जिसके हर लफ्ज़ से ख़ुश्बू आये ,
बोले वो शख्स जिसे उर्दू आये।
यूं ग़ज़ल खुद बोलती है सर चढ़के ,किसी समीक्षा समालोचना की मोहताज़ नहीं होती।अनिश्चय के उस मायावी भंवर में जहां रिश्ते एक दुश्चिंता ग्रस्त हो गए हैं -कहीं मुझे कोरोना न हो जाए। श्रद्धा निकुंज साहब की यह ग़ज़ल हमारे अंदर पसरी फैली अनहोनी की गंध को खोलके फैला देती है।
मानसिक कुहांसा मेरा आपका हम सबका रूपायित है इस ग़ज़ल में जो खूब कही गई है साफ़ लफ़्ज़ों में दो टूक ,भाव -सम्प्रेषण बहती नदिया की वेगवती धारा सा है यहां।गज़लगो को हमारी सौगात इस दौर में यही है -दो गज़ दूरी फासला ज़रूरी। गज़ को यहां गज (गजराज )समझे -दो हाथी के फासले पे रहिये बचे रहिये तीसरी लहर से। आप पे मुझ पे निर्भर है उसका आना न आना।सावधानी बरतिए अवसाद को ग़ज़ल में ढ़ालिये।
क़हर -ग़ज़ल गो (ग़ज़लकार )डॉ.श्रद्धा निकुंज भारद्वाज ' अश्क़ '
(१ )
क्या ज़ुल्म क्या क़हर है ,
वीरान सा शहर है।
(२ )
गलियों में रोज़ मातम ,
सहमी सी हर नज़र है।
(३ )
जैसे उधार मांगी ,
ये ज़िंदगी बसर है।
(४ )
छूना नहीं किसी को ,
ज्यूँ आदमी ज़हर है।
(५ )
क्या है दवा दुआ भी ,
हर चीज़ बे - असर है।
(६ )
कितनी तवील है शब ,
खोई कहाँ सहर है।
(७ )
कब कौन छोड़ चल दे ,
ये फ़िक्र हर पहर है।
(८ )
इक तीरगी है हर सू ,
धुंधली सी रहगुज़र है।
(९ )
हर ख़ास -ओ -आम देखो ,
बे -चैन किस क़दर है।
(१० )
कैसे कटे ये रस्ता ,
रहबर न हमसफ़र है।
(११)
अब 'अश्क़ 'क्या बचा है ,
बस आस पे गुज़र है।
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