हमारी यह सृष्टि ये सारी कायनात एक महावाद्यवृन्द रचना में नहाई हुई है वैसे ही जैसे ये विश्व "पृष्ठभूमि विकिरण कॉस्मिक बेक-ग्राउंड रेडिएशन "में संसिक्त है डूबा हुआ है। सृष्टि का प्रादुर्भाव भी ध्वनि से ही हुआ है जिसे ओंकार या ॐ कहा गया है आज भी सूर्यनारायण से यही ध्वनि निसृत हो रही है। लेकिन हमारे कान अपने काम की ही बात सुनने के अभ्यस्त हो चले हैं। हमारे श्रवण की भी सीमा है।
इस श्रव्य परास के नीचे अवश्रव्य और इसके ऊपर पराश्रव्य ध्वनि हैं। श्रवण चंद आवृतियों ध्वनि तरंगों की लम्बाई तक ही सीमित है। २० साइकिल प्रतिसेकिंड से लेकर २० ,००० साइकिल्स प्रतिसेकिंड फ़्रीकुएंसी (आवृत्ति )की ही ध्वनियाँ हमारे श्रवण के दायरे में आती हैं।
अगर हम २० हर्ट्ज़ (एक साइकिल प्रतिसेकिंड को एक हर्ट्ज़ कहते हैं )से नीचे की ध्वनि सुनने लगें तो जीना मुहाल हो जाए हमारा। सांस की धौंकनी ,पेशियों की गति ,हमारे पदचापों की ध्वनि हमें चैन से न बैठने दे चरचराहट चरमराहट ,धमाके हम सुनते रहें अपने अंदर से बॉन कंडक्शन के द्वारा। इसीलिए हमें अपनी रिकार्ड की गई आवाज़ अपनी सी नहीं लगती क्योंकि जब हम बोलते हैं तो खुद भी तो अपनी आवाज़ सुनते हैं बॉन कंडक्शन द्वारा। अस्थियां ठोस हैं और ठोस में से ध्वनि की आवाजाही बेहतर होती है। चमकादड़ की तो आँख वे ध्वनि ही बनतीं हैं जिन्हें हम नहीं सुन पाते हैं।
अस्तबल तोड़ के घोड़े भाग खड़े होतें हैं चील कौवे आकाश को छोड़ पेड़ों पर उतर आते हैं भूकम्पीय तरंगों को भांपकर। हमारे लिए अवश्रव्य हैं ये तमाम ध्वनियाँ।
कल्पना करो एक नृत्य नाटिका आप देख रहें हैं संगीतकी माधुरी पर और संगीत को म्यूट कर दिया जाए ,कैसा लगेगा आपको। दृश्य के पूर्ण अवलोकन के लिए श्रवण ज़रूरी तत्व है।
आवाज़ हमारे हस्ताक्षर हैं आधार कार्ड है हमारा। दो व्यक्तियों की आवाज़ बेशक यकसां लग सकती है लेकिन उनका रोना धोना झींकना चिल्लाना जुदा होगा।गली में खेलते बच्चों में से यदि आपका बच्चा रो रहा है तो आप जान लेंगे बच्चा मेरा है। और नींद में भी अगर कोई आपको नाम से पुकारे भले आहिस्ता ,आप सुन लेंगे। माँ साथ में सोये बच्चे की कुनमुनाहट सुन लेगी भले कितनी गहरी नींद में हो उसे फ़ौरन थपथपा के सुला देगी।
मालिक के कदमों की आहात कुत्ते मीलों दूर से पहचान लेते हैं आप की चाल आपके भावजगत की इत्तल्ला दे देती है। कैट -वाक् का अपना सौंदर्य है।
ठुमक ठुमक मत चलो, किसी का दिल धड़केगा ,
मंद मंद मत हंसों कोई राही भटकेगा।
ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैंजनियां ....
और अगर पैंजनिया छम- छम न करें तो क्या माता कौशल्या रीझेंगी ?
आज आदमी अपने परिवेश की आवाज़ों से ही परेशान है और इसीलिए उसका संपर्क अपने ही परिवेश से कमतर होने लगा है। घर हो या बाहर आदमी आवाज़ नहीं सुनना चाहता ,दिन भर की थकान से बेदम है तनाव में है स्ट्रेस में है।
जबकि आवाज़ें सामाजिक सच का आइना हैं। सच का एक आयाम तो ज़रूर हैं ही पूरा सच न सही।
सलाम करो उस वाद्यवृन्द रचना के कंडक्टर को जिसे ये इल्म हो जाता है सौ वायालन -कारों में से किस साजिंदे का वायलिन म्यूट है। हमारे कान एक ही आवृति की आवाज़ (टोन ) के तीन से लेकर चार लाख उतार चढ़ावों को आरोह और अवरोह को ध्वनि की मात्रा यानी तीव्रता में अंतर कर सकते हैं यह क्षमता उस कंडक्टर के पास है जो वाद्यवृन्द रचना का संचालन कर रहा है। उसकी एक एक शिरा में संगीत है। पूरा सुनता है वह सबको सुनता है सबकी सुनता है। आप कितना सुनते हैं ?किसकी सुनते हैं ?
