शब्दों के दिग्भ्रमित करने वाले आग्रह मूलक अर्थ:सम्प्रदाय तो समाज
को
कुछ देता था,इसी में इक प्रत्यय लगाके सम्प्राद्यिक बन जाता है।
विकेश बडोला जी आपने बहुत बढ़िया सवाल राजनीति के धंधेबाज़ों के सन्दर्भ में उठाया है जो शब्दों के दिग्भ्रमित करने वाले आग्रह मूलक अर्थ
निकाल रहे हैं मसलन वो चर्च की एजेंट बी जे पी को सांप्रदायिक कहती है जिसे सम्प्रदाय शब्द का अर्थ ही नहीं पता यह नहीं पता भारत एक
सम्प्रदाय
प्रधान देश है। पहले जितने हिन्दू थे सबके अपने अपने देव थे। सम्प्रदाय समाज को कुछ देता था -वैषणव ,शैव ,शाक्य ये सब सम्प्रदाय ही थे। ये
दल्ले
कांग्रेसी धर्म -निरपेक्षता शब्द के मनमाने अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि इस शब्द का अर्थ चर्च और स्टेट के अलहदगी से है न कि उसके गैर ज़रूरी
दखल
से इस या उस सम्प्रदाय की हिमायत करते हुए।
साम्प्रदायिकता किस चिड़िया का नाम है कोई मुसलमान आतताइयों के भारत पर हमलों से पूर्व जानता भी न था। कोई धार्मिक श्रेष्ठता को लेकर
यहाँ कलह
प्रियता नहीं थे सबके अपने अपने देव थे जिसको मर्जी पूजो। शिव मंदिर जाओ चाहे राम मंदिर या सिद्धि विनायक या फिर भगवान् कार्तिकेय के
मंदिर में जाओ। ये झमेला यहाँ एक- देव पूजकों ने आकर किया।
भारत शुरू से ही एक सर्व-ग्राही सर्व समावेशी समाज रहा है। हिन्दू कैसे सांप्रदायिक हो सकता है आकर जिरह करें हमसे कथित सेकुलर तब हम
उन्हें
उनके पुराग्रहों के असली माने समझा देंगें।
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
http://chandkhem.blogspot.in/2013/11/blog-post_8055.html
को
कुछ देता था,इसी में इक प्रत्यय लगाके सम्प्राद्यिक बन जाता है।
विकेश बडोला जी आपने बहुत बढ़िया सवाल राजनीति के धंधेबाज़ों के सन्दर्भ में उठाया है जो शब्दों के दिग्भ्रमित करने वाले आग्रह मूलक अर्थ
निकाल रहे हैं मसलन वो चर्च की एजेंट बी जे पी को सांप्रदायिक कहती है जिसे सम्प्रदाय शब्द का अर्थ ही नहीं पता यह नहीं पता भारत एक
सम्प्रदाय
प्रधान देश है। पहले जितने हिन्दू थे सबके अपने अपने देव थे। सम्प्रदाय समाज को कुछ देता था -वैषणव ,शैव ,शाक्य ये सब सम्प्रदाय ही थे। ये
दल्ले
कांग्रेसी धर्म -निरपेक्षता शब्द के मनमाने अर्थ निकाल रहे हैं। जबकि इस शब्द का अर्थ चर्च और स्टेट के अलहदगी से है न कि उसके गैर ज़रूरी
दखल
से इस या उस सम्प्रदाय की हिमायत करते हुए।
साम्प्रदायिकता किस चिड़िया का नाम है कोई मुसलमान आतताइयों के भारत पर हमलों से पूर्व जानता भी न था। कोई धार्मिक श्रेष्ठता को लेकर
यहाँ कलह
प्रियता नहीं थे सबके अपने अपने देव थे जिसको मर्जी पूजो। शिव मंदिर जाओ चाहे राम मंदिर या सिद्धि विनायक या फिर भगवान् कार्तिकेय के
मंदिर में जाओ। ये झमेला यहाँ एक- देव पूजकों ने आकर किया।
भारत शुरू से ही एक सर्व-ग्राही सर्व समावेशी समाज रहा है। हिन्दू कैसे सांप्रदायिक हो सकता है आकर जिरह करें हमसे कथित सेकुलर तब हम
उन्हें
उनके पुराग्रहों के असली माने समझा देंगें।
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
http://chandkhem.blogspot.in/2013/11/blog-post_8055.html
Nov 17, 2013
