मार्क्सवादी बौद्धिक गुलाम जो अंग्रेज़ों के मुखबिर थे क्रांतिकारियों की
मुखबरी करते थे उनका कोई हक़ नहीं
बनता है वह भारतीय प्रतीकों की बात करें।वे स्टालिन की बात करें जो
उनकी प्रेरणा के स्रोत रहें हैं।
भारत पर चीन ने बाहर से हमला किया था ये अंदर से कर रहें हैं इनके तो
मस्तल पे लिखा होना चाहिए -
मार्क्सवादी बौद्धिक गुलाम बोले तो MBG.
जहां तक कोंग्रेस पार्टी की बात है उसमें दो तरह के लोग थे -एक योरपीय
समाजवाद के समर्थक जिनका
प्रतिनिधित्व नेहरू करते थे। दूसरे सरदार वल्लभ भाई पटेल जो
क्रांतिकारियों और राष्ट्रवादियों के बीच की
कड़ी थे। ये वही सरदार पटेल थे जिन्होनें सोमनाथ मंदिर का पुनरोद्धार
करवाया था। जिन्हें नेहरू ने उस दौर
का सबसे बड़ा साम्प्रदायिक कहा था।
नेहरू तो खुद कहते थे मैं शिक्षा से ईसाई हूँ ,संस्कार से मुसलमान और
इत्तेफाक से हिन्दू।
आर एस एस पे प्रतिबन्ध भी नेहरू ने ही लगवाया था जो राष्ट्रवादी धारा से
बे हद चिढ़ते थे। सरदार पटेल पे
पूरी तरह दवाब बनाये रहे नेहरू। और नेहरूवियन राजनीति का करिश्मा
देखिये उन्हीं सरदार पटेल की
अंत्येष्टि पर जो उम्र में भी नेहरू से बड़े थे नेहरू नहीं पहुंचे।
आज की वर्तमान सोनिया कांग्रेस ने तो इस मरतबा दांडी यात्रा का मार्ग ही
बदल दिया था।गांधी की विरासत को मेटने में इनका कोई सानी नहीं रहा
है।
भारत धर्मी समाज में यदि आज कोई सरदार पटेल की विरासत को
अक्षुण्य बनाये रख सकता है तो वह
राष्ट्रवादी धारा ही रख सकती है मोदी जिसके प्रतीक बन चुकें हैं। और
भारत का मुकुट सरदार पटेल को
पहनाना चाहते हैं।
बौद्धिक भकुओं को क्या हक़ हासिल है वह सरदार पटेल की विरासत और
उन्हें प्रतीक बनाने की बात करें। वैसे
भी आज इन लेफ्टियों का कोई नाम लेवा तो है नहीं।फिर भी इनसे यह तो पूछा ही जा सकता है :
क्या वह कांग्रेस हिफाज़त करेगी सरदार पटेल और नेहरू की विरासत का जिसने एक एक करके महात्मा गांधी के सब उसूल मेट दिए हैं और इतिहासिक दांडी मार्च का रास्ता भी बदल दिया था ?
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
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तोते में जान आ गयी लेकिन ये तोता है कौन :मार्क्स वादी बौद्धिक भकुआ
लो क सं घ र्ष ! पर Randhir Singh Suman
मुखबरी करते थे उनका कोई हक़ नहीं
बनता है वह भारतीय प्रतीकों की बात करें।वे स्टालिन की बात करें जो
उनकी प्रेरणा के स्रोत रहें हैं।
भारत पर चीन ने बाहर से हमला किया था ये अंदर से कर रहें हैं इनके तो
मस्तल पे लिखा होना चाहिए -
मार्क्सवादी बौद्धिक गुलाम बोले तो MBG.
