आत्मा की खुराक है ख़ुशी
ख़ुशी वह शह है जो हमारे नकारात्मक स्वभाव संस्कार को बदल हमारे अनुभूत अभावों को समाप्त कर देती है .होंठों की मुस्कान जीवन की हर्षित मुखता है ख़ुशी .मुस्कान चेहरे का आभूषण है अलंकरण है जिस चेहरे पे मुस्कान नहीं वह चेहरा फीका रह जाता है .
किसी शायर ने कहा है -
ज़िन्दगी जब भी रुलाने लगे ,
आप इतना मुस्कुराओ ,ज़िन्दगी शर्माने लगे .
फटोग्रेफर फोटो उतारने से पूर्व आपको कहता है -स्माइल प्लीज़ .ज़रा सोचिये जब ज़रा सी मुस्कान से फोटो अच्छा आ सकता है तो सदा ही मुस्कुराते रहने से क्या ज़िन्दगी खुशहाल न होगी ?
आखिर चलते चलते जीवन में ऐसा क्या आ जाता है, हमारी ख़ुशी गायब हो जाती है .हम इतने कमज़ोर हैं किसी ने हमसे ठीक से व्यवहार नहीं किया बस हमारी ख़ुशी कम हो जाती है .मन हलचल में आजाता है .उसने मुझसे ऐसा क्यों कहा वैसा क्यों कहा .बस पकड़ के बैठ जाते हैं हम उसके व्यवहार को शब्दों को .
ज़रा सोचिये प्यार से बात करते समय हम क्या करते हैं .कब किससे कित्ती बार प्यार से बात करना है यह भी हम निश्चय कर लेते हैं .अरे मैं ने तो तीन चार बार उससे प्यार से बात की उसने कोई रेस्पांस ही नहीं दिया .चूल्हे में जाए वह .ज़रा सोचिये बस इत्ता ही लक्ष्य था आपका ?वह प्यार से बात करे तो मैं भी करूँ .क्या प्यार करना एक व्यापार है ?ये तो एक्सचेंज हुआ भाईसाहब . यह प्यार का व्यापार चल रहा है इसलिए इससे जीवन में ख़ुशी हो ही नहीं सकती .
ज़रा सोचिये हम किसे महत्व दे रहें हैं सामने वाले के व्यवहार को या अपनी प्यार करने की विशेषता को .अपनी आदत ,स्वभाव संस्कार को ?उसने मुझे देखकर मुंह उधर कर लिया .मैं भी ऐसा ही करूँ ?
जब हम ऐसा करते हैं हम सामने वाले के नकारात्मक स्वभाव संस्कार की नकल कर रहें हैं .नकल करनी ही है तो मैं अच्छी बात की करूँ ,गलत बात की नकल क्यों करूँ ?
मैं अपनी ओरिजिनल विशेषता से ही व्यवहार करूँ .क्यों छोड़ू अपनी विशेषता को .दिक्कत यह है हमने इन चीज़ों को नेचुरल समझना शुरू कर दिया है .हम अपने मूल स्वभाव ,स्वमान ,अपने आत्म स्वरूप को भूल गए हैं .कई तो आत्मा के स्वरूप ,आत्मा के अस्तित्व को ही नकारने लगें हैं .कहतें हैं आत्मा तो एक काल्पनिक विचार मात्र है वास्तविक तत्व नहीं है.अपने को देह मानने लगें हैं हम लोग .देह दर्शन ,देह प्रतियोगिता में ही मशगूल हैं दिन रात .इसलिए आत्मा के निजी गुणों की भी ह्त्या हो गई है जबकि अपने बुनियादी स्वरूप में आत्मा (चैतन्य शक्ति ,चैतन्य ऊर्जा )आनंद स्वरूप है ,प्रेम स्वरूप है ख़ुशी आत्मा की खुराक है .जैसे देह की खुराक भोजन है .देह दर्शन ,देह के सम्बन्ध स्वरूप को ही हम सब कुछ मानने लगें हैं .जबकि देह से परे ,पञ्च तत्वों से परे जो निराकार सूक्ष्म सनातन तत्व है वही इस शरीर का करता धरता है स्वामी है .दिव्य आत्मा है .यह शरीर तो आत्मा का अस्थाई घर है .उसका मूल वतन तो ब्रह्म तत्व ,ब्रह्म लोक है .उसका स्थाई निवास परमधाम है सूरज चाँद सितारा से परे ,परे से भी परे जो शान्ति धाम है मुक्ति धाम है वही आत्मा का घर है .यह शरीर तो जड़ है .आज है कल नहीं है निरंतर परिवर्तन होता रहता है छीजता रहता है .आत्मा पर भी कर्म का सूक्ष्म प्रभाव पड़ता रहता है .जो कर्म बार बार दोहराया जाता है धीरे धीरे वही आत्मा का स्वभाव संस्कार बन जाता है .मसलन आप किसी से चिढ़ते हैं चिढ़ना धीरे धीरे आपका स्वभाव बन जाता है .
