मंगलवार, 5 दिसंबर 2017

Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji - Day 3(Part lll )

वशिष्ठ जी दशरथ जी से कहने लगे न, न ये मुझसे न होगा। जिनको वेद भी न जान सके ,नेति नेति कहकर रह गए मैं उनका नाम नहीं रख सकता। दशरथ जी कहने लगे ये तो आपकी  महानता है आप ऐसा कह रहें हैं ,आप तो साक्षात वेद मूर्तिं हैं ,आपके लिए असम्भव क्या है।वशिष्ठ जी की आँखों में आंसू छलछला आये हैं। वह देखते हैं सन्यासियों की पंक्ति में स्वयं शिव खड़े हैं ब्राह्मणों की  पंक्ति में ब्रह्मा जी खड़े हैं सेवकों की पंक्ति में स्वयं इंद्र खड़े हैं देव पुत्रियां ,अप्सराएं ,सुबालाएँ जिस को जहां जगह मिली है वह वहीँ खड़ा हुआ है सब जानता चाहते हैं सबको औत्सुक्य है यह जान लेने का भगवान् का क्या नाम रखा जाता है।

वैसे वेद ने भगवान् का पहला नाम कवि बतलाया है -जो कल्पना करता है मैं एक से अनेक हो जाऊँ ,वह सर्जक है ,सृजनकर्ता है ,कवि है।   

वशिष्ठ ने धीरे से भगवान् के चरण छूते हुए कहा-गंगा यहीं से निकलीं हैं और बहुत साहस करके भगवान् की नाभि का स्पर्श करते हुए बोले -ब्रह्मा जी इसी नाभि कमल से प्रसूत हुए हैं। फिर और ज्यादा साहस समेट कर भगवान् का  वक्ष स्पर्श करते हुए बोले यहां दुर्वासा की लात के स्वस्ति चिन्ह अभी तक अंकित हैं भगवान् कितने दयालू हैं। 

इनके नाम अनेक अनूपा ,

सो सुख धाम नाम अस रामा। 

मैं इनका नाम कैसे रखूँ -सभी नाम और रूप इन्हीं के तो हैं इनमें बस एक ही बात है इनमें निरंतर वैभिन्न्य हैं मैं कोई एक नाम इनका कैसे रखूँ -गुरु वशिष्ठ मन ही मन सोच रहे हैं। 

राम शासक भी हैं प्र-शासक  भी हैं उपासक भी हैं।मैं इनका कोई एक नाम कैसे रखूँ -ये तो सनातन ब्रह्म हैं। राम का शासन प्रेम से होता है। इस धरती पर प्रेम से ही आप शासन कर सकते हैं।  

जीव की पहली एषणा सुख पाने की है।सारा संग्रह ,सारा   भंडारण  हमारा किसलिए है ?पदार्थ का संग्रह क्यों है इतना ?सुख पाने के लिए ही तो है।सुख पदार्थ सापेक्ष नहीं है। 

 सुख और   प्रसन्नता ज्ञान सापेक्ष है ,चिंतन सापेक्ष है. स्थाई प्रसन्नता वैराग्य से आएगी। तो कोई जीव यह जानना चाहें के सुख कहाँ है तो सुख राम नाम में है।  

सुख राम नाम में है। 

सीता जी आत्म  हत्या  करने पर उतर  आईं ,राम के वियोग में वह इतनी  त्रस्त  हो गईं अब राम नहीं आएंगे ,मैं भी सती  की तरह भस्म हो जाऊंगी।देह त्याग दूंगी।  तब अचानक एक नाम उनके कान में पड़ा। पुनरुक्ति करने लगीं वह ,आनंद में डूब गईं। 

रामचंद्र गुण बरनहिं  लागा ,

सुनते ही सीता कर  दुःख भागा। 

हनुमान ने कहा ये तो अग्नि कुंड  तैयार कर रहीं हैं लकड़ी बीन समेट कर।  आत्मदाह के लिए तैयार हैं।  तब उन्होंने राम के गुणों का बखान किया जिन्हें सुनकर सीता जी संताप मुक्त हो गईं । 

ईश्वर अंश जीव अविनाशी ,

चेतन अमल सहज सुख राशि। 

अपने स्वरूप को देख अखिलानंद है परमानंद है ये । आनंद ही आनंद है किस दुःख की बात करता है। बुद्ध और उनके अनुयायी संसार में दुःख ही दुःख देखते हैं। आदि शंकराचार्य कहते हैं किस दुःख की बात करता है निज स्वरूप को देख -सच्चिदानंद है वहां -आनंद ही आनंद है।जब कभी दुःख आये तो राम को याद करना। आवरण को नहीं निज स्वरूप को देख। देह को संसार को मत देख ये तो निंदनीय है ही और इसमें है भी क्या मल मूत्र के अलावा। 