जहां तक कोंग्रेस पार्टी की बात है उसमें दो तरह के लोग थे -एक योरपीय
समाजवाद के समर्थक जिनका
प्रतिनिधित्व नेहरू करते थे। दूसरे सरदार वल्लभ भाई पटेल जो
क्रांतिकारियों और राष्ट्रवादियों के बीच की
कड़ी थे। ये वही सरदार पटेल थे जिन्होनें सोमनाथ मंदिर का पुनरोद्धार
करवाया था। जिन्हें नेहरू ने उस दौर
का सबसे बड़ा साम्प्रदायिक कहा था।
नेहरू तो खुद कहते थे मैं शिक्षा से ईसाई हूँ ,संस्कार से मुसलमान और
इत्तेफाक से हिन्दू।
आर एस एस पे प्रतिबन्ध भी नेहरू ने ही लगवाया था जो राष्ट्रवादी धारा से
बे हद चिढ़ते थे। सरदार पटेल पे
पूरी तरह दवाब बनाये रहे नेहरू। और नेहरूवियन राजनीति का करिश्मा
देखिये उन्हीं सरदार पटेल की
अंत्येष्टि पर जो उम्र में भी नेहरू से बड़े थे नेहरू नहीं पहुंचे।
आज की वर्तमान सोनिया कांग्रेस ने तो इस मरतबा दांडी यात्रा का मार्ग ही
बदल दिया था।गांधी की विरासत को मेटने में इनका कोई सानी नहीं रहा
है।
भारत धर्मी समाज में यदि आज कोई सरदार पटेल की विरासत को
अक्षुण्य बनाये रख सकता है तो वह
राष्ट्रवादी धारा ही रख सकती है मोदी जिसके प्रतीक बन चुकें हैं। और
भारत का मुकुट सरदार पटेल को
पहनाना चाहते हैं।
बौद्धिक भकुओं को क्या हक़ हासिल है वह सरदार पटेल की विरासत और
उन्हें प्रतीक बनाने की बात करें। वैसे
भी आज इन लेफ्टियों का कोई नाम लेवा तो है नहीं।फिर भी इनसे यह तो पूछा ही जा सकता है :
क्या वह कांग्रेस हिफाज़त करेगी सरदार पटेल और नेहरू की विरासत का जिसने एक एक करके महात्मा गांधी के सब उसूल मेट दिए हैं और इतिहासिक दांडी मार्च का रास्ता भी बदल दिया था ?
एक प्रतिक्रिया ब्लॉग पोस्ट :
शुक्रवार, 8 नवम्बर 2013
सरदार पटेल भी भाजपा के प्रतीक नहीं बन पायेंगे
आरएसएस, भाजपा (और भाजपा के पूर्व संस्करण जनसंघ) हमेशा एक प्रतीक की तलाश में रहे हैं। उनका अपना कोई ऐसा नेता पैदा नहीं हुआ जो खुद प्रतीक के रूप में याद किया जा सकता। ऐसे अकाल में निश्चय ही उन्हें एक प्रतीक के लिए भटकना पड़ रहा है। सत्तर के दशक में जनसंघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना प्रतीक गढ़ने का नापाक असफल प्रयास किया परन्तु विवेकानन्द के ऐतिहासिक शिकागो वक्तव्य ने जनसंघ की राह में रोड़े अटकाये जिसमें उन्होंने बड़ी शिद्दत से कहा था कि ”भूखों को धर्म की आवश्यकता नहीं होती है“। विवेकानन्द ने भूखों के लिए पहले रोटी की बात की जबकि जनसंघ और आरएसएस उस समय भारतीय पूंजीपतियों के एकमात्र राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में भारतीय राजनीति में कुख्यात थे।
उसी दशक में जनसंघ का अवसान हुआ और उसके नये संस्करण भाजपा का जन्म। भाजपा ने अपने जन्मकाल से सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में दो रास्ते निर्धारित किये - एक तो समाज के अंध धार्मिक विभाजन के जरिये मतों का ध्रुवीकरण और दूसरा एक प्रतीक को अंगीकार कर उसके आभामंडल के जरिये कुछ लाभ प्राप्त करना। पहले मंतव्य में तो भाजपा कुछ हद तक एक दौर में सफल रही परन्तु दूसरे मोर्चे पर उसके लगातार पराजय मिली है।
उन्होंने भगत सिंह को अपना प्रतीक बनाने की कोशिश इसलिए की क्योंकि शहीदे आजम भगत सिंह निर्विवाद रूप से भारतीय जन मानस में, और विशेष रूप से नवयुवकों में, एक नायक के रूप में जाने और पहचाने जाते हैं। भाजपा की यह बहुत बड़ी गलती थी क्योंकि भारतीय क्रान्तिकारियों में भगत सिंह उन नायकों में शामिल थे जिनके विचारों को पहले से ही बहुत प्रचार मिल चुका था। भगत सिंह के आदर्शों को भाजपा स्वीकार नहीं सकती क्योंकि वह ‘मार्क्सवादी’ दर्शन था। उन्होंने साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी बोला और लिखा था जो पहले ही प्रकाशित हो चुका था। भाजपा एक बार फिर बुरी तरह असफल रही।
