प्रथम सृष्टि में किसका प्रादुर्भाव हुआ। जिसने बनाया कहाँ बैठ के बनाया -कबीर पूछते हैं ,जो स्वयं जगत को नित्य मानते हैं।
दुनिया नहीं थी तब एक भगवान् था इस पर कबीर कहते हैं ऐसा देखने वाला किस मकान में था। दुनिया कब नहीं थी ?सृष्टि होती क्या है ,पहले यह सोच लेना है। रचना द्रव्य में होती है ,और द्रव्य स्वयं होता है।
'न्याय -वैशेषिक 'और 'सांख्य' दोनों जड़ ,चेतन को नित्य मानते हैं।और इसी प्रकार पदार्थ विज्ञानी भी पदार्थों को नित्य मानते हैं। और वास्तविकता यही है। जो सत्ता हमारे सामने है , मिट्टी ,पानी, आग, हवा सब ,हाइड्रोजन , फ़ास्फ़रोस ,रेडियम इत्यादिक वो द्रव्य का समूह संसार सामने है। और उनमें गति है द्रव्य में गति स्वत : निहित है। स्वभाव सिद्ध निहित है। द्रव्य नित्य तो गति नित्य। और द्रव्य गति से जगत का प्रवाह नित्य। तो उसमें शुरू क्या हुआ ?
विज्ञानी मानते हैं ,ईथर नाम का एक सूक्ष्म द्रव्य था। तो उसमें कभी क्रिया हुई तो सृष्टि बनी अरबों वर्ष पूर्व। तो उसके पहले क्यों क्रिया नहीं हुई ?ईथर में क्रिया स्वभाव गत है या बाहर से प्रक्षेपित ,प्रक्षिप्त ?अगर बाहर से क्रिया डाली है तो किसने डाली। अमुक समय ही डाली फिर नहीं डाली। और अगर ईथर में स्वभावगत ही क्रिया है तो सब समय होनी चाहिए किसी ख़ास समय नहीं।इसीलिए ये न समीक्षा करने से ऐसी -ऐसी बातें उदय होतीं हैं।
भौतिक द्रव्य नित्य है।और भौतिक द्रव्य में उसकी गति नित्य है। इसलिए ये जगत का प्रवाह नित्य है। ये जगत कहीं से आरम्भ नहीं हुआ है और कहीं इसका अंत नहीं हो जाएगा। ऐसे ही चला है सदा बीज -वृक्ष ,मुर्गी -अंडा ,कर्म -देह ,इसका प्रवाह सदा हैं।
इसलिए कबीर प्रश्न करते हैं बताओ पहले क्या हुआ सृष्टि में ?और दूसरी बात ये बताओ ,किस स्थान पर बैठकर और किसने जगत बनाया ?
कबीर ने अनेक बातें पूर्व पक्ष की कहीं और कहके फिर उनकी समीक्षा की।और अन्य शास्त्रों में भी ये बातें आती हैं ,पूर्व पक्ष ,उत्तर पक्ष।
लोग ये मानते हैं ,ब्रह्मा ,विष्णु ,शंकर किसी आद्या माया (आद्या शक्ति )से पैदा हुए, किसी नारी से पैदा हुए।प्रथम जीव ने अपनी उक्ति से भक्ति की। उक्ति कहते हैं कहा हुआ। लेकिन यहां उक्ति का अर्थ है अंदाज़ ,अनुमान ,कयास, कल्पना ,तरकीब ,तज़वीज़।
जीव ने रूप गढ़ा देवताओं का और गढ़ के उसने भक्ति की। जीव अपने स्वरूप को न समझ कर बाहर कल्पना करता है। वेदों में सारे देवी -देवताओं की कल्पना इसीलिए हैं।
ऋषियों के मस्तिष्क देवताओं की सृष्टि करने के लिए अजीब कारखाने थे -सर्व -पल्ली राधाकृष्णन ।
यानी वैदिक ऋषियों ने कल्पना से अनेक देवी -देवताओं की सृष्टि की , फिर अंत में इन सबको मिलाकर एक ब्रह्म स्थापित किया। लेकिन ये सब कल्पना करने वाला कौन है ?जीव ?जीव ही स्थापन करता है और स्थापन करने वाला जीव स्थापित चीज़ में भूल जाता है अपने आप को।अपनी तरफ नहीं लौटता है।
उसके बाद पवन ,पानी ,हवा और छाया बने ऐसी कल्पना की गई। अमर कोष में छाया अग्नि को कहा गया है।और बहुत विस्तार से माया प्रकट हुई।
प्रगटे अंड पिंड ब्रह्मंडा ,पृथ्वी प्रगट भई नौखण्डा।
प्रगटे सिद्ध साधक सन्यासी। ई सब लाग रहे अबिनाशी।
जो साधना में चल रहा हो उसे साधक कहते हैं सिद्ध कहते हैं जो परिपक्व हो गया हो। सन्यासी का अर्थ है सर्वथा त्यागी।