राम के नाम को जपने का जो फलादेश है वही ॐ को जपने का है। राम में रकार है ,अकार है और मकार है। रा कहते ही मुंह खुलेगा और म कहते ही बंद  हो जाएगा। ऐसा ही ॐ के उच्चरण में होगा।  
राम तारक मन्त्र है जिसकी जिभ्या के  अग्र  भाग पर यह मन्त्र (यह नाम ) नाँचता रहता है वह दोबारा जन्म नहीं लेता। -जीव जगत और जगन्नाथ का यही भेद है यही अंतिम ज्ञान है पार्वती और ये मुंड माल जो मैं धारण किये रहता हूँ यह किसी और की  नहीं तुम्हारी  ही है। सृष्टि का अंतिम ज्ञान जान लोगी तो दोबारा देह को भस्म नहीं करना पड़ेगा और वह महामंत्र ,गुरु मंत्र राम है।यही कहा था शिव ने पार्वती से बार बार उनके सृष्टि का भेद क्या है पूछने पर।  

राम सनातन सत्य है मंत्र है। आश्चर्य में भी ,कौतुहल में भी ,किसी दुष्ट पुरुष की अधमता को देखकर भी किसी अत्यंत निकृष्ट प्राणी को देख कर भी उसके अति निकृष्ट कृत्य को देखकर भी और हमारे  मुख से निकलता क्या है -यही राम राम राम ही तो निकलता है विभिन्न भावों के साथ । प्रसव की पीड़ा के समय भी यही नाम प्रसूता के मुख से निकलता है और अर्थी के साथ शवयात्रा में भी यही नाम जाता है -राम नाम सत्य है सत्य बोलो गत्य (गति )है। मजदूर जब माथे का पसीना पौछते हुए सुस्ताने बैठता है तो उसके मुख से भी यही शब्द निकलता है- हे! राम।

तो राम एक मंत्र है।महामंत्र है।  

राम और भरत में रूप साम्य इतना है के बचपन में ये दोनों आपस में बदल जाते थे। केवल आँखों से भेद पता चलता है। भरत की आँखों में दासत्व का नित्य ही एक सेवक का भाव है। किम करोति  अपेक्षति -मुझे क्या करना है मेरे लिए क्या आज्ञा है जैसे पूछ रहे हों। आज्ञा की उत्सुकता है जिनकी आँखों में वह भरत हैं।सेवकत्व है जिनमें वह भरत हैं। 

परिये प्रथम भरत के चरना ,

जासो नियम व्रत  जाए न बरना।

 भरत कभी भी नियम नहीं तोड़ते। तुलसीदास कहते हैं यदि मुझसे पूछा जाए पहले पूजा उपासना किसकी करोगे तो मैं कहूंगा -भरत. जो मन क्रम वचन से एक हैं वह भरत हैं धर्म का सार हैं। जिनमें सन्यासत्व और निरंतर वैराग्य है वह भरत हैं। 

भरत तो धर्म का सार ही हैं -मनसा वाचा कर्मणा एक ही हैं।  

और जिनके नेत्रों में गाम्भीर्य है औदार्य है स्वीकृति है वह राम हैं।सबको अपना बनाने के लिए जो भाव है जिनके नेत्रों में -वह राम हैं।नेत्रों में देखने से ही दोनों का भेद पता चलता था इनके बचपन में।  

जो अपनी उपलब्धियों में दूसरों को यश दे दूसरों को कारण माने ,यश दे वह शत्रुघ्न  है।जो सबको प्रेम देता है करुणा देता है।मान सम्मान आदर देता है शत्रुघ्न  है।जिस की वाणी वेद वाणी है जो वेदों के मर्म को जानता है वह शत्रुघ्न है।   

जाके सिमरन से रिपु नाशा 

नाम शत्रुघन वेद प्रकाशा। -------

जो अपने शत्रु का पहचानकर पहले उसका हरण करता है।उसका निवारण कर दे वह  निर्वैर है।शत्रुघ्न है। हमारा आलस्य ,हमारी जड़ता वही हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। जो इस जड़ता का प्रमाद का  नाश कर दे वही शत्रुघ्न है।  

जो साक्षात वेदमूर्ती है ,ज्ञान मूर्ती है शांत है ,सौम्य है ,विनम्र है ये निरंतर आज्ञा का पालन करेगा। ये बालक शत्रुघ्न है यही नाम रखा था वशिष्ठ जी ने क्रम भंग करते हुए सबसे छोटे बालक का । 

सुमित्रा से कहा था राम और भरत के नामकरण के बाद -सबसे छोटे बालक को लाओ -सुमित्राजी ने गौरांग लक्ष्मण  जी को आगे कर दिया वशिष्ठ बोले ये नहीं इसे बाद में पहले सबसे छोटे को लाओ।सबसे छोटे के नामकरण के बाद - 