तत्पश्चात् भाजपा ने महात्मा गांधी को अपना प्रतीक बनाने की एक कोशिश की। अस्सी के दशक में ‘गांधीवादी समाजवाद’ लागू करने का नारा दिया गया। यह पहले की गल्तियों से कहीं बड़ी गलती थी। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि गांधी एक महापुरूष थे और दुनियां के तमाम देशों में स्वतंत्रता और दमन के खिलाफ संघर्ष करने वालों ने उनके ‘सत्याग्रह’ के विचारों को लागू करने के सफल प्रयास किये परन्तु गांधी जी कभी समाजवादी नहीं रहे थे। इसलिए आम जनता कथित ‘गांधीवादी समाजवाद’ को स्वीकार भी नहीं कर सकती थी। दूसरे भाजपा की नाभि आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप उस समय लग चुका था जब न तो जनसंघ वजूद में था और न ही भाजपा।
कांग्रेस नीत संप्रग अपने दो कार्यकाल पूरे कर रही है। निश्चित रूप से उसे पिछले 10 सालों के अपने काम-काज के कारण जनता में व्याप्त असंतोष का सामना आसन्न लोक सभा चुनावों में करना होगा। भाजपा इस अवसर का लाभ उठाने के लिए बहुत व्याकुल है। एक ओर वह अपने एक साम्प्रदायिक प्रतीक नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी घोषित कर ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर ‘लौह पुरूष’ के नाम से विख्यात कांग्रेसी नेता सरदार पटेल को अपना प्रतीक बना लेने की कोशिशें कर रही हैं।
भाजपा द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किये जाने के पहले ही मोदी यह घोषणा कर चुके थे कि वे नर्मदा जिले में सरदार सरोवर बांध के पास सरदार पटेल की लोहे की एक 182 मीटर ऊंची विशालकाय प्रतिमा बनवायेंगे जो दुनियां की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। इस प्रतिमा के निर्माण के लिए गांव-गांव से खेती में प्रयुक्त होने वाले लोहे के पुराने बेकार पड़े सामानों को इकट्ठा किया जायेगा। अभी हाल में उन्होंने इस प्रतिमा का शिलान्यास समारोह भी सम्पन्न करवा दिया। समारोह के पहले मोदी ने पटेल के प्रधानमंत्री न बनने पर अफसोस जताकर गुजराती अस्मिता को उभारने की कोशिश की। उन्होंने यहां तक कह दिया कि सरदार पटेल की अंतेष्टि में जवाहर लाल नेहरू उपस्थित नहीं थे। एक तरह से मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर आक्रमण के जरिये ‘सोनिया-राहुल’ को भी निशाने पर लेना चाह रहे थे। कांग्रेस का मोदी पर पलट वार स्वाभाविक था।
भाजपा के किसी जमाने के कद्दावर नेता लाल कृष्ण आणवानी आज कल आरएसएस की बौद्धिकी का काम संभाल चुके हैं। सोशल मीडिया पर ब्लॉग लेखन वे काफी समय से कर रहे हैं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी के नाम की घोषणा पर उन्होंने कुछ नाक-भौ जरूर सिकोड़ी थी परन्तु आज कल वे अपने ब्लॉग के जरिये मोदी के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। आरएसएस की यह पुरानी रणनीति रही है कि वह अपने सभी अस्त्र-शस्त्र एक साथ प्रयोग नहीं करती बल्कि किश्तों में करती है जिससे मुद्दा अधिक से अधिक समय तक समाचार माध्यमों में छाया रहे।