ये सब अविनाशी के भजन में लगे रहे।
यहां कबीर कटाक्ष करते हैं अविनाशी परमात्मा को जीव से अलग कहीं और मानकर लगे रहे लोग उसके भजन में।
प्रगटे सुर, नर ,मुनि झारी , ते के खोज परे सब हारी।
झारी माने निखालिश शुद्ध (खालसा )
भाव अर्थ यह है ,उस अविनाशी परमात्मा के खोज में सब हार थक के बैठ गए।
खोज करके बाहर की चीज़ वह मिलती है जो इन्द्रिय बोध में आये। आँख से देखने में आये ,कान से सुन ने में आये ,नाक से सूंघने में आये। चाम(चमड़ी , त्वक ,त्वचा ) से छूने में आये।जीभ (रसना )से चखने में आये। तो ऐसी चीज़ मिल सकती है और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के बोध में न आये और मन में भी न आये तो कैसे मिलेगा।
उपनिषद में भी आया है :जिसका मत है उसका विमत है। जो यह कहता है मैं ब्रह्म को नहीं जानता हूँ वह जानता है और जो ये कहता है मैं ब्रह्म को जानता हूँ वह जानता ही नहीं है। क्योंकि ब्रह्म जाना नहीं जा सकता है वह इन्द्रिय मन वाणी से परे है। जब परे है तो उसको जाना ही नहीं जा सकता है।
जहां इतनी निराशा है ,जाना ही नहीं जा सकता है कबीर कहते हैं जीव का उसके पीछे पड़ना एक सनक के सिवाय क्या है ?
अब लौट करके देखा जाए तो अपना (जीव का )स्वरूप भी इन पाँचों ज्ञानेन्द्रिय और मन से परे है।यानी जो जीव है जो आत्मा है वह पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और मन से परे हैं। लेकिन वह आत्मा इन छहों से काम लेता है इन को प्रेरता है। प्रेरक है। ये आत्मा स्वयं तुम ही हो। इसमें दोष नहीं। इसको पाना कहाँ है यह तो तुम ही हो।
यह जीव अपनी इन्द्रियों और मन द्वारा बाहर फ़ैल -फ़ैल कर भटक गया है। इसे बस लौट आना है।अब इसका काम यही है ,पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से जो दृश्य मान है उसका मोह छोड़े। मन से जितनी मान्यताएं हैं उनका मोह छोड़े।
प्रकृति ने इन्द्रियों को बहिर्मुख बनाया है। इसलिए हम बाहर देखते हैं अंतरात्मा को नहीं देखते। कोई विवेकवान पुरुष अपनी इन्द्रियों को समेटकर अपनी अंतरात्मा को देखता है (बोले तो अनुभव करता है ,अंतर्बोध से ),और वह अमरता पाता है।
लौटें बाहर से तो स्वयं स्वरूप हैं पाना कुछ नहीं है। इसलिए कबीर ये व्यंग्य कर देते हैं :
खोज परे सब हारी
उसकी खोज में सब हार थक के बैठ गए हैं। मुसलमान कहते हैं वह बे -चून ,बे -नमून है। हिन्दु कहते हैं निराकार है।मन वाणी से परे है। अनिर्वचनीय है। ब्रह्म वादियों ने तो माया को भी अनिर्वचनीय कहा और ब्रह्म को भी अनिर्वचनीय कहा। ब्रह्म और माया दोनों का निर्वचन नहीं हो सकता है कहा नहीं जा सकता है।
मन बुद्ध वाणी परे बतावें ,पुनि ते दर्शन को ललचावें।
पारखी संतों ने कहा जब मन वाणी से परे है तो क्या उसका दर्शन पाओगे उसकी प्राप्ति के चक्कर में क्यों पड़े हो क्यों अपने में नहीं लौटते हो । तुम अपने आप को शुद्ध करो।
जीव शिव सब प्रगटे ,वह ठाकुर सब दास
वह ठाकुर बन गए जिसकी कल्पना हुई और जीव दास बन गया जिसने कल्पना की। यानी घड़ा कुम्हार से बड़ा बन गया। कितनी दयनीय दशा है ज्ञान की। हमारे उपनिषद के ऋषि ऐसे नहीं थे उपनिषद के ऋषि ज्ञान की चर्चा करते थे। शास्त्रों के ऋषि भी ऐसा नहीं करते थे।किसी मूर्ती के आगे नाक नहीं रगड़ते थे।
ये तो बीच में बड़ी गड़बड़ी आई।