जबकि इंद्र धनुष के सात रंगों की तरह आत्मा भी एक सप्त वर्णी सितारा है शाइनिंग स्टार है .दिव्यज्योति है .इसीलिए संध्या को दीपक जलाते समय हम अपने ही आत्म स्वरूप उस दीपक की लौ को प्रणाम करते हैं .दूकानदार के हाथ प्रणाम की मुद्रा में आजाते हैं सांझ को बत्ती जलाते वक्त .मस्तक के बीच तिलक लगाते हैं .महिलाएं बिंदी लगातीं हैं .क्योंकि शरीर में यहीं निवास करती है आत्मा इसीलिए जब आत्मा शरीर छोडती है सनातन धर्मी समाज कपाल क्रिया करता है लठ्ठ मारता है ताकि आत्मा राम मुक्त हो जाए .शरीर से पूरी तरह बे -दखल हो जाए .शरीर तो अब किसी काम का रह नहीं गया है ,हमारी आत्मा भी कमज़ोर हो चली है जीते जी .
ज्ञान ,पवित्रता ,शान्ति ,प्रेम ,आनंद ,शक्ति ,प्रसन्नता यह मेरा (मुझ आत्मा का ही )निजी गुण धर्म था .कहाँ छीज गया यह गुण ?
जब तक जीवन में तनिक आध्यात्मिकता नहीं होगी ख़ुशी आ नहीं सकती .चाहे पार्क में सुबह सवेरे जाके हम कितना भी ठाहाका मारते रहें तालियाँ पीटते रहें .शरीर को भले कुछ लाभ हो इस कसरत से आत्मा को कोई लाभ नहीं पहुंचेगा .
मुझे अपने व्यवहार में आत्मा के निजी गुणों को ही महत्व देना है किसी और के व्यवहार को नहीं .यह संकल्प कर लें .दोहरालें मैं उस परम पिता का वंश हूँ (अंश नहीं ),संतान हूँ जो विश्व की समस्त आत्माओं का सच्चा सच्चा पिता है .निरहंकारी पिता है सुखदाता दुःख हरता .उसी का वंश हूँ उसी के गुण धर्म धारूं किसी ऐरे गैरे नथ्थू खैरे (एवरी टॉम एंड हेरी )के नहीं .
उसने ऐसा कहा तो क्यों कहा .ऐसे मुझे देखा तो क्यों देखा .डंक मारना बिच्छु की आदत है .वह अपने स्वभाव में है .मैं अपने स्वभाव में रहूँ .अपनी स्थिति क्यों खराब करूँ ?
सामने वाला व्यक्ति भूल कर रहा है ,तो मैं भी करूँ ?जीवन को जीने का आपका एक अंदाज़ होना चाहिए .
कोई परिस्थिति आ गई .रुक कर बस इतना सोचिये परिस्थिति ने मेरी स्थिति बिगाड़ी या मेरी सोच ने .आपकी नै गाड़ी में किसी ने टक्कर मार दी , आप तैश में आगये .भाई साहब उसका डेंट निकल जाएगा .आपकी सोच बिगड़ेगी तो उसका आपके शरीर पर भी प्रभाव पडेगा .एक नुकसान के पीछे एक और बड़ा नुकसान कर लेना कहाँ की अक्लमंदी है .
बात साफ़ है हम अपनी निजी शक्ति को भूल चुकें हैं भूल चुकें हैं हम किसकी संतान हैं .देह के पिता पर गुमान कर रहें हैं सामने वाले को कह रहें हैं -तुझे मालूम है मेरा बाप कौन है ?लौकिक बाप की शक्ति पर उछल रहें हैं पारलौकिक को भूल .जबकि लौकिक बाप तो हमारी देह का ही पिता है आत्मा का नहीं .आत्मा का पिता भी आत्मा ही होगा यह हमें अब याद नहीं है यही हमारे दुखों का कारण है .वह पिता है परमपरमात्मा जिसे हमने सर्वव्यापी कह उसकी बड़ी अवमानना की है .फिर तो भगत ही भगवान हो गया .फिर क्या भगवान ही भगवान की पूजा कर रहा है . फिर क्यों कहा जाता है आत्मा और परमात्मा अलग रहे बहुकाल .
