सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

जड़ बिन वेळ ,बेल बिन तुम्बा , बिन फूले फल होय, कहे कबीर सुनो भई साधौ , गुर बिन ज्ञान न होय.



DrArvind Mishra shared a post.

53 mins
अभी मैंने भी दो पक्षियों को आजाद किया। एक तो पतंग के डोर से आम के पेड़ में त्रिशंकु बनी हुई थी और दूसरी गोंद वाले रैट कैचर में बुरी तरह उलझ गई थी ।एक बैबलर थी यानि सेवेन सिस्टर्स जिसे पूर्वांचल में चर्खी बोलतै हैं दूसरी थी एक मैग्पाई - दहगल।दहगल को तो मिट्टी के तेल से एक तरह से नहलाना ही पड़ गया। बिचारी कीट पतंगों के चक्कर में घर में भीतर आई और रैट कैचर से चिपक गई।
अब सवाल है मनुष्य एक दूसरे विपदा में पड़े मनुष्य को बचाने में इतनी तत्परता क्यों नहीं दिखा रहा? दरअसल मनुष्य में संवेदना तो है किन्तु मनुष्य और मनुष्य के बीच यह भावनात्मक लगाव तेजी से खत्म हो रहा है। क्योंकि अब मनुष्य सहज सरल मासूम नहीं रहा, वह कृतघ्न, दुष्ट /शातिर हो चुका है और फिर मनुष्य की मदद करो तो तमाम लफड़े झेलो। पुलिस के टंटे भी ।
मगर चिड़िया तो आज भी भोली-भाली और निरीह है बिचारी। उसकी मदद तो ईश्वरीय है। कोई टंटा झगड़ा भी नहीं।


Arvind Kumar
ब्लॉग चर्चा
प्रवीण चोपड़ा
एक मरीज़ का चेकअप कर रहा था। तभी कमरे के बाहर पक्षियों की तेज़ आवाज़ें आईं। ऐसी आवाज़ें अक्सर तभी सुनाई देती हैं जब कोई पक्षी किसी मुश्किल में हो। एक परिंदा टेलीफोन की तार में अटकी डोर में उलझ कर उलटा लटक गया। लगा चीखने। आवाज़ सुन कुछ और परिंदे आ गये। वे भी चीखने-चिल्लाने लगे। इत्तेफ़ाक देखिए कि चंद कदम की दूरी पर सरकारी एंबुलेंस खड़ी रहती है। उसके ड्राइवर ने परिंदे को देखा तो झट से पक्षी को सहारा देने के लिए लपका। इतने में मेरे अटेंडेंट ने भी खिड़की खोल दी थी। उस एंबुलेंस वाले ने उस परिंदे को सहारा देने लिए पकड़ लिया था। मेरे अटैंडेंट ने ताकीद की, चाइनीज मांझा है, खींचने से पंछी का पैर कट जाएगा। मैं ब्लेड देता हूं। किसी तरह पंछी को धागों के जंजाल से तो मुक्त करा लिया गया लेकिन उसके पैरों के इर्द-गिर्द मांझा इतनी पेचीदगी से कस गया था कि उसे छुड़वाना भी एक चैलेंज था। अब तक परिंदा शांत हो चुका था… ड्राइवर ने उस परिंदे को बड़े प्यार से पकड़ रखा था। …मैं और अटैंडेंट डोर को पैरों से अलग करने में लगे हुए थे। लो जी, कट गये धागे सारे… इतने में मैं एक गिलास में पानी लाया और ग्रिल के अंदर से ही गिलास बाहर किया और परिंदे की चोंच उसमें डुबो दी गई कि परवाज़ भरने से पहले दो बूंद पानी पी ले।
हम लोग खुद भी तो ऐसे मौकों पर बदहवास हो जाते हैं …बस, अब उससे विदा लेने का समय था। यह तसल्ली तो थी कि उसके पैर सही सलामत हैं। ड्राइवर ने उसे जैसे ही हवा में छोड़ा, देखते ही देखते वह हवा से बातें करने लगा। और जैसे ही उसने उड़ान भरी उसके साथी जो इधऱ-उधर उसका इंतज़ार कर रहे थे, वे भी उसकी आज़ादी में शरीक हो गये …उसकी परवाज़ देखकर बड़ी खुशी हुई। ख्याल आया कि परिंदे की चोट देखकर हम सब इकट्ठा हो गये …अगर हम सब लोग इतने ही दयालु-कृपालु हैं तो फिर समाज में इतनी मार-काट, लूट-पाट, काट-फाड़ कौन कर रहा है… किसी आदमी को काटने-गिराने में हम लोगों को क्या रत्ती भर दया नहीं आती… क्या हो जाता है हम लोगों को जब हम भीड़ का हिस्सा बन कर बस्तियां जला देते हैं, …भीड़तंत्र का हिस्सा बनना हमें बंद करना होगा, वरना यहां कुछ नहीं बचेगा… बस, धधकते तंदूरों पर सियासी लच्छेदार परांठे लगते रहेंगे ….काश! हम सब सुधर जाएं…
(साभार : डॉ. प्रवीण चोपड़ा डॉट ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम)
-दैनिक ट्रिब्यून से
Comments

