'कौम ,धर्म ,मज़हबी फ़साने ,इंसानों के बैर बहाने
जातपात से उपजे निसिदिन ,भेदभाव के ठौर ठिकाने '-
आमंत्रित कविता -
कमांडर निशांत शर्मा
(१ )
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो ,
इसका ,उसका ,तेरा ,मेरा बाँट दिया जग टुकड़ा टुकड़ा।
देश में एका कर दो मेरे ,प्यार हो मज़हब ,स्नेह जात हो।
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(२ )
जागा रहा मैं तन्हा -तन्हा ,कश्मकश में सदियाँ ,सदियाँ
मूंदू आंखें पलभर अब मैं ,इस सुबहो की नै रात हो ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(३ )
भाग रहा मैं ,भाग रहे तुम ,अपनों की इस भीड़भाड़ में ,
रोकूँ अजनबी अनजाने को ,प्यार की एक नै शुरुआत हो ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(४)
यूँ गैरों के अक्श में अक्सर ,ढूंढा किया हूँ चेहरा अपना ,
हुआ मुखातिब कोई न बरसों ,खुद की खुद से मुलाक़ात हो ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(५ )
वो नहीं आता, मैं नहीं जाता ,बंद है कब से आना जाना,
गज भर के घर ,बड़े शहर हैं ,मीलों फासलों का है फ़साना ,
दूर हो दूरी आज दरमियाँ ,दिलों में अब न एहतियात हो।
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(६ )
कौम ,धर्म ,मज़हबी फ़साने ,इंसानों के वैर बहाने ,
जात पात से उपजे निसिदिन ,भेदभाव के ठौर ठिकाने ,
इस दुनिया में हम तुम आओ ,जीने के दस्तूर बदलें ,
हुए रूहानी एक दूजे से ,नए नवेले ताल्लुकात हों ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
जयश्रीकृष्ण !
जातपात से उपजे निसिदिन ,भेदभाव के ठौर ठिकाने '-
आमंत्रित कविता -
कमांडर निशांत शर्मा
(१ )
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो ,
इसका ,उसका ,तेरा ,मेरा बाँट दिया जग टुकड़ा टुकड़ा।
देश में एका कर दो मेरे ,प्यार हो मज़हब ,स्नेह जात हो।
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(२ )
जागा रहा मैं तन्हा -तन्हा ,कश्मकश में सदियाँ ,सदियाँ
मूंदू आंखें पलभर अब मैं ,इस सुबहो की नै रात हो ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(३ )
भाग रहा मैं ,भाग रहे तुम ,अपनों की इस भीड़भाड़ में ,
रोकूँ अजनबी अनजाने को ,प्यार की एक नै शुरुआत हो ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(४)
यूँ गैरों के अक्श में अक्सर ,ढूंढा किया हूँ चेहरा अपना ,
हुआ मुखातिब कोई न बरसों ,खुद की खुद से मुलाक़ात हो ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(५ )
वो नहीं आता, मैं नहीं जाता ,बंद है कब से आना जाना,
गज भर के घर ,बड़े शहर हैं ,मीलों फासलों का है फ़साना ,
दूर हो दूरी आज दरमियाँ ,दिलों में अब न एहतियात हो।
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
(६ )
कौम ,धर्म ,मज़हबी फ़साने ,इंसानों के वैर बहाने ,
जात पात से उपजे निसिदिन ,भेदभाव के ठौर ठिकाने ,
इस दुनिया में हम तुम आओ ,जीने के दस्तूर बदलें ,
हुए रूहानी एक दूजे से ,नए नवेले ताल्लुकात हों ,
नए साल की नवसंभावना ,नए दौर की नै बात हो।
जयश्रीकृष्ण !
2 टिप्पणियां:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
सार्थक सुन्दर और आशा की किरण लिए हैं पंक्तियाँ ...
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