वे(ऋषि मुनि ) भी ज्ञान की चर्चा करते थे। ये शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है। जीव से ही शिव प्रगटे। वह ठाकुर बन गए और जीव दास बन गया।
हम ने ही मूर्ती बनाई और हम ही उसके आगे नाक रगड़ते हैं उस से मोक्ष मांगते हैं।कैसी विडंबना है।दो हज़ार बरसों से भारत में ज्ञान का इतना पतन हुआ है उपनिषदों को पढ़िए। आप उपनिषद सौरभ पढ़िये जिसमें ग्यारह उपनिषद रखके बता दिया गया है ,जिसने समझ लिया ये आत्मा ही पुरुष है। (इस शरीर रूप पुर का वासी है ). ये आत्मा यही परमतत्व है। जिसने यह जान लिया वह शरीर के अहंकार को चढ़ाकर बाहर क्यों भटकेगा। तो आत्मा पर बारम्बार जोर है।
वृहद् आरण्यक उपनिषद में तो यह लिखा है ,जो यह मानता है देव अलग है और मैं अलग हूँ वह देवताओं का पशु है। वैसे देवता नहीं चाहते हैं ,यह मनुष्य समझ ले ,मैं ही ब्रह्म हूँ। ऋषि वामदेव ने कहा मैं ही ब्रह्म हूँ और वह मुक्त हो गए। तो ब्रह्म श्रेष्ठ को कहते जो रामत्व है शिवत्व है परमतत्व है वह मैं (जीव ) ही हूँ। जो ईश्वरत्व है वह तुम्हारे अपने अंदर में ही चरितार्थ होगा। रोने गिड़गिड़ाने से कहीं कुछ मिलने वाला नहीं। इसलिए न तो भोग की इच्छा करो न देवी देवताओं की इच्छा करो। सत कर्तव्य करो तुम्हारे अपने शुभ कर्मों से तुम्हारा कल्याण है। जीवन में पवित्र आचरण से रहो। और अपने आत्मा को समझो। और मन की सारी भ्रांतियों को तोड़कर के फेंक दो। आकाश में कोई देवी देवता तैरता नहीं है। कोई मिट्टी का देवी देवता तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।जगत नित्य है इसे किसी ने बनाया नहीं है।
देवों के देव महादेव तुम हो
अपने महादेवत्व को समझो।
कबीर कहते हैं :ये जीव ने ही शिव की अपने से अलग कल्पना आकर डाली देवता की अलग कल्पना कर डाली। और वह ठाकुर बन गया और कल्पना करने वाला दास बन गया।
कबीर और जाने नहीं एक राम नाम की आस।
जिसका नाम राम है उस आत्म -तत्व का ही हमें आशा भरोसा है।
पूरा बीजक ग्रन्थ ज्ञान के आग का गोला है। सारे अंधविश्वासों को भस्म करने वाला और विवेक ज्ञान से ज्योतित है। कबीर का विवेक ही उनका गुरु था यद्यपि वैष्णव परम्परा के स्वामी रामानंद उनके गुरु थे। पूरे बीजक में १७० बार कबीर ने राम कहा है।यह स्वाभाविक भी है।
राम निज नाम जानके छाडि दो वस्तु खोट
राम नाम उनका निज का है जीव की संज्ञा है। परमतत्व है कबीर का राम। जीव भी यही राम है।
हृदय वसे ते राम न जाना ,
दशरथ सुत ते लोक ही जाना ,
राम नाम का मर्म न आना।
जो अपने स्वरूप को जानता है वही कृतार्थ होता है।
सन्दर्भ -सामिग्री :
https://www.youtube.com/watch?v=1wDPKWbYQFk
सृष्टि विज्ञान क्या कहता है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति (उद्भव एवं विकास )के बारे में :
(१ )बहुश्रुत महाविस्फोट सिद्धांत (Big bang theory ):एक आदिम अणु (primeval atom ) में हुए विस्फोट से सृष्टि के उद्भव एवं विकास की कल्पना प्रस्तुत करता है। कहते हैं सृष्टि का ज्ञात -अज्ञात ,गोचर -अगोचर द्रव्य -पदार्थ ऊर्जा इसी में समाहित था। फिर भी इस आदिम अणु का आकार शून्य था। घनत्व अनंत यानी इसे विरोधी गुणों का देवता मान लिया गया। कहा गया यह विस्फोट अब से तकरीबन १३. ६ अरब वर्ष पूर्व हुआ। और ऐसे विस्फोट एक अवधि के बाद होते ही रहते हैं। क्यों होते हैं ?
