सोमवार, 1 जुलाई 2013

सेहत आत्मा की

सेहत आत्मा की 

काया कैसे तंदरुस्त रहे बदन पर चढ़ी हुई चर्बी कैसे उतरे इसका तो हम बहुत सोचते हैं .सबसे ज्यादा आज कोई चीज़ बिकाऊ है तो वह वजन घटाऊ अल्पकालिक खुराक है .वजन घटाने वाली मशीनें हैं .

बेहद की चर्चा हो चुकी है खुराकी एंटीओक्सिडेंट पर .मोटापे से बचे रहने के लिए तरह तरह के परहेज़ बतलाए समझे गएँ हैं .कहीं रेड मीट  से तौबा तो कहीं ट्रांस फेट्स से .लेकिन आत्मा की खुराक का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है .

क्या बुद्धि को मन के हवाले छोड़ दिया जाए व्यर्थ संकल्पों का चर्वण करने के लिए ?व्यर्थ संकल्पों का बोझा लिए घूमती रहे हमारी बुद्धि .हो जाए काया की तरह हमारी अक्ल भी थुलथुल .मोटी  अक्ल के हो जाएं हम ?

व्यर्थ संकल्पों का बोझा ढोती रहे हमारी बुद्धि ?या यहाँ भी किसी परहेज़ की ज़रुरत है ?

बुद्धि की महीनता ही महानता है .आत्मा की खुराक है .महीन बुद्धि बनो .फुलस्टॉप लगा दो व्यर्थ संकल्प को "तेरी" ,मेरी ,"उसकी "को .काहे "श्री मत "परमात्मा के दिखाए रास्ते ,शिक्षाओं की अवग्याओं का बोझ उठाए घूमते  हो . फैंक दो ये कचरे की गठरी .

बुद्धि का भोजन शुभ संकल्प हैं .श्री- मत है .नेक नीयत है .व्यर्थ संकल्पों से परहेज़ है .

मन का काम है सोचना .संकल्प चलाना .उसे निर्संकल्प हम नहीं कर सकते .अलबत्ता व्यर्थ की बातों की छटनी कर सकते हैं .

जिस समय जहां चाहो ,जैसे चाहो वैसे बुद्धि लगा सको .आत्मा से चर्बी हटाने का यह आसान रास्ता है .

बोझ के अनेक प्रकार हैं .आत्मा हमारी बोझ तले पिसी जा रही है .उसका मोटापा है अहंकार ,देह अभिमान,महीन बुद्धि के विमान में वह कैसे उड़े ?

उड़ सकती है यदि अपने निज स्वरूप का भान हो .ज्ञात हो आपको इस असार दुनिया से क्या काम अटका हुआ है .देह से क्या भोगना अभी शेष रह गया है .ऐसा भी क्या भोग ,देह आत्मा का ही उपभोग करने पे उतारू हो जाए .

न जगत मिथ्या है न संसार असार है .हमारे व्यर्थ संकल्प इसे असार बना देते हैं .वातावरण को बोझिल बना देते हैं .हमारी हवा ,पानी ,मिट्टी यहाँ तक की अन्तरिक्ष के भी ,अन्तरिक्ष कचरे ,ई -कचरे से गंधाने  की वजह हमारी विचार सरणी व्यर्थ की ऊलजलूल बातें बन रहीं हैं .हमारा घंमंड ,महाबलि होने का दंभ बन रहा है .

और इसलिए हम आज नौ नौ आंसू रो रहे हैं .आंसू सिर्फ आँख के ही नहीं मन के भी होतें हैं .अभी जो इन व्यर्थ संकल्पों (विकारों )में फंसे रोते हैं वही अगले जन्म की प्रारब्ध भी खोते हैं .इस जन्म की तो छोड़ों अगला जन्म भी खराब करते हैं अपना .

इसलिए ॐ शान्ति के अर्थ के भाव में रहो .सरल सीधा अर्थ है -आई एम  सायलेंस .मैं आत्मा शांत  हूँ .यही मेरा धर्म है .मैं आत्मा परमात्मा का वंश हूँ .जैसे हमारी देह का एक पिता निस्स्वार्थ भाव अपने स्नेह का छाता हमारे ऊपर ताने रहता  है .वैसे ही हमारी आत्माओं  का पिता परम -आत्मा भी हमें श्री मत की जेड सिक्युरिटी मुहैया करवाता है .श्री मत पे चलना सिखाता है लेकिन हम तो निज स्वभाव (निर -अहंकार )को ही भूल देह अभिमानी बने हुए तने रहते हैं .होना हमें आत्म अभिमानी (देही अभिमानी चाहिए )था .तनाव ग्रस्त रहते हैं हम लोग .टूटते रहते हैं भीतर से .अकड़े रहते हैं बाहर से .

