शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

विराट वट वृक्ष (मानवीय कल्प वृक्ष )

विराट वट वृक्ष (मानवीय कल्प वृक्ष )

इस बेला जबकि मनुष्य पृथ्वी के अधिकतम संसाधनों को चट  कर चुका है आदमी का कार्बन फुट प्रिंट बे -हद

बढ़ चुका है जलवायु का ढांचा चरमरा के टूटने लगा है मनुष्यों का यह संसार यह विश्व रूपा उलटा झाड़,पुराने

बरगद (वटवृक्ष )की मिसल(समान) बन गया है जिसकी शाखाओं में तो अभी जीवन के चिन्ह दिखलाई देते हैं

लेकिन जिसके आदिम तने और जड़ों को दीमक चाट चुकी है विकारों का कीड़ा लग चुका है हर शाख को हर

पात को  .

अब से कोई दो हज़ार साल से भी ज्यादा पहले इसके तने का तकरीबन विलोप हो चुका है (ये तना ही तो एक

धर्म एक परमात्मा एक प्रेमपूर्ण देव कुल समान मनुष्यों का प्रतीक था )अब एक नए पौधे को रोपा जाना जरूरी

हो गया है क्योंकि यह मनुष्य लोक इस झाड़ (कल्प वृक्ष )की पूरी आयु में कभी भी जन विहीन नहीं रहा है .

बेहद के बाप सर्वमनुष्य आत्माओं के पिता शिव कहते हैं :मैं इस नव पादप का सृष्टि रूपा कल्प वृक्ष का बीज

रूप हूँ

मुझमें इसका आदि मध्य और अंत छिपा हुआ है गोपन बना .तुम गोप गोपियाँ इसे देख नहीं सकते .जैसे आम

जैसे फल देने वाले वृक्षों का बीज आम की नस्ल और वृक्ष की सारी बढ़वार ,तना ,शाखाओं ,तमाम पादपों की

जानकारी छिपाए रहता है वैसे ही मैं इस सृष्टि रूपा मानवीय वृक्ष की समस्त जानकारी गुप्त रखे रहता हूँ

.इसके हर पत्ते(आत्माओं ) हर नव कोपल (मनुष्य आत्मा )की मुझे पल पल की खबर रहती है .

बाप कहते हैं मीठे बच्चे इस नव पादप के पल्लवन और सिंचन में तुम भी मेरे मदद गार बन सकते हो .यह नव

निर्माण की वेला पुरुषोत्तम संगम युग है जब पुराना झाड़ गल सड़   कर अपनी ही खाद बनने लगा है .

इस नव पल्लवित वृक्ष का वृद्धि को प्राप्त तना एक मानवीय परिवार ,एक गाँव ,एक भाषा ,एक संस्कृति ,एक

 परमात्मा का प्रतीक होता है .तब  हम मनुष्यों में पूर्ण एका सुख शान्ति और परस्पर सहजीवन का आनंद

भाव रहता है .दुःख को हम बच्चे जानते भी नहीं हैं .

सैंकड़ों साल के बाद का मनुष्य जब इस सौहार्द्र पूर्ण देव तुल्य मनुष्य कुल का वर्रण करता है वह इसे ही स्वर्ग

बतलाने लगता है बहिश्त कहने लगता है आदम और हव्वा का बगीचा बतलाने लगता है .ढ़ाईहज़ार साल तक

यह मनुष्यों का देवतुल्य कुल अपनी वंश वृद्दि करता रहता है .इस समय प्रसव वेदना शून्य है .

बाद इसके वृक्ष की शाखाएं विभिन्न दिशाओं में प्रसार पाने लगती हैं ये सारी कायनात ,ये दुनिया अब धीरे धीरे

बदलने लगती है .मनुष्य अपने ही परिवार अपने ही लोगों को छोड़के चल देता है .मिर्च मसालों ,सिल्क (रेशम

)का आढतिया (सौदागर )बन जाता है .परस्पर प्रेम का स्थान ईर्ष्या और द्वेष ले लेता है सुरक्षा असुरक्षा में

बदलने लगती है .किले बनते हैं उनकी सुरक्षा के लिए सेनाओं का गठन होने लगता है.मनुष्यों का एका होड़ में

बदलने लगता है .इसी वक्त कुछ धर्मआत्माएं परमधाम को छोड़ पृथ्वी पर आती हैं .इनके पीछे पीछे इनके

अनुगामी भी आते हैं .विश्व के अनेक धर्मों का उदय इसी वक्त होता है .अब्राहम ,बुद्ध ,ईसा ,शंकराचार्य

,मोह्मद्द साहब ,गुरु नानक देव के बाद भी धर्म प्रचारकों के आने का सिलसिला रुकता नहीं है अनेक धर्म

अनेक भाषाओं का उदय होता है .अनेक संस्कृतियाँ पनपती हैं इस दौर में .सब में  से धीरे धीरे देह अभिमान

की बू आने लगती है .