कहा गया ये सृष्टि एक अति सूक्ष्म पृष्ठीय विकिरण (microwave background radiation )से संसिक्त है जो उस विस्फोट का बचा खुचा अवशेष है जो इससे पहले हुआ होगा।
इसमें एक विक्षोभ हुआ और आसपास से यह पृष्ठ भूमि विकिरण और पदार्थ ऊर्जा खींचने लगा आकार में वृद्धि के साथ और कालांतर में अपने ऊपर ही इतना दबखप गया यह आदिम अणु के इसकी एटमी भट्टी चालू हो गई।और यह एक विस्फोट के साथ फट गया।
(२ )ब्रह्माण्ड की नित्यता का सिद्धांत (Steady state theory )के अनुसार यह सृष्टि एक साम्यावस्था बनाये रही है बनाये रहेगी। नीहारिकाएं बनतीं हैं विनष्ट हो जाती है।इनकी राख से फिर और नीहारिकाएं पैदा हो जाती है।
पुनरपि जन्मम पुनरपि मरणम ,
पुनरपि जठरे जननी शयनम।
दुनिया नहीं थी तब एक भगवान् था इस पर कबीर कहते हैं ऐसा देखने वाला किस मकान में था। दुनिया कब नहीं थी ?सृष्टि होती क्या है ,पहले यह सोच लेना है। रचना द्रव्य में होती है ,और द्रव्य स्वयं होता है।
'न्याय -वैशेषिक 'और 'सांख्य' दोनों जड़ ,चेतन को नित्य मानते हैं।और इसी प्रकार पदार्थ विज्ञानी भी पदार्थों को नित्य मानते हैं। और वास्तविकता यही है। जो सत्ता हमारे सामने है , मिट्टी ,पानी, आग, हवा सब ,हाइड्रोजन , फ़ास्फ़रोस ,रेडियम इत्यादिक वो द्रव्य का समूह संसार सामने है। और उनमें गति है द्रव्य में गति स्वत : निहित है। स्वभाव सिद्ध निहित है। द्रव्य नित्य तो गति नित्य। और द्रव्य गति से जगत का प्रवाह नित्य। तो उसमें शुरू क्या हुआ ?
विज्ञानी मानते हैं ,ईथर नाम का एक सूक्ष्म द्रव्य था। तो उसमें कभी क्रिया हुई तो सृष्टि बनी अरबों वर्ष पूर्व। तो उसके पहले क्यों क्रिया नहीं हुई ?ईथर में क्रिया स्वभाव गत है या बाहर से प्रक्षेपित ,प्रक्षिप्त ?अगर बाहर से क्रिया डाली है तो किसने डाली। अमुक समय ही डाली फिर नहीं डाली। और अगर ईथर में स्वभावगत ही क्रिया है तो सब समय होनी चाहिए किसी ख़ास समय नहीं।इसीलिए ये न समीक्षा करने से ऐसी -ऐसी बातें उदय होतीं हैं।
भौतिक द्रव्य नित्य है।और भौतिक द्रव्य में उसकी गति नित्य है। इसलिए ये जगत का प्रवाह नित्य है। ये जगत कहीं से आरम्भ नहीं हुआ है और कहीं इसका अंत नहीं हो जाएगा। ऐसे ही चला है सदा बीज -वृक्ष ,मुर्गी -अंडा ,कर्म -देह ,इसका प्रवाह सदा हैं।
इसलिए कबीर प्रश्न करते हैं बताओ पहले क्या हुआ सृष्टि में ?और दूसरी बात ये बताओ ,किस स्थान पर बैठकर और किसने जगत बनाया ?