बुझे रहते हैं अन्दर से सजे रहते हैं बाहर से .मैं कैसा दिखता हूँ यही अब एक प्रतिमान है .मैं कैसा हूँ (स्वभाव गत ,निज धर्म में हूँ या नहीं )इसका किसी को भान नहीं है .

आत्मा को अब कोस्मेटिक सर्जरी चाहिए .नैन नक्श देह से आगे बढ़िये ,निरभिमानी ,निस्पृह बनिए .सिर्फ व्यर्थ संकल्पों के स्थान पर शुभ संकल्प .चलाना है .

हमारी सारी  मुद्राएं ,देह भाषाएँ मैथुनी बन रहीं हैं .जबकि अमैथुनी सृष्टि हमारी बाट जोह रही है .कलयुग (कलह युग ,अवसान की ओर  है ).विज्ञान अपने चरम पर है .सतयुग की आहट देख सको तो देखो .नवनिर्माण भी हो रहा है देख सको तो देखो .

WE NEED A SPA FOR OUR SOULS. ॐ शान्ति .


13 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बुद्धि जैसे ही प्रश्न उठाना प्रारम्भ करती है, मन की मनमानी बन्द हो जाती है। यही है आत्मा की आत्मा।

Unknown ने कहा…

सर जी बड़ी जटिल समस्या है क्या करें और क्या न करें कभी बुद्धि तो कभी मन के अंतहीन द्वंदों में जीवन ......सुन्दर अभिव्यक्ति

रविकर ने कहा…

काया खाए पिए नित, टाइट होती पैन्ट |
माया मोटी बुद्धि की, सच है सौ परसेन्ट |
सच है सौ परसेन्ट, डेंट कर पेंट कराओ |
लेकिन थुल थुल देह, करोगे क्या बतलाओ |
परकाया है स्वाद, मजा जिभ्या को आया |
सरकाया अब तलक, लेट जायेगी काया ||

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

किसी से कोई अपेक्षा मत कीजिये ,अपने किये परोपकार का पुरस्कार मत चाहिए. मन वुद्धि स्थिर हो जाएगी. बुद्धि सूक्ष्म हो जाएगी ,अपना ख्याल रखेगी
latest post झुमझुम कर तू बरस जा बादल।।(बाल कविता )

Anupama Tripathi ने कहा…

बहुत गहन आलेख है ...!!अशरीरी अनुभूतियाँ ही आत्मा को हल्का रखती हैं ....मन के साथ बुद्धि का सक्रिय होना नितांत आवश्यक है !!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आत्मा की सेहत के बारे में कोई नहीं सोचता .... बहुत सुंदर लेख ....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

विज्ञान के बीच बीच बुद्धि की खुराक भी देते रहते हैं आप ... गहन चिंतन मनन है आत्मा का ... राम राम जी ...

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आत्म ज्ञान की कुंजी बतादी आपने इस आलेख में, बहुत आभार.

रामराम.

Anita ने कहा…

बहुत सारगर्भित लेखन..

Harihar (विकेश कुमार बडोला) ने कहा…

टूटते रहते हैं भीतर से.अकड़े रहते हैं बाहर से.
बुझे रहते हैं अन्दर से सजे रहते हैं बाहर से.मैं कैसा दिखता हूँ यही अब एक प्रतिमान है.मैं कैसा हूँ (स्वभाव गत ,निज धर्म में हूँ या नहीं )इसका किसी को भान नहीं है.आत्मा को अब कोस्मेटिक सर्जरी चाहिए.नैन नक्श देह से आगे बढ़िये, निरभिमानी,निस्पृह बनिए. सिर्फ व्यर्थ संकल्पों के स्थान पर शुभ संकल्प.चलाना है.हमारी सारी मुद्राएं, देह भाषाएँ मैथुनी बन रहीं हैं. जबकि अमैथुनी सृष्टि हमारी बाट जोह रही है..............मैथुनी का ही तो चक्‍कर है जिसके चक्‍कर में हाली से लेकर बालीवुड और परिणामस्‍वरुप दूसरी-तीसरी दुनिया का देश भारत पड़ा हुआ है। बढ़िया विश्‍लेषण।

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत सुंदर रचना,आभार

अरुन अनन्त ने कहा…

आपकी यह रचना कल मंगलवार (02-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

आत्मा की सेहत..... इस विषय विचार ज़रूरी है सहेजने योग्य पोस्ट