'श्रेय के खेल' में पीछे छूटा एक PM
मनमोहन सिंह 'प्रथम' के समय अमेरिकी दूतावास ने नई सरकार के साथ अपने संबंधो के बारे में एक पुस्तिका छापी थी, जिसमें पूरे पेज पर सोनिया गांधी का चित्र था और अगले पेज पर पासपोर्ट आकार में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का छोटा सा चित्र छाप कर दोनों देशो के बीच संबंधो की प्रचारात्मक जानकारी दी गई थी। प्रधानमंत्री का छोटा सा फोटो और सोनिया गांधी का बड़ा फोटो अमेरिकियों को छापना स्वाभाविक ही लगा, क्योंकि वो भी समझते थे कि वास्तविक शासक कौन है? लेकिन भारत के लिए यह अपमानजनक था। आखिरकार संवैधानिक सत्ता के प्रमुख तो मनमोहन सिंह थे और सम्मान का बड़ा हकदार भी उनको ही होना चाहिए था। यह बात जब हमने पांचजन्य में छापी और बाकी अखबारों में भी आई तो काफी आलोचना हई। अमेरिकियों ने कोई स्पष्टीकरण तो नहीं दिया पर उनके अगले प्रकाशनों में देखने में आया कि प्रमुखता मनमोहन सिंह को ही मिली है।
उस समय मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार और प्रतिष्ठित पत्रकार संजय बारू थे। देश में ऐसे बहुत कम संपादक होंगे जो उनकी कलम की ताकत और सत्यनिष्ठा का स्तर छू सकें। डॉक्टर मनमोहन सिंह का भी उनपर अगाध विश्वास था। हाल ही में उनकी किताब ‘दी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ यानी आकस्मिक संयोगवश बने प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री कार्यालय और 10 जनपथ के बीच प्रभुता की स्पर्धा को बेनकाब किया है। जिस माहौल का अहसास सबको होता ही था, उसका सप्रमाण विवरण पढ़ना बेहद दुखद और एक भारतीय होने के नाते अपमानजनक है। जो व्यक्ति भारत के प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हो वह भारत का प्रतिनिधित्व करता है, व्यक्ति या पार्टी का नहीं। उसके पीछे संविधान की शक्ति होती है। वह अगर किसी संविधानेतर शक्ति के आगे दास भाव से खड़ा रहने के लिए विवश किया जाए तो वह संविधान और प्रजा का तिरस्कार ही माना जाएगा।
जरूरी नहीं है कि मनमोहन सिंह के प्रति किसी की सहानुभूति हो ही, लेकिन प्रधानमंत्री पद की गरिमा को पारिवारिक सामंतशाहों द्वारा तिरिस्कृत करना अस्वीकार्य होना चाहिए, और इस सम्बन्ध में पार्टी तथा विचारधारा से परे हटकर सोचना चाहिए।
सवाल उठता है कि मनमोहन सिंह ने 10 जनपथ के हाथों अपना अपमान स्वीकार क्यों किया? जब संजय बारू ने उनसे कहा कि पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रमुख सचिव ब्रजेश मिश्र के बारे में कुछ लोग टिप्पणी करते हैं कि वह प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार करते थे और वर्तमान प्रधानमंत्री यानी मनमोहन सिंह प्रमुख सचिव की तरह व्यवहार कर रहे हैं तो इस इशारे को भी मनमोहन सिंह ने यह कहकर टाल दिया कि लोग मेरी आलोचना में कुछ भी कहते रहें, मुझे परवाह नहीं।
मनरेगा योजना को भी मनमोहन सिंह ने व्यक्तिगत रूप से बढ़ावा दिया और इस बात की घोषणा लाल किले से अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी कर दी थी कि 200 जिलो से इस योजना को 500 जिलों तक बढ़ाया जाएगा। लेकिन राहुल गांधी इसका श्रेय खुद लेना चाहते थे। अहमद पटेल ने मनमोहन सिंह से मुलाकात की और संजय बारू को एक प्रेस विज्ञप्ति का मसौदा देकर कहा कि उसे प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी करवा दें। संजय बारू ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि प्रधानमंत्री से किसी व्यक्ति के भेंट के बाद उसके नाम पर विज्ञप्ति जारी करने की कोई परंपरा नहीं है। बाद में वही विज्ञप्ति अन्य अखबारों में पार्टी की तरफ से भेजी गई, जिसमें मनरेगा योजना को 500 जिलों तक लागू करने की बात राहुल गांधी के आग्रह या आदेश का परिणाम बताई गई।
जब इंडियन एक्सप्रेस से संजय बारू को इसकी जानकारी देते हुए पूछा गया तो उन्होंने इसकी वास्तविकता बताई। इसके बाद इंडियन एक्सप्रेस में मनमोहन सिंह का पक्ष छपा और बाकी तमाम अखबारों में केवल राहुल गांधी को श्रेय दिया गया। अमेरिका से परमाणु नागरिक संधि के सदन में पारित किया जाने के दौर में सोनिया गांधी के एक बयान पर मनमोहन सिंह ने संजय बारू के पिता तथा प्रसिद्द रक्षा विशेषज्ञ के. सुब्रमण्यम से कहा भी कि सोनिया गांधी ने मुझे नीचा दिखा दिया है।