कबीर ने अनेक बातें पूर्व पक्ष की कहीं और कहके फिर उनकी समीक्षा की।और अन्य शास्त्रों में भी ये बातें आती हैं ,पूर्व पक्ष ,उत्तर पक्ष।
लोग ये मानते हैं ,ब्रह्मा ,विष्णु ,शंकर किसी आद्या माया (आद्या शक्ति )से पैदा हुए, किसी नारी से पैदा हुए।प्रथम जीव ने अपनी उक्ति से भक्ति की। उक्ति कहते हैं कहा हुआ। लेकिन यहां उक्ति का अर्थ है अंदाज़ ,अनुमान ,कयास, कल्पना ,तरकीब ,तज़वीज़।
जीव ने रूप गढ़ा देवताओं का और गढ़ के उसने भक्ति की। जीव अपने स्वरूप को न समझ कर बाहर कल्पना करता है। वेदों में सारे देवी -देवताओं की कल्पना इसीलिए हैं।
ऋषियों के मस्तिष्क देवताओं की सृष्टि करने के लिए अजीब कारखाने थे -सर्व -पल्ली राधाकृष्णन ।
यानी वैदिक ऋषियों ने कल्पना से अनेक देवी -देवताओं की सृष्टि की , फिर अंत में इन सबको मिलाकर एक ब्रह्म स्थापित किया। लेकिन ये सब कल्पना करने वाला कौन है ?जीव ?जीव ही स्थापन करता है और स्थापन करने वाला जीव स्थापित चीज़ में भूल जाता है अपने आप को।अपनी तरफ नहीं लौटता है।
उसके बाद पवन ,पानी ,हवा और छाया बने ऐसी कल्पना की गई। अमर कोष में छाया अग्नि को कहा गया है।और बहुत विस्तार से माया प्रकट हुई।
प्रगटे अंड पिंड ब्रह्मंडा ,पृथ्वी प्रगट भई नौखण्डा।
प्रगटे सिद्ध साधक सन्यासी। ई सब लाग रहे अबिनाशी।
जो साधना में चल रहा हो उसे साधक कहते हैं सिद्ध कहते हैं जो परिपक्व हो गया हो। सन्यासी का अर्थ है सर्वथा त्यागी।
ये सब अविनाशी के भजन में लगे रहे।
यहां कबीर कटाक्ष करते हैं अविनाशी परमात्मा को जीव से अलग कहीं और मानकर लगे रहे लोग उसके भजन में।
प्रगटे सुर, नर ,मुनि झारी , ते के खोज परे सब हारी।
झारी माने निखालिश शुद्ध (खालसा )
भाव अर्थ यह है ,उस अविनाशी परमात्मा के खोज में सब हार थक के बैठ गए।
खोज करके बाहर की चीज़ वह मिलती है जो इन्द्रिय बोध में आये। आँख से देखने में आये ,कान से सुन ने में आये ,नाक से सूंघने में आये। चाम(चमड़ी , त्वक ,त्वचा ) से छूने में आये।जीभ (रसना )से चखने में आये। तो ऐसी चीज़ मिल सकती है और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के बोध में न आये और मन में भी न आये तो कैसे मिलेगा।
उपनिषद में भी आया है :जिसका मत है उसका विमत है। जो यह कहता है मैं ब्रह्म को नहीं जानता हूँ वह जानता है और जो ये कहता है मैं ब्रह्म को जानता हूँ वह जानता ही नहीं है। क्योंकि ब्रह्म जाना नहीं जा सकता है वह इन्द्रिय मन वाणी से परे है। जब परे है तो उसको जाना ही नहीं जा सकता है।
जहां इतनी निराशा है ,जाना ही नहीं जा सकता है कबीर कहते हैं जीव का उसके पीछे पड़ना एक सनक के सिवाय क्या है ?