झाड़ पुराना होने लगता है .जैसे नया मकान पुराना होने लगता है .प्रकृति का शाश्वत नियम है जो आज नया है

वह कल पुराना होगा ही .यह शरीर भी हर पल बदल रहा है .सैंकड़ों  मानवीय सेल्स (कोशायें )पल प्रति पल

मरती हैं .जैसे बच्चा फिर जवान फिर बूढ़ा।

मनुष्य आत्माएं भी जो जन्म के समय अपनी शुद्ध अवस्था में आती हैं भ्रमित होकर रावण की पकड में आ

जाती हैं .वृक्ष का हर पात (मनुष्य )बीमार हो जाता है .वृक्ष की जड़ें खोखली हो जाती हैं .मनुष्य लोक विकारों के

बोझ तले  दबता हुआ .रावण  की गिरिफ्त में  चला आता है .हद के सम्बन्ध ,देह का आकर्षण ,लोभ लालच ,"मैं "

और "मेरापन ",युद्ध उन्माद ,बात बे बात के फसाद ,आपसी ईर्ष्या ,पीढ़ियों का सफर करने लगती है .खानदानी

गुण समझे जाने लगते हैं ये विकार .

पेड़ अब जर्जर बन चुका होता है आंधी तूफ़ान उसे कभी भी जड़मूल उखाड़ कहीं भी ले जाके पटक  सकते हैं .

ठीक इसी वक्त बाप शान्ति धाम से आते हैं .जैसे अमावस्या से पहले का चाँद एक लकीर भर रह जाता है वैसे

ही मनुष्य आत्माओं की आत्मा की लौ अब टिमटिमाने लगती है .दिखता कुछ नहीं है इस रौशनी में .अज्ञान

नीम अँधेरे में .

अब हम बच्चे ही अपने खोये हुए कान्तिमान को आत्मा के निज स्वरूप को दोबारा हासिल करने के लिए

झाड़की

जड़ों में बैठ तपस्या करतें हैं .बाप की याद से इसकी जर्जर हो चुकी जड़ों  को सींचते हैं .

बाप कहते हैं इस पुरुषोत्तम संगम युग पर ही मैं इस ग्लोबल मनुष्य झाड़  का नवबीज स्वरूप बन आता हूँ .

यहाँ इस एक्शन स्टेज ,सृष्टि मंच पर शरीर लेने से पहले तुम आत्माएं भी इसी आत्मलोक (परम धाम )में मेरे

साथ थीं .वहां भी तो एक आत्माओं का वृक्ष है मेरे बच्चों .उस आत्माओं के झाड़ के अलग अलग हिस्सों पर तुम

बच्चे अपनी करनी और पुरुषार्थ के अनुसार बैठे हो .कोई पत्तों पर कोई तने पर ,कोई शाख पर .

कोई भी नहीं जानता आत्मा कैसे यहाँ मनुष्य लोक में आके शरीर में प्रवेश लेती है और फिर अपना पार्ट

बजाके उसे छोड़ भी देती है .लेकिन पार्ट को हर कोई देख सकता है .मानवीय वृक्ष की वृद्धि और फैलाव भी

सबको दिखाई देता है .इस वृक्ष का सारा ज्ञान गुह्य ही बना रहता है .आत्माओं को इस वट  वृक्ष का बीज रूप

नहीं कहा जाएगा .आत्माएं पत्ते हैं .

"चैतन्य बीज रूप मैं ही हूँ .."बाप कहते हैं .

फल दायक आम जैसे वृक्षों की बीज जमीन के नीचे रहते हैं लेकिन उन्हें चैतन्य बीज नहीं कहा जाएगा

.चैतन्यबीज स्वरूप "मैं " परे से भी परे "ऊपर "रहता हूँ .ईश्वरीय वृक्ष है यह कल्प वृक्ष जिसमें सृष्टि के आदि

मध्य

और अंत का ज्ञान रहता है .इसके पत्ते तुम आत्मा परस्पर  भाई भाई हो .मैं तुम सबका बे -हद का बाप हूँ .एक

ही वृक्ष के पत्ते हो न .इसीलिए भाई भाई हो यह बात अब अपनी बुद्धि में संभाल के रखो .

अच्छा !




