान (देह भान का दंभ )और माया की गिरिफ्त में आके किये गए कर्मों का हिसाब किताब शुरू हो जाता है . कार्य कारण श्रृंखला यहीं से बनती है द्वापर से ,कलियुग में और भी वेगवती होकर .

इसे ही "कार्मिक ला "कर्तम सो भोगतम  "जैसी करनी पार उतरनी कहा जाता है। संस्कार  के रूप में अब अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कर्मों का खाता बन जाता है जो स्वभाव बनने लगता है कर्मों के दोहराव से .अगले जन्मों में इनका फल मिलता ही है। 

कर्मबंध का मतलब  है  किसी बाहरी चीज़ और वस्तु  का मोह माया आकर्षण ही आपसे ज़बरिया अन्दर की आवाज़ के खिलाफ वह कर्म करवा रहा है और आप हद के जल्दी ही चुक जाने वाले अल्पकालिक सुख की लालसा में बींधे गए वह कर्म  कर डालते हैं।विकारों के वशीभूत देह धर्म से किया गया कर्म ही माया है। वरना जगत मिथ्या नहीं है कर्मों के विकारग्रस्त होने पर भले हो जाए। 

आप इन कर्मों चंद व्यक्तियों की ,वस्तु और वैभव की ही गुलामी करने लगते हैं  कहाँ आप राजा थे अपनी कर्मेन्द्रियों ज्ञानेन्द्रियों की। अब देह ही सब कुछ है। लोभ मोह की चलती है। अतिआज्ञा कारी और परवश हो जाते हैं आप किसी वस्तु या व्यक्ति के।यहीं से एक नापसंदगी आपके अंदर  घर बनाने लगती है।  दूसरों की गलती  ही देखने लगते हैं आप।उसे समझने के चक्कर में उसे अपने अंदर ही ले लेते हैं। आपका उस व्यक्ति के प्रति नज़रिया ही दूषित हो जाता है जो आपके उस व्यक्ति के साथ कभी न कभी व्यवहार में प्रगट होता ही होता है या फिर आप औरों के सामने उसका जोर शोर से बखान करते हैं। रस लेते हैं। जिसे करते समय आपको रस आये संतोष मिले वह निंदा है देह अभिमान है जिसे करते आप अंदर से खुद भी दुखी होंवें जैसे अपने ही पुत्र या किसी और प्रिय पात्र के दुर्गुण बताते वक्त वह निंदा नहीं कहलायेगी। क्योंकि अन्दर खाने आप चाहते हैं वह ऐसा न करे अच्छा बने। निंदा में रस आता है। 

ॐ शान्ति 

(ज़ारी )  

  1. Video: Essence of Murli 27th July 2013 ~ Frequency

    www.frequency.com/.../essence-of-murli-27th-july-2013/.../-/5-1781994
    42 mins ago - Essence Of Murli From Godfather Shiva Through His Corporeal Medium Prajapita Brahma( With English Subtitles). Watch Essence Of Murli ...










9 टिप्‍पणियां:

Rahul... ने कहा…

आपने क्या खूब कर्मों का लेख-जोखा तैयार किया है ? अति सुन्दर...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

इच्छायें हैं जो बस जाती हैं, कर्म यदि निष्काम हों तो कर्म के बाद भी इच्छायें नहीं जगती हैं। यही इच्छायें अगले जन्मों का निर्धारण करती हैं।

Anupama Tripathi ने कहा…

बुद्धि की सार्थकता बताता ...बहुत प्रभावी आलेख .....कर्मण्ये ही वाधिकारस्ते....
आभार ।

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

karm ki gati to kabhi talti nahi jaisa boya waisa katna hin padta hai .....sundar lekh ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कर्म के अनुसार ही जीवन में दुख सुख मिलते हैं .... फिर भी मनुष्य अपने कर्मों को नहीं देख पाता ॥ दूसरों के प्रति दोष निकालना भी हमारी ही नज़र का दोष होता है .... बहुत सार्थक लेख ।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

सोचने को मजबूर करता आलेख, आभार.

रामराम.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बुद्धि का मानहान और कर्मों का लेखा जोखा ... सोचने को विवश करता आलेख ... राम राम जी ...

रविकर ने कहा…

बढ़िया है आदरणीय -
आभार वीरू भाई -

Anita Lalit (अनिता ललित ) ने कहा…

बढ़िया आलेख....
अभी इसका दूसरा भाग पढ़ने जा रहे हैं....

~सादर!!