दैहिक आकर्षण चार दिन का खेल है।प्रेम का सम्बन्ध आत्मा से है हृदय से है जहां आत्मानंद का वास है।शरीर तो जाएगा
ही जाएगा :
कबीरा इहु तन जाइगा सकहु ते लेहु बहोरि ,
नांगे पावहु ते गए जिन के लाख करोरि।
ये शरीर ही माया है परिवर्तनशील है।नश्वर है ,इसे किसी न किसी राह लगाओ ,चाहे साधू जन की संगति ,या प्रभु का नाम जपो।किसी काष्ठ माला या सिमरनि के सहारे नहीं तश्बीह की मार्फ़त नहीं ,ये रसना ही कबीर की सिमरनि है बाहरी आडंबर नहीं :
कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु ,
आदि जुगादि सगल भगत ताको सुख बिस्रामु।
---------(आदि श्री गुरुग्रंथ साहब ,सलोक कबीर भगत जीउ के ,सलोक संख्या (०१ )
एक दिन ऐसा होयेगा ,जब कोई काहू का नाहि ,
घर की नारी क्या कहे ,तन की नारी जाहि।
भगवान् से सशर्त प्रेम मत करो। तू मेरा ये कर देगा तो मैं तेरा वो कर दूंगा। कई तो भगवान् ही होकर बैठ जाते हैं।जिस दिन व्यक्ति का विवेक जाग जाता है उस दिन उसे होश आती है , आगे मेरा क्या होगा:
अमरापुर ते आया बन्दे, अमरापुर को जाना है ,
कहत कबीर सुनो भइ साधौ ,ऐसी लगन लगाना है।
बाबुल के घर में हमारा मान नहीं है,
पीया (पिया )के घर ही जाना है,
जहां से हम आये हैं बन्दे ,वहीँ तो वापस जाना है।
गुरु को सिर पर राखिये चलिए आज्ञा माहिं ।
कहे कबीर ता जीव को तीन लोक भय नाहिं ।
गुरु की शिक्षाओं को आज्ञाधारी करना है। तभी यह माना जाएगा 'किसका नाम कबीर 'मुझे मालूम है -मैं अपने गुरु की आज्ञा पर जीवन के अंतिम सांस तक चलता रहूँगा। चलता रहूँगा।
विशेष :कबीर मध्यकाल (मध्यकालीन भारत )के संत आंदोलन के विद्रोही स्वर का नाम है जो अपनी बात का एलान करता है :
कबीरा खड़ा सराय में सबकी चाहे खैर ,
न काहू से दोस्ती न काहू से वैर।
कबीर दोनों पंथों के आडंबर पर सीधा प्रहार करते हैं कोई लाग लपेट नहीं :
कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ। सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किंहीं फरमाई गाइ।
कबीर हज काबै होइ होइ गइआ केती बार कबीर। सांई मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर।
कबीर वैष्ण परम्परा के संत रामानंद जी के शिष्य थे ब्रह्म ग्यानी थे इसलिए राम रहीम करीम शब्द इनके शब्द ,साखी रमैनियों में बार बार आया है लेकिन सीमित दैहिक पैगंबरी अर्थों में नहीं। सर्व- व्यापक तत्व के रूप में कबीर का रामत्व है तथा वैष्णव जन तो तैने कहिये पीर पराई जाने जो -जन मन की सेवा में ,सब में एक ही आत्मा (परमात्मा )देखना ,प्राणी मात्र की सेवा करना उनका सगुन ब्रह्म स्वरूप है।
इसीलिए वे बे -बाकी से कहते हैं मैं काबे कई मर्तबा गया एक मर्तबा तो खुदा अल्लाह ताला मुझसे लड़ ही पड़ा यह कहते हुए तुझे किसने कह दिया मैं सिर्फ काबे में हूँ अन्यत्र नहीं। कबीर बार बार काबे गया इसी प्रत्याशा में के एक दिन उसका साहब(साहिब ) उसका स्वामी,उसका मालिक उससे ज़रूर बात करेगा ,उसके हाल चाल पूछेगा लेकिन शायद मालिक मुझसे खफा है। उसने मुझसे कभी बात ही नहीं की।
कबीर व्यंजना में अपनी बात कहते हैं एक आध्यात्मिक रूपक है उनकी तमाम उलट वासियों में किसी एक का सही सही अनुवाद करने बूझकर समझाने पर आपको पीएचडी की उपाधि आज भी मिल जाती है। अनेक विश्विद्यालयों में 'कबीर पीठ 'का होना आकस्मिक नहीं है। कबीर सबके हैं। सबके समान रूप से गुरु हैं।