अब लौट करके देखा जाए तो अपना (जीव का )स्वरूप भी इन पाँचों ज्ञानेन्द्रिय और मन से परे है।यानी जो जीव है जो आत्मा है वह पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और मन से परे हैं। लेकिन वह आत्मा इन छहों से काम लेता है इन को प्रेरता है। प्रेरक है। ये आत्मा स्वयं तुम ही हो। इसमें दोष नहीं। इसको पाना कहाँ है यह तो तुम ही हो।
यह जीव अपनी इन्द्रियों और मन द्वारा बाहर फ़ैल -फ़ैल कर भटक गया है। इसे बस लौट आना है।अब इसका काम यही है ,पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से जो दृश्य मान है उसका मोह छोड़े। मन से जितनी मान्यताएं हैं उनका मोह छोड़े।
प्रकृति ने इन्द्रियों को बहिर्मुख बनाया है। इसलिए हम बाहर देखते हैं अंतरात्मा को नहीं देखते। कोई विवेकवान पुरुष अपनी इन्द्रियों को समेटकर अपनी अंतरात्मा को देखता है (बोले तो अनुभव करता है ,अंतर्बोध से ),और वह अमरता पाता है।
लौटें बाहर से तो स्वयं स्वरूप हैं पाना कुछ नहीं है। इसलिए कबीर ये व्यंग्य कर देते हैं :
खोज परे सब हारी
उसकी खोज में सब हार थक के बैठ गए हैं। मुसलमान कहते हैं वह बे -चून ,बे -नमून है। हिन्दु कहते हैं निराकार है।मन वाणी से परे है। अनिर्वचनीय है। ब्रह्म वादियों ने तो माया को भी अनिर्वचनीय कहा और ब्रह्म को भी अनिर्वचनीय कहा। ब्रह्म और माया दोनों का निर्वचन नहीं हो सकता है कहा नहीं जा सकता है।
मन बुद्ध वाणी परे बतावें ,पुनि ते दर्शन को ललचावें।
पारखी संतों ने कहा जब मन वाणी से परे है तो क्या उसका दर्शन पाओगे उसकी प्राप्ति के चक्कर में क्यों पड़े हो क्यों अपने में नहीं लौटते हो । तुम अपने आप को शुद्ध करो।
जीव शिव सब प्रगटे ,वह ठाकुर सब दास
वह ठाकुर बन गए जिसकी कल्पना हुई और जीव दास बन गया जिसने कल्पना की। यानी घड़ा कुम्हार से बड़ा बन गया। कितनी दयनीय दशा है ज्ञान की। हमारे उपनिषद के ऋषि ऐसे नहीं थे उपनिषद के ऋषि ज्ञान की चर्चा करते थे। शास्त्रों के ऋषि भी ऐसा नहीं करते थे।किसी मूर्ती के आगे नाक नहीं रगड़ते थे।
ये तो बीच में बड़ी गड़बड़ी आई।
वे(ऋषि मुनि ) भी ज्ञान की चर्चा करते थे। ये शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है। जीव से ही शिव प्रगटे। वह ठाकुर बन गए और जीव दास बन गया।
हम ने ही मूर्ती बनाई और हम ही उसके आगे नाक रगड़ते हैं उस से मोक्ष मांगते हैं।कैसी विडंबना है।दो हज़ार बरसों से भारत में ज्ञान का इतना पतन हुआ है उपनिषदों को पढ़िए। आप उपनिषद सौरभ पढ़िये जिसमें ग्यारह उपनिषद रखके बता दिया गया है ,जिसने समझ लिया ये आत्मा ही पुरुष है। (इस शरीर रूप पुर का वासी है ). ये आत्मा यही परमतत्व है। जिसने यह जान लिया वह शरीर के अहंकार को चढ़ाकर बाहर क्यों भटकेगा। तो आत्मा पर बारम्बार जोर है।
