रविवार, 30 सितंबर 2018

पानी में मीन प्यासी रे ...

मेरा परम निदान मुझसे अलग है बाहर है। दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। आदमी अपने पास से नहीं दूर से संतुष्ट होता है। लोग ब्रह्म को ,श्रेष्ठ -चेतन को भूल गए। जड़ चेतन सबको ईश्वर मान लिया गया। लोग ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को भूल गए। ब्रह्म का मतलब है महान श्रेष्ठ। उपनिषदों में चार महावाक्यों में कहा गया है ब्रह्म का स्वरूप :

मैं ब्रह्म हूँ -उत्तम पुरुष (अहंब्रह्मास्मि )

मैं श्रेष्ठ हूँ -अयं  आत्मा ब्रह्म -ये आत्मा ही ब्रह्म है 

वही तू है - तत् त्वं असि  (मध्यम पुरुष )

ये आत्मा ब्रह्म है -अन्य पुरुष 

ज्ञान ही ब्रह्म है। - प्रज्ञानं ब्रह्म 

ये बातें लोग भूल गए हैं। श्रेष्ठ तत्व को भूल जाने से रास्ता दूसरा हो गया।मान लिया ब्रह्म कहीं अलग है जड़ चेतन को मिलाकर ब्रह्म है।ब्रह्म है लेकिन हमारी समझ गलत है। बाहर ब्रह्म खोजने की बात -रोवो ,गाओ , नाँचो ब्रह्म को रिझाओ ... भक्त यही कर रहा है।  

दो दो अक्षरों को मिलाकर कहा नाम जपो ,राम जपो , .... 

नाम जप आदि मन के निग्रह के लिए ठीक है लेकिन अंतिम तो 'नामी' को समझना है 'नामी' कौन है। फिर भी कुछ लोग ''ज्योत''/ज्योति  में अटक गए कुछ नाम जप में। जबकि ज्योत तो आपका दृश्य है आप उसके दृष्टा है , साक्ष्य है ज्योति , जिसके साक्षी तुम ही हो।  

ब्रह्म को बाहर खोजना है यह बात फ़ैल गई। सनत ,सनन्दन ,सनत कुमार (सनकादिक ऋषियों )ने भी इसे मान  लिया। वेद ,कतैब (कुरआन ,इंजील आदिक )ग्रंथों का ,प्रसार हुआ। ब्राह्मण (शतपथ ,गौ ब्राह्मण आदिक )लिखे  गए।पुराण ,उप -पुराण ,उपनिषद लिखे गए।  

मन अगम अपार में फ़ैल गया माने अनियंत्रित हो गया। 

'फ़ैल गइल मन अगम अपारा '

पृथ्वी के लोग दुखों से भयभीत होकर दसों दिशाओं में  भागे चले जा रहें हैं ,कैलाश काशी ,काबा ,बदरीनाथ आदिक। 
सत्य ,मोक्ष ,परमात्मा निर्भय स्थान खोजते हैं। निर्भय स्थल 

कहाँ से पावे मनुष्य ?

दौड़ना छोड़ संतों के पास जाओ समझो और मन को स्थिर करो। फिर शांति के लिए औषधि मिल गई। 

जो जीवन को क्षणिक समझा वही मुक्त है। जो चित्त को चंचल नहीं करता है उसका कल्याण है इधर उधर दौड़ों मत। अपना चेतन स्वरूप ही मालिक है लेकिन मनुष्य का मन कल्पनाओं में दौड़ता है। 'स्वरूप भाव' गया और बस नरक। जो आत्मा में प्रेम करता है आत्मा में संतुष्ट होता है उसके लिए कुछ करना बाकी नहीं। 
हंस की गति ज्ञान की तरफ होती है। विवेकी कर्म काण्ड में नहीं पड़ता। 
'पूरब दिशा हंस गति होइ ' 
आत्म ज्ञान की  ओर  चलता है विवेकी। 
जिसको मैं सोचता हूँ वह मैं ही हूँ -यही हंस का अर्थ है। हंस का मतलब जीव चेतन। 

भक्त लोग भक्ति का श्रृंगार करते ही रह गए बीच धार में डूब गए। नांच गाकर किसी बाहरी देव को ही रिझाते रहे। 
स्व : स्वरूप में स्थिर होना ही पराभक्ति है गुरु यही कराता है। 

गुरु से ज्ञान मिला नहीं इसीलिए जीव आज अपने स्वरूप को भूलकर बाहर भटकता है। 

आतम  ज्ञान बिना नर भटके कोई मथुरा कोई काशी रे ..... 

इच्छा करके दुःख से भरे हो और सुख खोजते हो। इच्छा त्यागो। कुछ खोजने  की फिर जरूरत ही नहीं है। जिसे तुम खोज रहे हो वह तुम ही हो। 

बिना गुरु ज्ञान के द्वंद्व में भटक रहे हो। 

कहाँ खसम ठहराए हो ?

सन्दर्भ -सामिग्री :

शीर्षक :पानी में मीन प्यासी रे  ... 

Kabir was a 15th century mystic poet, who composed poems in a pithy and earthy style, fused with imagery. His poems cover various aspects of life and call for a loving devotion for God. In this song, Kabir beautifully explains how to attain enlightenment in a simple and devoted way.

(१ )https://www.youtube.com/watch?v=h33YJ7zQ_dc

(२ )https://www.youtube.com/watch?v=W4NTfnRxKT4&list=PLgXAaYytyNTQF2JbeuOg6UpSdQn-EKOIh&index=5



कोई टिप्पणी नहीं: