सोमवार, 10 नवंबर 2014

श्रुति और दृष्टि से हमारा मन बनता है। मन से जब वाक (वाणी )मिल जाती है तो चेतना भी इसमें आ जुड़ती है

Maya Mari Na Man Mara, Mar Mar Gaye Shareer

Asha Trishna Na Mari, Keh Gaye Das Kabir




माया मरी न मन मरा , मर -मर गए शरीर ,

आशा तृष्णा न मरी ,कह गए दास कबीर।



श्रुति और दृष्टि  से हमारा मन बनता है। मन से जब वाक (वाणी )मिल जाती है तो चेतना भी इसमें आ जुड़ती है।श्रुति

और दृष्टि जिसके पास नहीं हो तो उसकी बुद्धि का विकास नहीं होता।

माया और मन दोनों की साधना करनी होगी। एक को साधे कुछ नहीं होगा। क्योंकि माया मन को आकर्षित करती है

और मन माया से आबद्ध हो जाता है।

 माया का

क्षेत्र बाहर की ओर  है आभासी जगत की जगत की ओर  है और मन का अंदर की ओर । लेकिन मन जब बाहर की

ओर  देखता है माया को भीतर ले आता है।

माया से विमोहित हो जाता है।

माया अनादि है। जो है नहीं लेकिन जिसके होने की प्रतीति होती है वह माया है।

To know that which is not there is Maya ,an optical illusion 


a mirage in simplistic terms .

हमारा मरना जीना देह के स्तर पर होता है इसीलिए देह मरती रहती है हम आते जाते रहते हैं। लेकिन

वासनाओं की पूर्ती कभी नहीं होती। वासनाओं  की पूर्ती के लिए ही हम दोबारा आते हैं। परमात्मा बार बार मौक़ा

देता है इस देहात्मक बुद्धि से ऊपर उठो। मन को अमन


करो।

जब परमात्मा से लगेगा तो मन अमन हो जाएगा। जन्म जन्मानतरों के कर्म बंधन ,संचित- कर्म नष्ट हो

जाएंगे । प्रारब्ध को भुगतकर व्यक्ति मुक्त हो सकता है।  इसीलिए कृष्ण गीता में कहते हैं -हे अर्जुन तुम

अपना

मन और बुद्धि सिर्फ मेरे में लगाओ। एक मेरा ही ध्यान करो और अपना कर्तव्य कर्म करो।


Neither illusion nor the mind, only bodies attained death


Hope and delusion did not die, so Kabir said.


To understand this doha(Sakhi ) correctly, one must understand first the word 'Maya'. This word is

like an

unsolved riddle and hard to translate. For want of a proper word, it is loosely translated as illusion. In

its depths, 'Maya' perhaps means, Nature on the go...ever changing...hence an illusion.

In this doha, Kabir says while the physical body that is born, lives and eventually dies, the world of

Maya goes on as does the Mind (that intelligent governing Self). Hope and the deceptive greed or

delusion does not die either. Even in his death bed, one continues to cling with the perishable - the

body, with one's aspirations, desires - and the cravings, the urges, the yearnings (trishna) dies not. In


fact, the play of the world "leela" goes on because of this.


Maya, maha thagini hum jaani...

Bhagatan key bhaktini hoyey baithi, Brammah key brammbhani, Kahat Kabir suno ho santo, Yeh sab akath kahani, Maya, yeh sab ...

5 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

गहरा जीवन दर्शन मन वाणी और चेतना का संयोजन ...

Anita ने कहा…

जो नहीं है उसमें ही मन अटका है तो जो है उसे कैसे देखे...सार्थक पोस्ट !

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सारगर्भित आलेख...

Unknown ने कहा…

ध्यान सिर्फ मेरे मे लागाओ अर्थात प्रेक्टिकल प्रेक्टिस इन प्रेजेंटेशन इस करत करत अभ्यास: जड मति होत सुझांन। प्रेक्टिस एन्ड प्रेक्टिस मेक यु सक्सेस वनडे। ध्यान मेरे मे लगाओ अर्थात सांस को रोकने का अभ्यास से मन पर काबु पाना। सांस रोककर कुंभक के अभ्यास से सांसों मे घुल मिल गये अपने स्वयं चेतन का ज्ञान पाकर अर्थात अनुभव करके मैं चेतना की अनुभूतिको अलग कर मस्तिष्क के सबसे उपले छोर पर आकाश तत्व मे ध्यान लगाए रखना और अपने जीव को जहां ईश्वर समर्पण की स्थिति है वहां समर्पित कर देना।ईश्वर समर्पण अर्थात आपके जड शरीर की नश नश में संपूर्ण प्राणों का संचार करते रहना हर वक्त हर पल हर घडी। प्राण अर्थात अन्न पर सांसे टकराव से निकल ते है वह है। पर अन्न तो ना ना प्रकार के होते है वह सदा प्राण ही बनाएंगे हमारी सांसे टकराव से यह निश्चित नहीं हो सकता। कभी दश प्रकार की वायु बनाते है। प्राण, अपान, उडान, व्यान समान, जलंधर वायु भी और इत्यादि इत्यादि। पर हमे प्राणों पर टीके रहने को सीखना है। इस अन्न से तीन प्रकार के गुण भी बनते है पर हमे तो जो अन्न सत्वगुण अर्थात प्राण बनाने में सहायक हो उसे ही ग्रहण करने को सीखते रहना है जीससे संयम नियम बना रहे जो धैर्यवान का गुण है। इसी तरह हमारी प्रकृति सीख लेगी प्राण वायु की वास्तविक अवस्था में रहना और इसे ही कहते है आशा एक रामजी की दूजी आशा छोड दे नाता एक राम जी से दुजा नाता तोड दे। साधु संग राम रंग अंग अंग अंग रंगीएं। काम रस त्याग प्यारे राम रस पीजिए। पर इस अवधि वाले नश्वर देह से भी मुक्ति का मार्ग ढुंढना हो तो यह सांस से बनता जीवन और प्राणों से बनते कार्य दोनों को साक्षी बनकर देखना सीख लेना होगा, क्योंकि यह ईश्वर अंश जीव अविनाशी के मनुष्य जीवन और प्राण दोनों ही मनुष्य जीवन के अंत में मनुष्य को धोखा देते है और फिर जीव बेचारा ईश्वर मे समर्पित नहीं हूवा तो... फिर से वही सीखना पडेगा जो पहले अभ्यास करना सीखें थे.... क्योंकि श्रीमद्भगवद्गीता मे लीखा है, हे पार्थ ! मन बडा ही चंचल है पर फिर भी ऐसे संतो के पास जाकर मन को स्थिर करने की कला यां अभ्यास सीख लेना जीस से अभ्यासों ज्ञान लभते। पीछली सांख (अर्थात शौच मार्ग को साफ रखना) भरु संतन कि अडे संवारे (अर्थात नाक के दोनों नथुनों से बहती सांसों जो सरस्वती नाडी खोलकर कुंडलिनी शक्ति जागरण करने में सहायक है उसे अटकाती है उसको दुर करते हुए) काम। धन्यवाद

Unknown ने कहा…

आप पहले से ही प्रबुद्ध हैं, केवल यह नाटक करते हुए कि आप नहीं हैं
You are already enlightened,
only pretending that you are not