सोमवार, 1 जून 2009

ओ शहरे अलेक्सेन्ड्रिया .


जैसे जैसे शाम उतरती है ,इस प्राचीन शहर का गौरव ,परम्परागत जीवन मुखरित होने लगता है ,बस आप झील के किनारे ,नदी तीरे आजाइए फ़िर देखिये इस प्राचीन शहर की अंगडाई .शाम को अभी शबाव पर आने को वक्त था ,लेकिन गवैयों की टोली अधीर थी ,शिकारों से (मोटर बोटस) से ऑर्केस्ट्रा मुखरित होंने लगा था .किनारे पर वां इन ग्लास जलतरंग पर वो बुजुर्ग रुक रुक कर स्वर लहरियां बिखेर रहाथा .ओ अधेड़ भी बच्चों को झुनझुने बांटने लगा था ,यही रह चलते बच्चे उसके ऑर्केस्ट्रा का हिस्सा थे .धीरे धीरे उसका स्वर आरोही होने लगा .ड्रम और माउथओरगन की जुगलबंदी वो अकेला ही कर रहा था ,साथ मैं गा भी तो रहा था .उसकी आवाज़ मैं एक आवाहन था ,जो बच्चों को मस्ती के सागर मैं उडेल रहा था ,बच्चे स्वर ताल मैं झुन्जुने बजा रहे थे ,थिरक भी रहे थे ,ऐसा था उसका जादू .गुब्बारे वाले का अपना अलग सम्मोहन था ,वो तरह तरह की आकृतियों मेंगुब्बारे प्रस्तुत कर रहा था .उसकी आवाज़ में एक जादू था जो बच्चों को बाँध रहा था .दानपत्र उसके आगे रखा था :लिखा था ,माई लिविंग ,आपकी मर्जी जो डालें उस दान पात्र में .शहर की परिक्रमा काराने को फ्री -बस थी ,जोय राइड ,ड्राइवर तःजिबे याफ्ता.मेट्रो रेल थी ,टोलियाँ थी ,पॉप गायकों की ,फुटपाथ पर यहाँ वहाँ .और एक ज़िंदा शहर अपनी पुरी शान और बाण के साथ इठला रहा था ,गुन गुना ,गा रहा था ,में भी तो गूम सूम था :प्यार घड़ी भर का ही बहुत है ,सच्चा झूठा मत सोचा कर ,.......

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