वृहद् आरण्यक उपनिषद में तो यह लिखा है ,जो यह मानता है देव अलग है और मैं अलग हूँ वह देवताओं का पशु है। वैसे देवता नहीं चाहते हैं ,यह मनुष्य समझ ले ,मैं ही ब्रह्म हूँ। ऋषि वामदेव ने कहा मैं ही ब्रह्म हूँ और वह मुक्त हो गए। तो ब्रह्म श्रेष्ठ को कहते जो रामत्व है शिवत्व है परमतत्व है वह मैं (जीव ) ही हूँ। जो ईश्वरत्व है वह तुम्हारे अपने अंदर में ही चरितार्थ होगा। रोने गिड़गिड़ाने से कहीं कुछ मिलने वाला नहीं। इसलिए न तो भोग की इच्छा करो न देवी देवताओं की इच्छा करो। सत कर्तव्य करो तुम्हारे अपने शुभ कर्मों से तुम्हारा कल्याण है। जीवन में पवित्र आचरण से रहो। और अपने आत्मा को समझो। और मन की सारी भ्रांतियों को तोड़कर के फेंक दो। आकाश में कोई देवी देवता तैरता नहीं है। कोई मिट्टी का देवी देवता तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।जगत नित्य है इसे किसी ने बनाया नहीं है।
देवों के देव महादेव तुम हो
अपने महादेवत्व को समझो।
कबीर कहते हैं :ये जीव ने ही शिव की अपने से अलग कल्पना आकर डाली देवता की अलग कल्पना कर डाली। और वह ठाकुर बन गया और कल्पना करने वाला दास बन गया।
कबीर और जाने नहीं एक राम नाम की आस।
जिसका नाम राम है उस आत्म -तत्व का ही हमें आशा भरोसा है।
पूरा बीजक ग्रन्थ ज्ञान के आग का गोला है। सारे अंधविश्वासों को भस्म करने वाला और विवेक ज्ञान से ज्योतित है। कबीर का विवेक ही उनका गुरु था यद्यपि वैष्णव परम्परा के स्वामी रामानंद उनके गुरु थे। पूरे बीजक में १७० बार कबीर ने राम कहा है।यह स्वाभाविक भी है।
राम निज नाम जानके छाडि दो वस्तु खोट
राम नाम उनका निज का है जीव की संज्ञा है। परमतत्व है कबीर का राम। जीव भी यही राम है।
हृदय वसे ते राम न जाना ,
दशरथ सुत ते लोक ही जाना ,
राम नाम का मर्म न आना।
जो अपने स्वरूप को जानता है वही कृतार्थ होता है।
सन्दर्भ -सामिग्री :
https://www.youtube.com/watch?v=1wDPKWbYQFk
सृष्टि विज्ञान क्या कहता है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति (उद्भव एवं विकास )के बारे में :
(१ )बहुश्रुत महाविस्फोट सिद्धांत (Big bang theory ):एक आदिम अणु (primeval atom ) में हुए विस्फोट से सृष्टि के उद्भव एवं विकास की कल्पना प्रस्तुत करता है। कहते हैं सृष्टि का ज्ञात -अज्ञात ,गोचर -अगोचर द्रव्य -पदार्थ ऊर्जा इसी में समाहित था। फिर भी इस आदिम अणु का आकार शून्य था। घनत्व अनंत यानी इसे विरोधी गुणों का देवता मान लिया गया। कहा गया यह विस्फोट अब से तकरीबन १३. ६ अरब वर्ष पूर्व हुआ। और ऐसे विस्फोट एक अवधि के बाद होते ही रहते हैं। क्यों होते हैं ?
कहा गया ये सृष्टि एक अति सूक्ष्म पृष्ठीय विकिरण (microwave background radiation )से संसिक्त है जो उस विस्फोट का बचा खुचा अवशेष है जो इससे पहले हुआ होगा।
इसमें एक विक्षोभ हुआ और आसपास से यह पृष्ठ भूमि विकिरण और पदार्थ ऊर्जा खींचने लगा आकार में वृद्धि के साथ और कालांतर में अपने ऊपर ही इतना दबखप गया यह आदिम अणु के इसकी एटमी भट्टी चालू हो गई।और यह एक विस्फोट के साथ फट गया।
(२ )ब्रह्माण्ड की नित्यता का सिद्धांत (Steady state theory )के अनुसार यह सृष्टि एक साम्यावस्था बनाये रही है बनाये रहेगी। नीहारिकाएं बनतीं हैं विनष्ट हो जाती है।इनकी राख से फिर और नीहारिकाएं पैदा हो जाती है।
पुनरपि जन्मम पुनरपि मरणम ,
पुनरपि जठरे जननी शयनम।
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