कुछ लोग शोर शराबे वाली भीड़ में घुसके ये ताड़ लेते हैं भीड़ का मूढ़ क्या है खासकर शादी ब्याह के मौकों पर आप ऐसा जमघट देखते होंगें जिसमें घुसने की हिम्मत हर कोई नहीं कर पाता। कानों पर हाथ रख लेता है शोर से आज़िज़ आकर ।
गति और कम्पन ही ध्वनि है ,हरेक गति एक ध्वनि छिपाए हुए है अपने आगोश में। न्यूक्लियस के गिर्द घूमता इलेक्ट्रॉन भी। परमाणु घड़ी उसी इलेक्ट्रॉन के कम्पन पर आधारित है।
स्पर्श एक वैयक्तिक ऐन्द्रिक सुख है ध्वनि दूर -स्पर्श है -टच एट ए डिस्टेंस।
श्रवण एक सामाजिक ऐन्द्रिक अनुभव है।
hearing is the most social of the senses .
आवाज़ें हमें अपने परिवेश के प्रति खबरदार करतीं हैं। निद्रावस्था में भी श्रवण संपन्न होता है अवचेतन स्तर पर। श्रवण हमें जगाता है। जागृत करता है।
उठ जाग मुसाफिर भोर भई ,अब रेन कहाँ जो सोवत है
सारा अध्यात्म जगत श्रवण पर खड़ा है कुछ मत कीजिये निरंतर श्रवण कीजिये यही कालान्तर में मनन (contemplation )और फिर निद्धियासन (constant contemplation ,मैडिटेशन )बन जाएगा।
जड़ चीज़ों के साथ चेतन जैसा व्यवहार करो फिर आप कुर्सी के खिसकने की अलग आवाज़ सुनेंगे। दराज खोलने खिड़की बंद करने की ,तड़के की ,दाल के खदबदाने की आवाज़ों का भी अलग ज़ायका लेंगे।
कुछ लोगों का श्रवण अति विकसित होता है परिमार्जित और गहन भी । अलग अलग सिक्कों के गिरने की आवाज़ आपको बतला देंगें।ज्योति हीन व्यक्ति आपके कमरे की लम्बाई चौड़ाई बतला देगा। उसका संसार ध्वनियों पर ही खड़ा है। ध्वनियाँ जिनसे हम लगातार कटते जा रहे हैं।
सबसे तेज़ आवाज़ (लाउड साउंड )जो हमारा कान सुन सकता है वह उस आवाज़ से जो सबसे ज़्यादा मद्धिम है दस खरब गुना ज्यादा तेज़ी लिए होती है। स्नो फ्लेक्स का गिरना ,सुईं का ज़मींन पे गिरना भी सुन लेते हैं कुछ लोग।
ऐसे होता है श्रवण ,ऐसे सुनते हैं हम आवाज़ें ?
हमारे कान का पर्दा (एअर ड्रम )कम्पन करता है बाहर के किसी भी ध्वनिक उत्तेजन /उद्दीपन से /आवाज़ से। मध्यकान में एक रकाबी की आकृति की अस्थि होती है जो एक पिस्टन की भाँती काम करते हुए इस कम्पन को आवर्धित कर देती है, एम्पलीफाई करती है। घोंघे के आकार सा होता है हमारा अंदरूनी कान जिसमें एक तरल भरा रहता है साथ ही कोई तीसेक हज़ार हेयर सेल्स भी मौजूद रहतीं हैं। ये आवाज़ की आवृत्ति के अनुरूप बेंड हो जाती है मुड़ जातीं हैं। छोटी लड़ी ऊंची तथा लम्बी लड़ी निम्न फ्रीक्वेंसी के अनुरूप ऐसी अनुक्रिया करतीं हैं।
इसी के साथ विद्युत्स्पन्दों की तेज़ी से घटबढ़ होती है जो बा -रास्ता नसों न्यूरॉन्स के ज़रिये दिमाग को खबर देती है दिमाग इसे आवाज़ के रूप में लेता है।
दूसरी क़िस्त में पढ़िए :बीस से कम उम्र तक के तमाम लोग तकरीबन उन आवाज़ों को सुनलेते हैं जो प्यानों के उच्चतम C नोट की आवृत्ति होती है। दूसरे शब्दों में २० किलोहर्ट्ज़ की तमाम आवाज़ें।लेकिन पचासा आते आते कान की प्रत्यास्थता एल्स्टिसिटी कम होने से १२ किलोहर्ट्ज़ तक ही सीमित हो जाता है श्रवण। क्यों और क्या हो रहा है उस युवा भीड़ को जो शोर के बीच भी कानों में हरदम प्लग ठूसें रहतें हैं ,हेड फोन के साथ चलते हैं।