परिश्थितियाँ तो आती रहतीं हैं .साइड सीन्स हैं इन्हें बड़ा नहीं मानना है .परिश्थितियाँ शक्ति शाली नहीं हैं हम शक्तिशाली हैं .मैं अपनी स्थिति सुधार लूं तो परिश्थिति आपसे आप छोटी हो जाती है .जैसे विमान से देखने पर पृथ्वी छोटी दिखने लगती है .अपने उसी स्वमान में टिकके मैं परिश्थिति को देखूं .
सामने वाला व्यक्ति मुझे धोखा तो दे सकता है दर्द नहीं .दर्द हम खुद पैदा कर लेते हैं .हम उसे पकड़ के बैठे रहते हैं उस दर्द को .जबकि ख़ुशी और दर्द अपोजिट हैं रात दिन की तरह .अगर ख़ुशी चाहिए तो दर्द को छोड़ो पकडे हुए क्यों बैठे हो .
रात गई सो बात गई ..हो ली सो हो ली .
लेकिन हम घटना को उससे पैदा स्थिति को पकड़े पकड़े अपनी स्थिति को भी खराब कर लेते हैं .
हम आत्माएं बे -दागी हीरा हैं .दागी बन जाते हैं परिश्थिति को पकड़ के जबकि असली हीरा धूप में गर्म नहीं होता हम ज़रा सी सी परिश्थिति से गर्म हो जातें हैं .
अगर जीवन में ख़ुशी चाहिए तो अपने आपको शक्तिशाली समझो .मेरी खुद की सोच मेरी ख़ुशी की हकदार है .
हमारा स्वभाव और जीवन के अ -भाव ये दो ही बातें हैं जो हमें तंग करती हैं .जब इन दोनों में कनेक्शन हो जाता है ,जीवन दुखमय हो जाता है .इसलिए ख़ुशी हासिल करने के लिए मुझे अपनी सोच को बदलना होगा .किसी की कही बातों को नहीं खुद को बड़ा समझना है .
ये संसार प्रकृति और पुरुष के मेल से बनता है .मन में उठने वाले विचारों से प्रवृत्ति का निर्माण होता है .याद रहे जो हमने सोचा ,दूसरे को दिया वही लौटके हमारे पास आयेगा .
मन को अगर अच्छे संस्कार नहीं देंगें ,यह गलत ही सोचता रहेगा .फिर हम कह उठते हैं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है .मैं ने किसी का क्या बिगाड़ा है ?
इसलिए मन की शक्ति के सृजनात्मक प्रयोग करें .अपने मन को दिशा दें .आदेश दें .आत्मा की मनन शक्ति है आपका मन इसे मनमानी न करने दें .आप इसके मालिक बनें .आत्मा की निर्णय शक्ति है बुद्धि .बुद्धि का पात्र शुद्ध रखें .निर्णय करने की इस शक्ति में निखार आयेगा .हमारे दिन की शुरुआत अच्छी हो इसपर पूरा पूरा ध्यान दें .ख़ुशी में रहने और ख़ुशी बांटने की प्रतिज्ञा करें .सुबह उठके शिव बाबा को गुड मोर्निंग कहें ,हेपी मोर्निंग ,गोल्डन मोर्निंग कहें .सोते वक्त भीयाद में सोयें . नारायणी नशा रहे .ॐ शान्ति .
ख़ुशी वह शह है जो हमारे नकारात्मक स्वभाव संस्कार को बदल हमारे अनुभूत अभावों को समाप्त कर देती है .होंठों की मुस्कान जीवन की हर्षित मुखता है ख़ुशी .मुस्कान चेहरे का आभूषण है अलंकरण है जिस चेहरे पे मुस्कान नहीं वह चेहरा फीका रह जाता है .
किसी शायर ने कहा है -
ज़िन्दगी जब भी रुलाने लगे ,
आप इतना मुस्कुराओ ,ज़िन्दगी शर्माने लगे .
फटोग्रेफर फोटो उतारने से पूर्व आपको कहता है -स्माइल प्लीज़ .ज़रा सोचिये जब ज़रा सी मुस्कान से फोटो अच्छा आ सकता है तो सदा ही मुस्कुराते रहने से क्या ज़िन्दगी खुशहाल न होगी ?