इस विराट मानव वटवृक्ष का सार :

(१ )इसका तना विश्वआत्माओं के एक कुनबे का प्रतिनिधित्व करता हैं जिनमें पूर्ण समस्वरता ,परस्पर

अनुराग और सहजीवन  है .इनका रॉयल (राजपरिवारीय )आचरण ही धर्म है .यहाँ किसी धर्मादेश की ज़रुरत

ही नहीं पड़ती है .इसे ही मनुष्य कालान्तर में आदि देवी देवता सनातन धर्म कह देते हैं .अपने उद्भव से पूरे

ढ़ाई हज़ार साल  तक कायम रहता है यह स्वत :स्फूर्त आत्म प्रेरित धार्मिक आचरण .यहाँ किसी ईश्वर की

ज़रुरत ही नहीं

पड़ती है न पूजा पाठ की .तना सतयुग और त्रेता का प्रतीक है .

(२ ) डालडालियाँ (शाखाएं ),प्रशाखाएं :अनेक धर्मों के प्रादुर्भाव और तदानुरूप आचरण की कहानी कहतीं हैं

यद्यपि इसीलिए वृक्ष बे -साख्ता फैलता जाता है .इसके बे -तरतीब फैलाव के बाद ईश्वर की तलाश शुरू हो

जाती है .

(३ )क्लोरोफिल (पर्ण हरित ):हरियाली का मूल स्वरूप खोकर बदरंग होते दागदैगेले पत्ते अनेक मठों

,मठान्तरों ,धार्मिक विभाजन और परस्पर श्रेष्ठता की होड़ से पैदा कलह का प्रतीक हैं .

(४ )जर्जर और खोखली हो चुकी जड़ें ,विलुप्त प्राय :तना विश्व-रूपा  वट  वृक्ष की वर्तमान दुर्दशा का द्योतक है

लगता है जड़ मूल से वृक्ष अब गिरा के तब लेकिन बाहर से सब कुछ ठीक दिखलाई देने का भ्रम बना रहता है

.इसी वक्त नव पादप रोपा जाता है  ,नै कलम लगाईं जाती है .

ॐ शान्ति



Human Tree


 

It is an  indisputable fact that religion has an important influence on human mind. Along with the religion, the race, the language, the nationality, the culture, the ancestry with which a person identifies himself or herself has got a great bearing on his/her personality, beliefs, outlooks, attitude, consciousness and thinking. These are often the reason for so many conflicts in this world.  So it is necessary to understand the original religion and culture of the mankind.

In order to elucidate the growth of this world and to illustrate the world developments, this world is compared with a tree which may be called ‘the Geneological Tree of mankind’. It is also known as kalpa tree because it depicts the history of the whole kalpa (one full cycle of all eras), the beginning the mid-period and the end of all the religio-political dynasties of the world.

In the beginning, depicted by the trunk, there was only one religion, which is the religion of the deities, and there was only one dynasty, called the sun dynasty. There was the deity-sovereignty, which set in vogue all righteous traditions and customs. The masses were, like their rulers, viceless and possessed divine qualities. Because they did good actions, even the nature was perfectly under their control. There was no fury of nature, neither ill-health nor want of money or food. All the elements were clean and excellent and therefore were instruments of happiness. Since there was complete purity, peace ad prosperity in that Age, kings and queens and their righteous subjects are shown with a halo of light around them. They were called deities because they were naturally holy, habitually righteous and instinctively spiritual and viceless.  There was such great mutual regard and love in those days that it is said of the age in which a lion and a goat together drank from the same stream. There was unlimited wealth. Since people in that Age led viceless lives, they lived long and there was no case of premature death. They willingly gave up the body when they had reached old age. In other words, death never laid its hand on them.

In Golden age the souls were complete in all respects. In silver age, there was a slight decline in divine qualities. But even then there was sovereignty of complete peace and happiness.

Copper age follows the Silver Age. By this time, the souls, who had transmigrated through several lives, become body-conscious. The vices like lust, anger, greed, attachment and ego cast their shadows on them. And they had thus fallen from the state of purity and worthiness and become vicious and unworthy. As they forget their true selves and broke with purity, natural laws came to be violated. Even nature deviated from her usual course, having thus begun to harm them, even though slightly. It is in this age that various religions were established. A good many faiths began appearing like branches coming forth from the World-Tree. Abraham founded Islam; Buddhism was founded by Budha; Jesus Christ founded Christiniaty; Shankaracharya established the class of recluses and hermits; Mohammed Prophet established the Muslim religion. The previous deity religion came to be known as Hindu religion because they lost their deity-hood or divinity in them.  The population also increased considerably. Whereas in the beginning, everything was one, now there are many religions, many kingdoms, languages, cultures and dynasties. Thus grew mutual strife, divisions and disunity and this state of affairs continued.