जब गौरांग बालक को सुमित्रा ने आगे किया वशिष्ठ जी उसे अपने अंक में भर कर उसका माथा चूमते रहे उसे अंक से लगा लिया। उसकी हथेलियों पर चुम्बनों की बौछार कर दी। बोले ये बालक सब लक्षणों का धाम है।जितने भी शीर्ष श्रेष्ठ गुण हैं सब इस बालक में हैं।  राम सबके बिना रह सकते हैं इसके बिना नहीं ये बालक तो राम की शैया है।हाँ एक बार को राम सीता के बिना रह सकते हैं मातापिता के बिना भी रह सकते हैं लेकिन  लक्ष्मण के बिना नहीं रह सकते। 

और ऐसा कई बार हुआ है जब लक्ष्मी जी विष्णु जी को छोड़कर चली गईं हैं लेकिन लक्ष्मण जी कभी राम को  छोड़कर नहीं गए। एक बार विष्णु जी ने लक्ष्मी जी से जब पूछा तुम मुझे छोड़कर क्यों चली गईं। बोली लक्ष्मीजी आप तो सोते रहते हैं मैं उद्यमी के पास ही रहती हूँ। तब से भगवान् फिर उतना कभी नहीं सोये। एक बार सोये थे तो उस निद्रा में से मधु -कैटब निकल आये। 

 लक्षणधाम रामप्रिय ,सकल जगत आधार ,

गुरु  वशिष्ठ  ने राखा लक्ष्मण नाम। 

भजन किसे कहते हैं -भज सेवायाम। 

भजन क्या है ?गीत गाने का नाम भजन है क्या ?उसकी कायनात की सेवा वृक्षों ,पक्षियों जीव जलाशयों की सेवा भजन है । इसलिए राम इसे प्रेम करते हैं  और ये अपने को शिशु मानता है। अबोध शिशु ,नवजात शिशु मानता है अपने को। इसलिए गुरु ने इसका नाम लक्ष्मण रखा।

गुरु  वशिष्ठ ते राखा लक्ष्मण नाम  उदार। 

और अब आइये गुरु के गृह चलते हैं -

गुरु गृह गए पढ़न  रघुराई ,

 अल्प  काल विद्या सब पाई। 

गुरु के आश्रम में अमात्य ,साहूकारों कृषकों के बालकों के बीच में ही राम भी बैठकर पढ़ते हैं । उसी  बिछौने पर पल्लवों का बिछौना जिस पर सब बालक बैठते हैं । शिष्य के पास एक ही चीज़ होनी चाहिए -श्रद्धा। 

श्रद्धावान लभते ज्ञानम्। 

गुरु के पास जो कुछ भी है उसका वह अधिकारी बन जाता है  श्रद्धा से । । गुरु ने एकांत में आसन पर बिठाया और ब्रह्म ज्ञान की दीक्षा दी राम को। 

गुरु ने कहा मैं एक ज्ञान केवल राम को दूंगा और वहां से शेष सभी को हटा दिया -लक्ष्मण को ,भरत ,शत्रुघ्न को। 

विश्वामित्र का उद्धरण आता है एक बार विश्वामित्र नंगी तलवार लेकर वशिष्ठ जी की हत्या करने उनके आश्रम में गए :

अरुंधति वशिष्ठ जी से कहतीं हैं ऐसा आह्लाद ऐसा माधुर्य मैंने आश्रम में पहले कभी नहीं देखा। आज लगता है झड़े हुए पीले पाँतों को भी उठाकर चूम लूँ। मुझे अपने आश्रम के आँगन की धूल अपने माथे से लगाने को क्यों मन करता है ?मुझे हर चीज़ अति मोहिनी ,अति उदात्त ,भगवदीय लग रही है। आनंद मुझसे संभाले नहीं सम्भल रहा है हमारा घर तीरथ हो गया हिमालय हो गया। ऐसा मुझे क्यों लग रहा है ?हमारे पेड़ ये देव आत्मा  दिख रहे हैं परमात्मा दिख रहे हैं।

जानती हो ऐसा क्यों हैं ?ये विश्वामित्र की तपस्या का फल है। उनका तप इतना बड़ा हो गया है। अरुंधति कहतीं हैं मुझे ले चलो उन ऋषियों के पास मैं उनकी चरण रज लेना चाहती हूँ।

अरे ये तो एकांत में भी मेरे गुण  गा  रहे हैं और मैं इनकी हत्या करने आया था। उनके हाथ से खड्ग गिर गई। 