आखिर चलते चलते जीवन में ऐसा क्या आ जाता है, हमारी ख़ुशी गायब हो जाती है .हम इतने कमज़ोर हैं किसी ने हमसे ठीक से व्यवहार नहीं किया बस हमारी ख़ुशी कम हो जाती है .मन हलचल में आजाता है .उसने मुझसे ऐसा क्यों कहा वैसा क्यों कहा .बस पकड़ के बैठ जाते हैं हम उसके व्यवहार को शब्दों को .
ज़रा सोचिये प्यार से बात करते समय हम क्या करते हैं .कब किससे कित्ती बार प्यार से बात करना है यह भी हम निश्चय कर लेते हैं .अरे मैं ने तो तीन चार बार उससे प्यार से बात की उसने कोई रेस्पांस ही नहीं दिया .चूल्हे में जाए वह .ज़रा सोचिये बस इत्ता ही लक्ष्य था आपका ?वह प्यार से बात करे तो मैं भी करूँ .क्या प्यार करना एक व्यापार है ?ये तो एक्सचेंज हुआ भाईसाहब . यह प्यार का व्यापार चल रहा है इसलिए इससे जीवन में ख़ुशी हो ही नहीं सकती .
ज़रा सोचिये हम किसे महत्व दे रहें हैं सामने वाले के व्यवहार को या अपनी प्यार करने की विशेषता को .अपनी आदत ,स्वभाव संस्कार को ?उसने मुझे देखकर मुंह उधर कर लिया .मैं भी ऐसा ही करूँ ?
जब हम ऐसा करते हैं हम सामने वाले के नकारात्मक स्वभाव संस्कार की नकल कर रहें हैं .नकल करनी ही है तो मैं अच्छी बात की करूँ ,गलत बात की नकल क्यों करूँ ?
मैं अपनी ओरिजिनल विशेषता से ही व्यवहार करूँ .क्यों छोड़ू अपनी विशेषता को .दिक्कत यह है हमने इन चीज़ों को नेचुरल समझना शुरू कर दिया है .हम अपने मूल स्वभाव ,स्वमान ,अपने आत्म स्वरूप को भूल गए हैं .कई तो आत्मा के स्वरूप ,आत्मा के अस्तित्व को ही नकारने लगें हैं .कहतें हैं आत्मा तो एक काल्पनिक विचार मात्र है वास्तविक तत्व नहीं है.अपने को देह मानने लगें हैं हम लोग .देह दर्शन ,देह प्रतियोगिता में ही मशगूल हैं दिन रात .इसलिए आत्मा के निजी गुणों की भी ह्त्या हो गई है जबकि अपने बुनियादी स्वरूप में आत्मा (चैतन्य शक्ति ,चैतन्य ऊर्जा )आनंद स्वरूप है ,प्रेम स्वरूप है ख़ुशी आत्मा की खुराक है .जैसे देह की खुराक भोजन है .देह दर्शन ,देह के सम्बन्ध स्वरूप को ही हम सब कुछ मानने लगें हैं .जबकि देह से परे ,पञ्च तत्वों से परे जो निराकार सूक्ष्म सनातन तत्व है वही इस शरीर का करता धरता है स्वामी है .दिव्य आत्मा है .यह शरीर तो आत्मा का अस्थाई घर है .उसका मूल वतन तो ब्रह्म तत्व ,ब्रह्म लोक है .उसका स्थाई निवास परमधाम है सूरज चाँद सितारा से परे ,परे से भी परे जो शान्ति धाम है मुक्ति धाम है वही आत्मा का घर है .यह शरीर तो जड़ है .आज है कल नहीं है निरंतर परिवर्तन होता रहता है छीजता रहता है .आत्मा पर भी कर्म का सूक्ष्म प्रभाव पड़ता रहता है .जो कर्म बार बार दोहराया जाता है धीरे धीरे वही आत्मा का स्वभाव संस्कार बन जाता है .मसलन आप किसी से चिढ़ते हैं चिढ़ना धीरे धीरे आपका स्वभाव बन जाता है .