(संपन्न )
ही जाएगा :
कबीरा इहु तन जाइगा सकहु ते लेहु बहोरि ,
नांगे पावहु ते गए जिन के लाख करोरि।
ये शरीर ही माया है परिवर्तनशील है।नश्वर है ,इसे किसी न किसी राह लगाओ ,चाहे साधू जन की संगति ,या प्रभु का नाम जपो।किसी काष्ठ माला या सिमरनि के सहारे नहीं तश्बीह की मार्फ़त नहीं ,ये रसना ही कबीर की सिमरनि है बाहरी आडंबर नहीं :
कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु ,
आदि जुगादि सगल भगत ताको सुख बिस्रामु।
---------(आदि श्री गुरुग्रंथ साहब ,सलोक कबीर भगत जीउ के ,सलोक संख्या (०१ )
एक दिन ऐसा होयेगा ,जब कोई काहू का नाहि ,
घर की नारी क्या कहे ,तन की नारी जाहि।
भगवान् से सशर्त प्रेम मत करो। तू मेरा ये कर देगा तो मैं तेरा वो कर दूंगा। कई तो भगवान् ही होकर बैठ जाते हैं।जिस दिन व्यक्ति का विवेक जाग जाता है उस दिन उसे होश आती है , आगे मेरा क्या होगा:
अमरापुर ते आया बन्दे, अमरापुर को जाना है ,
कहत कबीर सुनो भइ साधौ ,ऐसी लगन लगाना है।
बाबुल के घर में हमारा मान नहीं है,
पीया (पिया )के घर ही जाना है,
जहां से हम आये हैं बन्दे ,वहीँ तो वापस जाना है।
गुरु को सिर पर राखिये चलिए आज्ञा माहिं ।
कहे कबीर ता जीव को तीन लोक भय नाहिं ।
गुरु की शिक्षाओं को आज्ञाधारी करना है। तभी यह माना जाएगा 'किसका नाम कबीर 'मुझे मालूम है -मैं अपने गुरु की आज्ञा पर जीवन के अंतिम सांस तक चलता रहूँगा। चलता रहूँगा।
विशेष :कबीर मध्यकाल (मध्यकालीन भारत )के संत आंदोलन के विद्रोही स्वर का नाम है जो अपनी बात का एलान करता है :
कबीरा खड़ा सराय में सबकी चाहे खैर ,
न काहू से दोस्ती न काहू से वैर।
कबीर दोनों पंथों के आडंबर पर सीधा प्रहार करते हैं कोई लाग लपेट नहीं :
कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ। सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किंहीं फरमाई गाइ।
कबीर हज काबै होइ होइ गइआ केती बार कबीर। सांई मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर।
कबीर वैष्ण परम्परा के संत रामानंद जी के शिष्य थे ब्रह्म ग्यानी थे इसलिए राम रहीम करीम शब्द इनके शब्द ,साखी रमैनियों में बार बार आया है लेकिन सीमित दैहिक पैगंबरी अर्थों में नहीं। सर्व- व्यापक तत्व के रूप में कबीर का रामत्व है तथा वैष्णव जन तो तैने कहिये पीर पराई जाने जो -जन मन की सेवा में ,सब में एक ही आत्मा (परमात्मा )देखना ,प्राणी मात्र की सेवा करना उनका सगुन ब्रह्म स्वरूप है।
इसीलिए वे बे -बाकी से कहते हैं मैं काबे कई मर्तबा गया एक मर्तबा तो खुदा अल्लाह ताला मुझसे लड़ ही पड़ा यह कहते हुए तुझे किसने कह दिया मैं सिर्फ काबे में हूँ अन्यत्र नहीं। कबीर बार बार काबे गया इसी प्रत्याशा में के एक दिन उसका साहब(साहिब ) उसका स्वामी,उसका मालिक उससे ज़रूर बात करेगा ,उसके हाल चाल पूछेगा लेकिन शायद मालिक मुझसे खफा है। उसने मुझसे कभी बात ही नहीं की।
कबीर व्यंजना में अपनी बात कहते हैं एक आध्यात्मिक रूपक है उनकी तमाम उलट वासियों में किसी एक का सही सही अनुवाद करने बूझकर समझाने पर आपको पीएचडी की उपाधि आज भी मिल जाती है। अनेक विश्विद्यालयों में 'कबीर पीठ 'का होना आकस्मिक नहीं है। कबीर सबके हैं। सबके समान रूप से गुरु हैं।
(संपन्न )
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