अभी कुछ माह पहले, सितंबर 2013 में जब मनमोहन सिंह अमेरिका यात्रा पर थे, तब दिल्ली के प्रेस क्लब में राहुल गांधी ने दागी जनप्रतिनिधियों को जेल से बचाने वाले अधिनियम को फाड़ कर फेंकने योग्य बताया जो सीधे मनमोहन सिंह और उनके मंत्रिमंडल पर टिप्पणी थी। इसके बाद सरकार ने वह अधिनियम, जो मंत्रिमंडल द्वारा पारित किया जा चुका था, वापस लेने की घोषणा कर दी। 10 जनपथ परिवार के सुपुत्र द्वारा वयोवृद्ध प्रधानमंत्री का उस समय सार्वजनिक तिरस्कार करना, जब वह विदेश में हों, किसी को नहीं सुहाया। संजय बारू ने उस समय मनमोहन सिंह को सलाह दी थी कि वह इस मौके पर अपने पद की प्रतिष्ठा बचाने के लिए इस्तीफा दे दें, लेकिन मनमोहन सिंह ने वह अपमान भी पी लिया और राहुल गांधी को श्रेय देते रहे।
क्या मनमोहन सिंह को लगातार इस प्रकार का अपमान सहने की आवश्यकता थी? यदि 10 जनपथ उन्हें हल्के ढंग से लेने और उन्हें कठपुतली संवैधानिक प्रमुख में बदलने का दोषी है तो मनमोहन सिंह भी इस बात के दोषी हैं कि उन्होंने यह सब चुपचाप स्वीकार किया तथा अपने संवैधानिक पद के मान अपमान से विचलित हुवे बिना बस पद पर बने रहे।
पार्टी अर्थात 10 जनपथ और प्रधानमंत्री पद के संस्थान में कितनी खटास तथा स्पर्धात्मक दूरियां बन गई थीं, इसका पुस्तक में विवरण दिया गया है। यहां तक कि 10 जनपथ के वफादार मंत्रियो द्वारा प्रछन्न रूप से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अवहेलना और उन्हें हाशिए पर रख कर वास्तविक सत्ता का संचालन 10 जनपथ से कराना सामान्य बात थी। जब प्रणब मुखर्जी विदेश मंत्री थे तो वह अमेरिका यात्रा से लौटकर जब भारत पहुचे तो उन्होंने सोनिया गांधी को अपनी अमेरिकी यात्रा का विवरण आते ही दिया, लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से न तो मिले ना ही मिलने का समय मांगा। मनमोहन सिंह के ही विदेश मंत्री उनको ही अपनी अमेरिका यात्रा का विवरण देने की आवश्यकता न समझें, यह बात संजय बारू को उचित नहीं लगी और उन्होंने मनमोहन सिंह से इस विषय में कहा भी। बाद में क्या हुआ यह पता नहीं पर अगले ही दिन प्रणब मुखर्जी मनमोहन सिंह से मिलने आए तथा अपनी यात्रा की रिपोर्ट दी।
पार्टी में 10 जनपथ के वफादारो द्वारा बार-बार मनमोहन सिंह को छोटा दिखाने की कोशिशे होती रही। मनमोहन सिंह द्वारा घोषित बड़ी योजनाओ का श्रेय तो सोनिया और राहुल गांधी को दिया जाता रहा लेकिन अगर कहीं पार्टी हारी या उसका ग्राफ नीचे गिरा तो उसका ठीकरा मनमोहन सिंह और उनकी सरकार की अक्षमताओ पर फोड़ा जाता रहा।
पाञ्चजन्य के संपादक के नाते डॉक्टर मनमोहन सिंह की प्रथम पारी के समय मैंने उनसे मिलने का समय लिया था और लगभग एक घंटे तक विभिन्न विषयों पर चर्चा हई। उस चर्चा का सार मैंने प्रधानमंत्री की अनुमति से पाञ्चजन्य में छापा जो सकारात्मक ही था, क्योंकि तब तक मनमोहन सिंह को कुछ करने या न करने का अवसर ही नहीं मिला था। बस इतना भर छापना किसी भी दृष्टि से आलोचनात्मक भी नहीं था, लेकिन उसपर भी देश के अखबारों में हंगामा मच गया। पार्टी से जयंती नटराजन जैसे 10 जनपथ भक्तों ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपना पहला साक्षात्कार पाञ्चजन्य के संपादक तरुण विजय को क्यों दिया। लगभग चार-पांच दिन अखबारों में बयानबाजी का ऐसा क्रम चलाया गया जिससे मनमोहन सिंह को केवल मुझसे भेंट करने के 'गुनाह' के कारण कटघरे में खड़ा किया जा सके।
श्रेय तो इस बात का दिया जा सकता है कि मनमोहन सिंह और उनके कार्यालय ने कभी भी इस भेंट के लिए अफसोस व्यक्त नहीं किया और जब मैं एक महीने बाद राष्ट्रपति भवन में एक विदेशी नेता के सम्मान में दिए गए भोज के समय उनसे मिला और कहा कि सिर्फ आपसे मिलने के कारण अखबारों में जो हंगामा खड़ा किया गया है, उससे मुझे बहुत दुख हुआ तो मनमोहन सिंह ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा कि आपको दुख अनुभव करने की कोई जरुरत नहीं है। उन्होंने कहा कि कुछ लोग जो परेशान होते आ रहे हैं, उनको होने दो। मेरे मन पर इसका कोई असर नहीं होता।
दिल्ली की राजनीति में हर कोई खुद को फरिश्ता और दूसरे को निशाचर घोषित करने की कवायद करता है। 10 जनपथ और मनमोहन सिंह के बीच की दीवार खुद को फरिश्ता घोषित करने वाले सामंती राजनेताओ का खेल ही कहा जा सकता है। शुक्र है कि देश इस दोहरे सत्ता केन्द्र से जल्द ही मुक्ति पाने की और बढ़ रहा है।
सन्दर्भ -सामिग्री :यत्नपूर्वक प्रेस से बटोरी गई सामग्री :GLEANINGS FROM THE PRESS
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