पूर्वाग्रहों का क्या अर्थ है? यही कि अगर बिल्ली वो भी काली बिल्ली रास्ता काट दे तो अपशकुन तय है। काला कौवा घर के आंगन में कांय-कांय करे तो बुरी खबर मिलने के आसार हैं। इनके अलावा भी कितनी ही बातें पूर्वाग्रह के अन्दर आती होंगी। मेरे अबोध दिमाग में जब ये बातें पड़ी होंगी तो निश्चित रुप से मैं इन्हें नकार नहीं सकता था क्योंकि इनके बारे में मुझे मेरे बड़ों द्वारा बताया गया था। आज जब दीन-दुनिया को खुद समझ सकता हूँ तो अबोध स्मृति में कैद हुए पूर्वाग्रहजनित अनुभव मुझे अब भी कहीं न कहीं किसी न किसी बात पर या घटना होने पर विचलित करते हैं। मैं ही क्यों जीवन परिवेश के तमाम लोगों को मैंने ऐसे पूर्वाग्रहों से ग्रसित पाया। यह ठीक है या गलत इस बात की पड़ताल तो वही कर सकता है जिसके पास ऐसा कोई अहसास ही न हो। इनके बारे में जाननेवाला, सोचनेवाला तो इनसे छुटकारा पाने को भी छटपटाता है और किसी न किसी स्तर पर इनसे प्रभावित भी रहता है।
कल रात घर की सीढ़ियों पर चढ़नेवाला ही था कि एक काली बिल्ली ने रास्ता काट दिया। इसे सामान्य घटना समझ कर भूलने के बजाय मैं इसकी आशंकाओं से घिर गया। पहला खयाल तो यही आया कि घर में सब ठीकठाक होगा या नहीं! तुरन्त अपने विचार को पलटा। काली बिल्ली, इसका रास्ता काटने की बात से ध्यान हट गया। याद आया कि मैं भारत के राज्य उत्तर प्रदेश में रहता हूँ। राज्य सरकार की कार्यप्रणाली प्रबुद्ध व्यक्तियों की दृष्टि में नकारा ही है। जिस हिसाब से पिछले दो-तीन साल से राज्य चल रहा है उस स्थिति में तो लाखों-करोड़ों काली बिल्लियों को लोगों का रास्ता प्रतिपल काटना चाहिए। इस प्रकार से तो यहां के कौओं के साथ-साथ प्रवासी कौओं को विशाल संख्या में आकर हमेशा के लिए यहीं हिन्दुस्तान में बसना होगा।
बात पूर्वाग्रह की है। बचपन में मेरे मस्तिष्क को जिन उपर्युक्त पूर्वाग्रहों से भरा गया था,एक प्रकार से ये मुझे या मेरे जैसों को किसी भावी अनहोनी के प्रति सचेत करते हैं। इनसे व्यक्ति विशेष दुर्घटनाओं की आशंका से भर जाता है। बेशक किन्हीं परिस्थितियों में ये आशंकाएं सच साबित हो जाया करती हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इस प्रकार के पूर्वाग्रहों पर वाद-विवाद या विचार-विमर्श होता है। ऐसा भी नहीं कि इस विषय के विवाद व वितर्क मनुष्यों के बीच लड़ाई का कारण बनें।
लेकिन आज के सन्दर्भ में यदि इन पूर्वाग्रहों का अध्ययन हो तो एक गोपनीय और रहस्यमय जानकारी मिलती है। आज देश-विदेश के सूत्रधार पुरातन पूर्वाग्रहों के स्थान पर राजनीति, शासननीति के लालच में मनगढ़ंत पूर्वाग्रहों का सृजन करने पर लगे हुए हैं। पुराने पूर्वाग्रह अगर मानव-समाज की भलाई को केन्द्र में रखकर बनाए गए थे तो इस युग में आज पूर्वाग्रहों को सत्ता प्राप्ति के लिए नए कलेवर में ढाल दिया गया है। नए बच्चों की समझ में धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक, आरक्षण इत्यादि के नाम पर आज जो पूर्वाग्रह डाले जा रहे हैं क्या उनके पीछे मानव और समाज कल्याण की कोई भावना परिलक्षित होती है? यदि नहीं तो क्यों इन्हें इस समयकाल के शिशुओं, उनकी अबोध स्मृति में जमाया जा रहा है? ये बच्चे जब बड़े होंगे और इन्हें इन पूर्वाग्रहों की सच्चाई ज्ञात होगी तो क्या ये चुप बैठ सकेंगे? क्या ये हमारी तरह अपने विवेक से अपने शिशुकाल के पूर्वाग्रहों का सही-गलत आकलन कर पाएंगे?
हमारे बचपन के पूर्वाग्रह बड़े होने पर विमर्श, विचार का आधार बन सके क्योंकि इनमें जो वैज्ञानिक-धार्मिक गुत्थी उलझी हुई थी, वह सार्थक समाजानुकूल थी। हमने उन्हें उनकी आवश्यकता-अनावश्यकता के अनुरुप स्वीकार-अस्वीकार किया है। लेकिन आज के समय के पूर्वाग्रह और इनको सीखनेवाले शिशु क्या भविष्य में इनसे कोई उपयुक्त सामंजस्य बिठा पाएंगे, ये सोचकर विनाश का आभास ही होता है।
4 टिप्पणियां:
आभार एक सार्थक पोस्ट साझा करने का ....
शंका-समाधान करती पोस्ट-
आभार भाई जी-
अत्यंत सटीक और सहज सरल आलेख.
रामराम.
पूर्वाग्रहों से ग्रस्त व्यक्ति कभी भी सच को नहीं देख पाता...सार्थक पोस्ट
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