जबकि इंद्र धनुष के सात रंगों की तरह आत्मा भी एक सप्त वर्णी सितारा है शाइनिंग स्टार है .दिव्यज्योति है .इसीलिए संध्या को दीपक जलाते समय हम अपने ही आत्म स्वरूप उस दीपक की लौ को प्रणाम करते हैं .दूकानदार के हाथ प्रणाम की मुद्रा में आजाते हैं सांझ को बत्ती जलाते वक्त .मस्तक के बीच तिलक लगाते हैं .महिलाएं बिंदी लगातीं हैं .क्योंकि शरीर में यहीं निवास करती है आत्मा इसीलिए जब आत्मा शरीर छोडती है सनातन धर्मी समाज कपाल क्रिया करता है लठ्ठ मारता है ताकि आत्मा राम मुक्त हो जाए .शरीर से पूरी तरह बे -दखल हो जाए .शरीर तो अब किसी काम का रह नहीं गया है ,हमारी आत्मा भी कमज़ोर हो चली है जीते जी .
ज्ञान ,पवित्रता ,शान्ति ,प्रेम ,आनंद ,शक्ति ,प्रसन्नता यह मेरा (मुझ आत्मा का ही )निजी गुण धर्म था .कहाँ छीज गया यह गुण ?
जब तक जीवन में तनिक आध्यात्मिकता नहीं होगी ख़ुशी आ नहीं सकती .चाहे पार्क में सुबह सवेरे जाके हम कितना भी ठाहाका मारते रहें तालियाँ पीटते रहें .शरीर को भले कुछ लाभ हो इस कसरत से आत्मा को कोई लाभ नहीं पहुंचेगा .
मुझे अपने व्यवहार में आत्मा के निजी गुणों को ही महत्व देना है किसी और के व्यवहार को नहीं .यह संकल्प कर लें .दोहरालें मैं उस परम पिता का वंश हूँ (अंश नहीं ),संतान हूँ जो विश्व की समस्त आत्माओं का सच्चा सच्चा पिता है .निरहंकारी पिता है सुखदाता दुःख हरता .उसी का वंश हूँ उसी के गुण धर्म धारूं किसी ऐरे गैरे नथ्थू खैरे (एवरी टॉम एंड हेरी )के नहीं .
उसने ऐसा कहा तो क्यों कहा .ऐसे मुझे देखा तो क्यों देखा .डंक मारना बिच्छु की आदत है .वह अपने स्वभाव में है .मैं अपने स्वभाव में रहूँ .अपनी स्थिति क्यों खराब करूँ ?
सामने वाला व्यक्ति भूल कर रहा है ,तो मैं भी करूँ ?जीवन को जीने का आपका एक अंदाज़ होना चाहिए .
कोई परिस्थिति आ गई .रुक कर बस इतना सोचिये परिस्थिति ने मेरी स्थिति बिगाड़ी या मेरी सोच ने .आपकी नै गाड़ी में किसी ने टक्कर मार दी , आप तैश में आगये .भाई साहब उसका डेंट निकल जाएगा .आपकी सोच बिगड़ेगी तो उसका आपके शरीर पर भी प्रभाव पडेगा .एक नुकसान के पीछे एक और बड़ा नुकसान कर लेना कहाँ की अक्लमंदी है .
बात साफ़ है हम अपनी निजी शक्ति को भूल चुकें हैं भूल चुकें हैं हम किसकी संतान हैं .देह के पिता पर गुमान कर रहें हैं सामने वाले को कह रहें हैं -तुझे मालूम है मेरा बाप कौन है ?लौकिक बाप की शक्ति पर उछल रहें हैं पारलौकिक को भूल .जबकि लौकिक बाप तो हमारी देह का ही पिता है आत्मा का नहीं .आत्मा का पिता भी आत्मा ही होगा यह हमें अब याद नहीं है यही हमारे दुखों का कारण है .वह पिता है परमपरमात्मा जिसे हमने सर्वव्यापी कह उसकी बड़ी अवमानना की है .फिर तो भगत ही भगवान हो गया .फिर क्या भगवान ही भगवान की पूजा कर रहा है . फिर क्यों कहा जाता है आत्मा और परमात्मा अलग रहे बहुकाल .
परिश्थितियाँ तो आती रहतीं हैं .साइड सीन्स हैं इन्हें बड़ा नहीं मानना है .परिश्थितियाँ शक्ति शाली नहीं हैं हम शक्तिशाली हैं .मैं अपनी स्थिति सुधार लूं तो परिश्थिति आपसे आप छोटी हो जाती है .जैसे विमान से देखने पर पृथ्वी छोटी दिखने लगती है .अपने उसी स्वमान में टिकके मैं परिश्थिति को देखूं .