अध्यात्म अश्त्र को छीन लेता है। इस धरती को आध्यात्मिक बनाइये युद्ध उन्माद अपने आप कम हो जाएंगे। 
जिसे चिंता रहती है अवसाद रहता है वह अपने घर में एक पुस्तक योग-वशिष्ठ ले आये। यागावशिष्ठ ले आये। नित्य उसे पढ़े जिसमें भगवान् और वशिष्ठ ऋषि के संवाद हैं। ब्रह्म के और उस गुरु के क्या संवाद हुए इसे पढ़कर आपके घर के सारे अभाव दुःख दैन्य दूर हो जाएंगे। अद्भुत  ग्रन्थ है वह।

गुरु गृह गए पढ़न रघुराई 

अल्प काल विद्या सब पाई  . अल्प काल का अर्थ है श्रद्धा से भरा हुआ अंत :करण  है विद्या अपने आप आ जायेगी।

रावण ने मारीच ,सुबाहु ,ताड़का आदि को भेजा था जहां अस्त्र शस्त्र का भण्डार है। सिद्ध आश्रम है। युद्धशाला है जहां अस्त्र शस्त्रों का निर्माण होता है सारा अध्ययन  है जहां उसे नष्ट करने वहां व्यवधान पैदा करने ताकि ऋषियों का ध्यान भंग हो भय पैदा हो उनके अंदर। भय होगा तो ध्यान नहीं लगेगा।ध्यान नहीं लगेगा तो अनुसंधान नहीं होगा। राम को सारे अस्त्र ऋषियों ने दिए है अस्त्र विद्या ऋषियों ने सिखाई है। और यह सब बहुत सायलेंट होना चाहिए किसी को पता नहीं लगना चाहिए।ऐसी हिदायतें देकर रावण ने दूत दूतियों को भेजा था सिद्ध आश्रम।  

प्रतिभा भय ग्रस्त व्यक्ति की  घटने लगती है भय एकाग्रता को छीनता  है।प्रतिभा को कुंद करता है। 

विश्वामित्र जिस  ढ़ंग  से  बढ़े चले आ रहे हैं। आज कुछ मांगने आ रहे हैं । याचक की भूमिका में हैं । अयोध्या की तरफ़  बढ़े चले आ रहे हैं। विश्वामित्र सतो गुण है ताड़का तमो गुण है और तमो गुण ऋषियों को परेशान करता है।

राम चाहिए मुझे दशरथ से कहने लगे विश्वामित्र।मुझे एक राजपुत्र चाहिए जिसे देख कर वह ठीक हो जाएँ। मुझे चाहिए राम और लखन। जब राजपुत्र जाएगा तो ये सन्देश जाएगा राजपुरुष तैयार हो गए हैं और राम सिर्फ राज पुरुष नहीं हैं। सिर्फ राजा नहीं हैं अवतार हैं। राक्षसों का विनाश करने आये हैं। 

एक ही बाण प्राण हर लीन्हां ,

दीन  जान निज पद दीन्हां।

भगवान् के एक ही  बाण ने ताड़का के प्राण हर लिए उसका त्राण कर दिया। तारण कर दिया ये जानकर ये तो दूती है एम्बेसेडर है भगवान् ने उस पर करुणा कर दी। 
मारीच को दूर भेजा था एक ही बाण से सन्देश दे देना रावण  को मैं आ गया हूँ। मारा नहीं है मारीच को करुणामय करुनानिधान राम ने सौ योजन दूर फेंका है बस -अपने बाणों से। 
श्याम गौण सुन्दर दोउ भाई ,

विश्वामित्र महानिधि पाई। 

भगवान् की करुणा से ही सारे शस्त्र गिर गए। स्थविर : अरे ठहर जा मैं तो ठहरा हुआ हूँ तू भी तो ठहर जा। ये एक ही शब्द तो गया था कान में अंगुलिमाल के बुद्ध का और उसके हथियार वहीँ गिर गए। हिंसा सारी  समाप्त हो गई।
चरित्र से स्वभाव से आप सारे संसार को जीत सकते हैं प्रभाव से आप ऐसा नहीं कर सकते। 

स्वभाव दिखाओ सब लोगों को अपना ,स्वभाव से जीतो सबको राम ने कोई अपना प्रभाव नहीं दिखाया -स्वभाव से ही सबको जीता। स्वभाव से ही ताड़का का तारण और वह सारा सिद्ध -आश्रम निष्कंटक हो गया। क्योंकि अपराधियों को अभय दान दे दिया वे अनुचर बन गए। (ज़ारी ...)   

  सन्दर्भ -सामिग्री :

(१ )

LIVE - Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji - 28th Dec 2015 || Day 3

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(२ )


3:25:43

LIVE - Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji - 28th Dec 2015 || Day 3


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1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-12-2017) को "पैंतालिसवीं वैवाहिक वर्षगाँठ पर शुभकामनायें " चर्चामंच 2809 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'