आज कुछ हटके बात हो जाए
बचपन में दो मुहावरे रोज़ ब रोज़ सुने। आप भी भागी बनिए :
(१)माँ मरी धी को धी मरी मोटे से यारों को -बोले तो माँ ने लाख कोशिश की धी का चरित्र ठीक रहे उठ बैठ सही लोगों के साथ रहे लेकिन वह बिगड़ गई मोटे मोटे यारों के संग हो ली।एक न सुनी उसने माँ की अपनी मनमानी ही की।
(२)लैंड सतर न होना :यानी किसी व्यक्ति का आपकी तमाम कोशिशों के बावजूद उसके लिए अपनी तरफ से सब कुछ कर लेने के बाद भी उसका संतुष्ट न होना।
दो प्रकार के लोग हैं इस दुनिया में
(१)एक जो अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए अपने छोटेपन को छिपाने के लिए दूसरों को नकारते हैं। उनके संशाधनों से उनकी वाक् से मेधा से आतंकित होकर उन्हें नकारते हैं दुत्कारते हैं लांछित करते हैं उन पर तरह तरह के इल्ज़ामात लगाते हैं। ऐसा करने से उन्हें संतोष मिलता है। कितने लोगों से वे घृणा करते हैं ये उनका हासिल है। कितने लोगों को वह असंतुष्ट कर पाते हैं यही उनकी कामयाबी है जिंदगी में।यही उनका कम्फर्ट लेवल है। तंगदिल होते हैं ऐसे लोग।
(२) दूसरे वह जो ये देखते हैं मैं कितने लोगों को अपनी तवज्जो दे पाता हूँ . प्यार कर पाता हूँ। उनके हृदय का परिसर विशाल होता है। वह यह नहीं देखते दूसरे के पास क्या है सिर्फ यह देखते हैं मैं उसकी कैसे मदद करू.
कृष्ण द्वैपायन व्यास ने महाभारत में कहा है :औरों को सुख देना ही धर्म है दुःख देना अधर्म है।
तुलसीदास ने इसी बात को कुछ यूँ कहा है :
परहित सरिस धरम नहिं भाई ,
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।
बचपन में दो मुहावरे रोज़ ब रोज़ सुने। आप भी भागी बनिए :
(१)माँ मरी धी को धी मरी मोटे से यारों को -बोले तो माँ ने लाख कोशिश की धी का चरित्र ठीक रहे उठ बैठ सही लोगों के साथ रहे लेकिन वह बिगड़ गई मोटे मोटे यारों के संग हो ली।एक न सुनी उसने माँ की अपनी मनमानी ही की।
(२)लैंड सतर न होना :यानी किसी व्यक्ति का आपकी तमाम कोशिशों के बावजूद उसके लिए अपनी तरफ से सब कुछ कर लेने के बाद भी उसका संतुष्ट न होना।
दो प्रकार के लोग हैं इस दुनिया में
(१)एक जो अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए अपने छोटेपन को छिपाने के लिए दूसरों को नकारते हैं। उनके संशाधनों से उनकी वाक् से मेधा से आतंकित होकर उन्हें नकारते हैं दुत्कारते हैं लांछित करते हैं उन पर तरह तरह के इल्ज़ामात लगाते हैं। ऐसा करने से उन्हें संतोष मिलता है। कितने लोगों से वे घृणा करते हैं ये उनका हासिल है। कितने लोगों को वह असंतुष्ट कर पाते हैं यही उनकी कामयाबी है जिंदगी में।यही उनका कम्फर्ट लेवल है। तंगदिल होते हैं ऐसे लोग।
(२) दूसरे वह जो ये देखते हैं मैं कितने लोगों को अपनी तवज्जो दे पाता हूँ . प्यार कर पाता हूँ। उनके हृदय का परिसर विशाल होता है। वह यह नहीं देखते दूसरे के पास क्या है सिर्फ यह देखते हैं मैं उसकी कैसे मदद करू.
कृष्ण द्वैपायन व्यास ने महाभारत में कहा है :औरों को सुख देना ही धर्म है दुःख देना अधर्म है।
तुलसीदास ने इसी बात को कुछ यूँ कहा है :
परहित सरिस धरम नहिं भाई ,
परपीड़ा सम नहिं अधमाई।
2 टिप्पणियां:
आज सब उलट-पुलट हो चूका है
परपीड़ा सरिस धरम नहिं भाई ,
परहित सम नहिं अधमाई। :-(
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
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