सामने वाला व्यक्ति मुझे धोखा तो दे सकता है दर्द नहीं .दर्द हम खुद पैदा कर लेते हैं .हम उसे पकड़ के बैठे रहते हैं उस दर्द को .जबकि ख़ुशी और दर्द अपोजिट हैं रात दिन की तरह .अगर ख़ुशी चाहिए तो दर्द को छोड़ो पकडे हुए क्यों बैठे हो .
रात गई सो बात गई ..हो ली सो हो ली .
लेकिन हम घटना को उससे पैदा स्थिति को पकड़े पकड़े अपनी स्थिति को भी खराब कर लेते हैं .
हम आत्माएं बे -दागी हीरा हैं .दागी बन जाते हैं परिश्थिति को पकड़ के जबकि असली हीरा धूप में गर्म नहीं होता हम ज़रा सी सी परिश्थिति से गर्म हो जातें हैं .
अगर जीवन में ख़ुशी चाहिए तो अपने आपको शक्तिशाली समझो .मेरी खुद की सोच मेरी ख़ुशी की हकदार है .
हमारा स्वभाव और जीवन के अ -भाव ये दो ही बातें हैं जो हमें तंग करती हैं .जब इन दोनों में कनेक्शन हो जाता है ,जीवन दुखमय हो जाता है .इसलिए ख़ुशी हासिल करने के लिए मुझे अपनी सोच को बदलना होगा .किसी की कही बातों को नहीं खुद को बड़ा समझना है .
ये संसार प्रकृति और पुरुष के मेल से बनता है .मन में उठने वाले विचारों से प्रवृत्ति का निर्माण होता है .याद रहे जो हमने सोचा ,दूसरे को दिया वही लौटके हमारे पास आयेगा .
मन को अगर अच्छे संस्कार नहीं देंगें ,यह गलत ही सोचता रहेगा .फिर हम कह उठते हैं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है .मैं ने किसी का क्या बिगाड़ा है ?
इसलिए मन की शक्ति के सृजनात्मक प्रयोग करें .अपने मन को दिशा दें .आदेश दें .आत्मा की मनन शक्ति है आपका मन इसे मनमानी न करने दें .आप इसके मालिक बनें .आत्मा की निर्णय शक्ति है बुद्धि .बुद्धि का पात्र शुद्ध रखें .निर्णय करने की इस शक्ति में निखार आयेगा .हमारे दिन की शुरुआत अच्छी हो इसपर पूरा पूरा ध्यान दें .ख़ुशी में रहने और ख़ुशी बांटने की प्रतिज्ञा करें .सुबह उठके शिव बाबा को गुड मोर्निंग कहें ,हेपी मोर्निंग ,गोल्डन मोर्निंग कहें .सोते वक्त भीयाद में सोयें . नारायणी नशा रहे .ॐ शान्ति .
9 टिप्पणियां:
@ मन को अगर अच्छे संस्कार नहीं देंगें ,यह गलत ही सोचता रहेगा .फिर हम कह उठते हैं मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है .मैं ने किसी का क्या बिगाड़ा है ?
सही और मूल्यवान लेख है वीरू भाई , मगर शक है कि इसे ध्यान से पढ़ा और समझा जाएगा !
आभार आपका !
नारायणी नशा रहे ......
बेहद ही शानदार पोस्ट...
हमारे दिन की शुरुआत अच्छी हो इसपर पूरा पूरा ध्यान दें ..... सही बात कही आपने ...मैं पूरा ध्यान रखती हूँ इसका शायद यही वजह है की बहुत सारी परेशानियाँ अपनेआप ही दूर रहती है मुझसे ....खुश रहना आदत बना लेनी चाहिए ...बहुत ही सारगर्भित रचना है ..जिसमे जीवन का राज छिपा है ..आभार ...
सच कहा, प्रसन्नता स्वयं के लिये ही हो।
आज तो बहुत ही सुंदर सुत्र थमा दिये आपने, इनको अपना कर जीवन सुंदरतम रूप से जीया जा सकता है. बहुत आभार.
रामराम.
आपने सच कहा,आत्मा की खुराक है ख़ुशी ही है,
RECENT POST : तड़प,
यह तो पूरा एक घंटे का प्रवचन हो गया। :)
बहुत अच्छी बातें कही हैं , जीवन में अनुसरणीय।
हम तो कहते हैं , ठहाके लगाने की आदत डालिए।
अनुकरणीय बातें ...... ख़ुशी भीतर से छलके
इसी खुशी की तलाश तो सभी को है -विचारोत्तेजक !
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