In the Iron Age that follows the Copper-Age, problems, difference of views and disputes begin to increase. The souls in this age are over-powered by vices and darkness of ignorance. They become vicious and impious. There is quite a crop of dissensions due to religious, communal and sectarian difference. Women are treated with utter contempt. Nature becomes instrumental in causing distress to man. Disease, grief, old age, premature death, death by accident, etc afflicted mankind.

When all the religions reach their lowest level, and all people, men and women become diabolic, there is misery and uproar. This is the time of wickedness and irreligion.  People are given to sensual pleasures; they acquire bad qualities, ready to cause bloodshed on the score of differences in languages, views, politics, faiths, castes and states. Fighting among the nations brings about a great destruction of the world. Instead of behaving like brothers, people look upon one another as so many different beings and, therefore, they deal with each other as enemies. Being guided wholly by the feelings of nepotism, unrighteousness, lawlessness, selfishness, attachment, adulteration and bribery they desire to lay their hands on others’ possessions by any means. People discard all the feelings of mutual love and fight like demons.


What will happen next?

The world will not go on like this forever. Somebody has to put an end to all these evils. Otherwise the state of the world will be incomprehensible.  This task is beyond the reach of any human being and only one Almighty God can establish lasting peace on earth. Incorporeal God Shiva descends in the body of an ordinary person, names him Prajapita Brahma, and through him, gives the Godly Knowledge and teaches the easy Raja Yoga. He shows the path by which anyone can become completely viceless and most righteous. In this way, God purifies the human beings of the old, impious world and transmutes them into pious ones, creating the Golden Age again.



Hindi Murli  25 .07 .2013 

मुरली सार:- ”मीठे बच्चे-अन्तर्मुखी बन पढ़ाई में तत्पर रहो, श्रीमत पर सदा चलते रहो तो तुम्हारी तकदीर बहुत ऊंच बन जायेगी, यह 

समय है अपनी तकदीर बनाने का”
प्रश्न:- तुम बच्चों की ऊंची तकदीर कौन सी है जिसके आधार पर तुम सारे सृष्टि की तकदीर को जान लेते हो?


उत्तर:- स्वदर्शन चक्रधारी बनना-यह है सबसे ऊंचे ते ऊंची तकदीर। तुम ब्राह्मण अभी स्वदर्शन चक्रधारी बने हो। तुम अपनी भी तकदीर 

को जानते हो तो सारे सृष्टि की भी तकदीर को जानते हो। बाबा आये हैं तुम बच्चों की हीरे समान तकदीर बनाने। स्मृति में रहे स्वयं 

भगवान हमारी तकदीर बनाने लिए पढ़ा रहे हैं तो तकदीर बनती रहेगी।


गीत:- आने वाले कल की तुम……..

धारणा के लिए मुख्य सार:-

1) अपनी ऊंच तकदीर बनाने में गफ़लत नहीं करनी है। श्रीमत पर अच्छी रीति चल पढ़ाई के आधार से ऊंची तकदीर बनानी है।

2) प्राणेश्वर बाप की याद में रह सबको प्राण दान देना है। सबके प्राण बचाने हैं। किसी को भी दु:खी नहीं करना है।

वरदान:- सुख स्वरूप बन सारे विश्व में सुख की किरणें फैलाने वाले मास्टर ज्ञान सूर्य भव

जैसे बाप ज्ञान का सागर, सुख का सागर है वैसे स्वयं भी ज्ञान स्वरूप, सुख स्वरूप बनो, हर गुण का सिर्फ वर्णन नहीं लेकिन अनुभव हो। 

जब सुख स्वरूप के अनुभवी बनेंगे तो आप सुख स्वरूप आत्मा द्वारा सुख की किरणें विश्व में फैलेंगी। जैसे सूर्य की किरणें सारे विश्व में 

जाती हैं वैसे आपके ज्ञान, सुख, आनंद की किरणें जब सर्व आत्माओं तक पहुंचेंगी तब कहेंगे मास्टर ज्ञान सूर्य।


स्लोगन:- दिव्य जन्मधारी ब्राह्मण वह है जो अपने बोल, संकल्प और कर्म से दिव्यता का अनुभव कराये।

3 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

बढ़िया विश्लेषण-
आभार भाई जी-

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही सुंदर आलेख.

रामराम.

Anita ने कहा…

चैतन्यबीज स्वरूप "मैं " परे से भी परे "ऊपर "रहता हूँ .ईश्वरीय वृक्ष है यह कल्प वृक्ष जिसमें सृष्टि के आदि मध्य और अंत का ज्ञान रहता है .

आभार इस ज्ञान श्रंखला के लिए..