मंगलवार, 30 जून 2009
सिर्फ़ धारा ३७७ हठाना है .
होमोसेक्सुँल्स आकाश कुसुम नहीं मांग रहें हैसिर्फ़ धारा ३७७ हथ्वाना चाहतें हैं .इसमें ग़लत क्या है ?बाबा आदम के ज़माने की कोई चीज़ आप क्यों संभाल के रखना चाहतें हैं ,इतनी की आपको फतवा जारी करना पड़ गया ?खानदानी जींस (जीवन इकाइयां ) जेनेटिक लोअदिंग (लोडिंग )तय करती है यौन व्यवहार .ट्रांस जेंडर , होमोसेक्सुअल व्यवहार आदमी के बस मैं नहीं होता है ,खानदानी वजह है इसकी ,सामाजिक लेंगिक दाय नहीं है ये .अपराध है यौन शोषण (वयस्क और अवयस्क किस्म का ,दोनों )अपराध है बाल यौन प्रेम और इसका दृश्य रातिक होना व्यावारिस्म .बाल यौन शोषण ,जबरी लोंदेbआजी को इससे कंफुज़ ना करें .सम्लेंगिकता के एक अबोध अल्प दौर से हम मैं से कितने ही गुजरें हैं ,उनमें मैं भी हो सकता हूँ .वयस्क होने पर ,समझ आने पर अपनी सेक्सुअलिटी सबको समझ आ जाती है .सम्लेंगिक व्यवहार एक कौतुक से लेकर प्रेफेरेंस तक कुछ भी किसी का भी हो सकता है .इसमें अजूबा क्या है .सेल्फ डिनायल मोड़ मैं ,नकार मैं कब तक रहिएगा .सब का अपना सेक्स व्यवहार ,सेक्स अनुकूलन हैं .ये समझने तस्दीक करने की चीज़ है ,नकारने की नहीं ,किसे धोखा दे सकतें है आप .ये सम्लेंगिकता बीमारी या विकृति नहीं है ,चयन है ,व्यवहार है जन्मजात .फतवा क्या करेगा इसमें ,उस समाज मैं जिसमे लोंदे बाज़ शब्द बाहरी नहीं है ,देशज है ,इसी ज़मीं की उपज है .नवाबों के किस्से किसने नहीं सुने ?
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2 टिप्पणियां:
भारतीय दंड संहिता में जब धारा तीन सौर सतहत्तर को शामिल किया गया तो जाहिर है की उस समय के परिवेश को ..और समाज को देखते हुए ही किया गया था..आज बहुत कुछ sachmuch ही बदल रहा है..अच्छा या बुरा..इस पर तो बहस जारी है..मैं अपने कार्यालीय अनुभव के आधार पर कुछ बातें कहना चाहता हूँ...अदालतों में धारा ३७७ के अर्न्तगत दर्ज कुल मुकदमों में से ८० प्रतिशत में नाबालिग़ मुजरिम होते हैं ,,,,,जिन पर बाल न्यायालय में मुकदमा चल रहा होता है..अन्य बीस प्रतिशत ही वयस्क होते हैं वो भी सिर्फ पुरुष....मैंने अभी तक एक भी महिला पर इस धारा के तहत मुकदमा दर्ज होते नहीं देखा...ऐसा मेरा अपना अनुभव है....तो जाहिर है की ..हो तो वो सब रहा ही है...हाँ jahaan तक उसे अधिकार के रूप में मान्यता की बात है..तो उस सन्दर्भ में भी बहस बहुत लम्बी हो जायेगी..क्या इससे जरूरी ये नहीं है की मर्सी किल्लिंग को मान्यता दी जाए..मगर भारत में यदि इस जरूरी कानून को भी मान्यता मिलने में न्यायपालिका तक असहमति दिखा रही हैं तो उसकी वजह है इसके दुरूपयोग की आशंका..आपने खुद माना है की जहां से इस व्यवस्था का आयात होना फिलहाल माना जा रहा है..जबकि असलीयत में भारतीय इतिहास में भी इसके कुछ निशाँ तो हैं ही....यदि उनका अनुकरण करने लगे तो ..एक शोध के अनुसार आज जिस ऐड्स नामक लाईलाज बीमारी से लोग लड़ रहे हैं..उसका उद्गम किसी पशु के साथ इंसानी यौन संसर्ग के कारण बताया गया..कहने की जरूरत नहीं की ..इस तरह के प्रयोग कहाँ किये जा सकते हैं..
देखिये बात ये नहीं है की सही है या गलत ..क्यूंकि इतना तो तय है की बहुत बड़ा यानि बहु मत मानता है निर्विवाद नहीं है..तो फिर अधिकार के रूप में क्यूँ....यदि समाज इसी तरह परिवर्तित करता रहा खुद को ..जैसा अभी कर रहा है..तो ये तो स्वमेव ही हो जाएगा..मगर अभी वक्त नहीं आया है..ऐसा मुझे लगता है..आज भी देश की अआधी जनता इन महानगरों से दूर रहती है...और वहाँ तक ये बातें अभी ...युगों दूर हैं...
कल ऐसे ही आलेख पर ये टिप्प्न्नी की थी ...मुझे लगा यहाँ भी सार्थक हो...
अजय जी से सहमत।
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