आणवानी जी ने पहला शिगूफा छोड़ा कि नेहरू ने कैबिनेट बैठक में 1947 में सरदार पटेल को साम्प्रदायिक कहा था। इसका श्रोत उन्होंने एक पूर्व आईएएस अधिकारी को बताया। इस बात पर भी प्रश्न चिन्ह है कि जिस अधिकारी का हवाला दिया गया है वह उस समय सेवा में था अथवा नहीं और अगर सेवा में था तो भी वह कैबिनेट बैठक में कैसे पहुंचा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आजादी के पहले आईएएस नहीं आईसीएस होते थे। दो दिन बाद ही उन्होंने पूर्व फील्ड मार्शल मानेकशॉ के हवाले से अपने ब्लॉग में लिखा कि नेहरू 1947 में पाकिस्तान की मदद से कबाईलियों द्वारा कश्मीर पर हमले के समय फौज ही भेजना नहीं चाहते थे और फौज भेजने का फैसला सरदार पटेल के दवाब में लिया गया था। यह मामला भी कैबिनेट बैठक का बताया जाता है। इस पर भी प्रश्नचिन्ह है कि 1947 में मॉनेकशा फौज के एक कनिष्ठ अधिकारी थे और वे कैबिनेट बैठक में मौजूद भी हो सकते थेे अथवा नहीं। आने वाले दिनों में इसी तरह के न जाने कितने रहस्योद्घाटन आरएसएस की फौज करेगी जिससे मामला बहस और मीडिया में लगातार बना रह सके।
उत्सुकता स्वाभाविक है कि आखिर सरदार पटेल को इस गंदे खेल के मोहरे के रूप में क्यों चुना गया है? बात है साफ, दलीलों की जरूरत क्या है। एक तो भाजपा सरदार पटेल के नाम पर गुजराती वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहती है। दूसरे पटेल गुजरात की एक ताकतवर जाति है और उत्तर भारत की एक ताकतवर पिछड़ी जाति ‘कुर्मी’ भी अपने को सरदार पटेल से जोड़ती रही है। इस तरह उत्तर भारत में ‘कुर्मी’ वोटरों का ध्रुवीकरण भी उसका मकसद है।
मकसद कुछ भी हो, एक बात साफ है कि जब स्वामी विवेकानन्द भाजपा के न हो सके, न ही भगत सिंह और महात्मा गांधी तो फिर सरदार पटेल भी भाजपा के प्रतीक नहीं बन पायेंगे। सम्भव है कि चुनावों के पहले इसका भी रहस्योद्घाटन हो ही जाये कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध भी सरदार पटेल ने ही लगाया था और तत्कालीन संघ प्रमुख गोलवलकर से माफी नामा भी उन्होंने ही लिखाया था क्योंकि वे उस समय अंतरिम कैबिनेट में गृह मंत्री थे।
- प्रदीप तिवारी
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तोते में जान आ गयी लेकिन ये तोता है कौन :मार्क्स वादी बौद्धिक भकुआ
लो क सं घ र्ष ! पर Randhir Singh Suman
6 टिप्पणियां:
आपके रूचि के विषयों का दायरा बहुत विस्तृत है
सर्वप्रथम मेरी नमस्ते स्विकार करें...
आप का ज्ञान, आप की रूचि, आप का विशलेषण व आप का ब्लौग लेखन वास्तव में सार्थक है...
हिंदी ब्लौग लेखन में मैं नहीं कह सकता कि आदर जिन्हे दिया जा रहा है वो क्यों दिया जा रहा है, पर जो ब्लौगर मुझे अच्छे लगते हैं उनका इस श्रेणी में नाम भी नहीं है। ये मेरे केवल निजी विचार है...
सादर।
सर जी ,प्रणाम : बहुत ही सार्थक लेखन , विश्लेषण की पैनी दृष्टि , चिंतन का व्यापक दायरा
लिखनी बोलती है आप की ,सादर, विशालाक्षा 3 और 4 प्रतीक्षा रत हैं ,आप कि टिपण्णी स्नेह का आशीर्वाद है ,सादर
सटीक हमला-
बोलती बंद-
आभार भाई जी-
विस्तृत चिंतन ... आज़ादी के बाद से ही देश में सामाजिक पतन की राह शुरू हो गई थी .. उस समय जनता समझ नहीं सकी ... पर धीरे धीरे सब समझ जायगी ... बस देर नहीं होनी चाहिए ...
ये भकवे मार्क्सवादियों कि इतने चमचे हैं और अगर इक्तेफाक से हिन्दू हैं तो इसकी क्या जरुरत है। ये मुसलमान और इसाई बन सकते हैं शौक से। पर धरती की मांग को पाश्चात्य से जबरन क्यों लसना चाहते हैं ये जानते हुए भी कि ऐसा कभी होना नहीं है। भकुवे सब चले जाएंगे। धरती जस की तस बनी रहेगी कालांतर तक। बड़े नादान हैं देश-दुनिया के शासक। पता नहीं क्या सोच कर हांक रहे हैं दुनिया को गलत रास्तों पर।
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