Ramjee Lal Dass अच्छा लिखा है आपने ...संवेदनात्मक कथा ...एक प्रश्न उठाती हुयी कथा कि भीड़तंत्र के सामने हमें क्या हो जाता है ? इस प्रश्न का एक सरल उत्तर यह है कि परिंदों में मासूमियत होती है और यह संवेदना को जन्म देती है ,भीड़ में प्रायः हैवानियत जन्म लेती है जो हमें उकसाती है , डराती है ...हिंसा की मनोवृत्ति पैदा करती है ...

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एक प्रतिक्रिया वीरुभाई :

अध्यात्म और संस्कृति का नजारिया :साहिब साहिब सब कहें मोहि  अंदेसा और ,साहिब से परिचय नहीं बैठोगे केहि ठौर।
जड़ बिन वेळ ,बेल  बिन तुम्बा ,

बिन फूले फल होय,

कहे कबीर सुनो भई साधौ ,

गुर बिन ज्ञान न होय.

साहब तेरा भेद न जाने कोय ,

पानी ले ले साबुन ले ले, 

मल मल काया धोये ,

अंतर् घट का दाग न छूटे  ,

निर्मल कैसे होय.

या घट भीतर बैल बंधे हैं

 निर्मल खेती होय.

सुखिया बैठे भजन करत  हैं 

दुखिया दिन भर  रोय.

या घट भीतर (अग्नि )अगिन जरत है ,

धुआँ न परगट होय,

कैसे जाने (आतम) आपन भाई ,

केसिर   बीती होय.

जड़ बिन बेल ,बेल बिन तुम्बा ,

बिन फूले फल होय.

कहत कबीर सुनो भई साधु ,

गुरु बिन ज्ञान न होय.

साहब पानी का भेद जान ना होगा। 


पानी का भेद जान ना होगा चाहें भीतर पानी हो या बाहर पानी हो इसका भेद जान ना है। निर-वैरत्व  भाव है भीतर पानी  जान ने का अर्थ। बाहर पानी जान ने का अर्थ है हर जगह उसे देखना और जीवन के प्रति हरेक  क्रिया कलाप का निर्मल भाव से देखना। 

सब कहते हैं ईश्वर सर्वशक्तिमान है सर्व ज्ञाता है वह हमारी करनी देख रहा है। कर्म फल दाता है लेकिन ऐसा मानता कोई कोई ही है। निर्गुण और सगुण भक्ति में कौन सी भक्ति श्रेष्ठ है। किस ईश को पूजे सगुन ईश्वर कौन निर्गुण कौन ?किसका ईश्वर किसका पंथ श्रेष्ठ इसमें ही उलझे पड़े हैं। 

सगुण ईश्वर का भाव यह है समस्त प्राणी मात्र उसी का स्वरूप हैं। उसका ही आकार गुणधर्म हैं। निर्गुण प्रकृति में कार्यरत नियम हैं। सब कुछ निरंतर इन्हीं नियमों से संचालित है। बाहर के ईश्वर की सेवा करो। मन बुद्ध चित्त शुद्ध करो। 

कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर ,

पाछे  पाछे हर फिरे कहत कबीर कबीर।  

चित्त निर्मल शुद्ध बुद्ध होगा तभी कण कण में भगवान् दिखाई देगा।  

वासना के पड़ाव को रोको ,चित्त की सवारी करो। 

मननात मनुष्य -मनुष्य का मूल धन है विवेक। माया मोह में पड़कर वह असली आत्मा को खो देता है। 

मैं मेरा कुनबा मेरी मशहूरी ये सब यहीं रह जाना है इसे अपने विवेक से बूझे तो सही राह मिले। मृत्यु का नित चिंतन करे। लेकिन आज ठीक इसका उलट हो रहा है। 

मनुष्य यह नहीं सोचता जो आज पड़ोसी  के हुआ है कल मेरे घर में भी होगा।

जाहि को विवेक ज्ञान, ताहि को कुशल जान। 

जाहि और जाए ताको  वाही और सुख है। 

आज काज जो काल  अकाजा ,

चले लाद  दिगंतर राजा ,

इस क्षण (काम )कल्याण करने का अवसर है। 

भजन करो भगवान् को बिलम करो न कोय। 

न जाने इस जीव को कौन घड़ी क्या होय। 

सन्दर्भ -सामिग्री :








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