(१) कंचन तजना सहज है ,सहज त्रिया का नेह ,
मान ,बड़ाई, ईरखा (ईर्ष्या का प्राकृत रूप )तीनों दुर्लभ येह।
महाकवि तुलसीदास इस दोहे में कहतें हैं कि जब तक तुम्हारे मन में किसी के भी प्रति ईर्ष्या भाव है ,तुम आत्मश्लाघा (आत्म प्रशंशा )से ग्रस्त हो ,सब जगह मान चाहते हो ,सब जगह मी फस्ट भाव लिए हो तुम्हारा अहंकार शिखर छू रहा है तब तक तुम्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होंगें। इन्हें तजना सहज नहीं है।
स्वर्ण के प्रति मोह और नारी के प्रति आसक्ति सकती एक बार व्यक्ति त्याग सकता है लेकिन बड़े बड़े ऋषि मुनि भी मान -सम्मान ,बड़ाई और ईर्ष्या से ऊपर नहीं उठ सके हैं ये तीनों हमें हमारे असली स्वरूप ब्रह्मण से दूर रखते हैं . जबकि ब्रह्म (सेल्फ )तो सदैव ही आनंद स्वरूप है ,सनातन चेतना है ,सनातन अस्तित्व है। फिर अपने ज्ञान का इस नश्वर शरीर का गुमान कैसा ?कैसा मान और कैसा अपमान?शरीर का न मान होता है न अपमान शरीर तो ख़ाक हो जाता है। फिर भी हमें कोई अप्रिय बोल देता है तो हम बरसों अकड़े रहते हैं।
ये तन आखिर ख़ाक बनेगा क्यों मगरूर गरूरी में ?
(२) पानी बाढ़ै नाव में ,घर में बाढ़ै दाम ,
दोनों हाथ उलीचिये यही सज्जन को काम।
कवि कहता है धन से ,अतिरिक्त धन से आसक्ति अच्छी नहीं है। धन अपने आप में बुरा नहीं है आसक्ति बुरी है। ये फिर और कुछ नहीं करने देती ,हम उतना ही धन खर्च करें जितना हमारे शरीर निर्वाह के लिए ज़रूरी है शेष दान कर दें परोपकार में लगा दें ,वरना धन तो जाता ही है सजा अलग मिलती है इस लोक में धन के पकड़े जाने पर ,परलोक में दूसरों का हिस्सा हड़पने की वजह से ,यह वैसे ही जैसे जीवन निर्वाह के लिए यद्यपि जल ज़रूरी है यहां तक के जल को जीवन भी कह दिया गया है उसी जल का आधिक्य हमारी जल-विषाक्तण की वजह से मृत्यु की वजह भी बन सकता है आप किसी व्यक्ति को एक साथ १२ लीटर पानी पिला दें वह वाटर टोक्सीमिया से मर जाएगा। गुर्दे एक साथ इतना पानी हैंडिल ही नहीं कर सकते। नाव में जल बढ़ा जाने पर नाव डूब जाती है अत :जल की तीव्र निकासी करनी पड़ती है।
मान ,बड़ाई, ईरखा (ईर्ष्या का प्राकृत रूप )तीनों दुर्लभ येह।
महाकवि तुलसीदास इस दोहे में कहतें हैं कि जब तक तुम्हारे मन में किसी के भी प्रति ईर्ष्या भाव है ,तुम आत्मश्लाघा (आत्म प्रशंशा )से ग्रस्त हो ,सब जगह मान चाहते हो ,सब जगह मी फस्ट भाव लिए हो तुम्हारा अहंकार शिखर छू रहा है तब तक तुम्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होंगें। इन्हें तजना सहज नहीं है।
स्वर्ण के प्रति मोह और नारी के प्रति आसक्ति सकती एक बार व्यक्ति त्याग सकता है लेकिन बड़े बड़े ऋषि मुनि भी मान -सम्मान ,बड़ाई और ईर्ष्या से ऊपर नहीं उठ सके हैं ये तीनों हमें हमारे असली स्वरूप ब्रह्मण से दूर रखते हैं . जबकि ब्रह्म (सेल्फ )तो सदैव ही आनंद स्वरूप है ,सनातन चेतना है ,सनातन अस्तित्व है। फिर अपने ज्ञान का इस नश्वर शरीर का गुमान कैसा ?कैसा मान और कैसा अपमान?शरीर का न मान होता है न अपमान शरीर तो ख़ाक हो जाता है। फिर भी हमें कोई अप्रिय बोल देता है तो हम बरसों अकड़े रहते हैं।
ये तन आखिर ख़ाक बनेगा क्यों मगरूर गरूरी में ?
(२) पानी बाढ़ै नाव में ,घर में बाढ़ै दाम ,
दोनों हाथ उलीचिये यही सज्जन को काम।
कवि कहता है धन से ,अतिरिक्त धन से आसक्ति अच्छी नहीं है। धन अपने आप में बुरा नहीं है आसक्ति बुरी है। ये फिर और कुछ नहीं करने देती ,हम उतना ही धन खर्च करें जितना हमारे शरीर निर्वाह के लिए ज़रूरी है शेष दान कर दें परोपकार में लगा दें ,वरना धन तो जाता ही है सजा अलग मिलती है इस लोक में धन के पकड़े जाने पर ,परलोक में दूसरों का हिस्सा हड़पने की वजह से ,यह वैसे ही जैसे जीवन निर्वाह के लिए यद्यपि जल ज़रूरी है यहां तक के जल को जीवन भी कह दिया गया है उसी जल का आधिक्य हमारी जल-विषाक्तण की वजह से मृत्यु की वजह भी बन सकता है आप किसी व्यक्ति को एक साथ १२ लीटर पानी पिला दें वह वाटर टोक्सीमिया से मर जाएगा। गुर्दे एक साथ इतना पानी हैंडिल ही नहीं कर सकते। नाव में जल बढ़ा जाने पर नाव डूब जाती है अत :जल की तीव्र निकासी करनी पड़ती है।
Shvetashvatara Upanishad Verse 1.6
https://www.youtube.com/watch?v=C7gbNCJTDMk
4 टिप्पणियां:
यह रचना ज्ञान का प्रभा पुंज है सर जी
सत्य वचन...मान, बड़ाई और ईर्ष्या के पाश से मुक्त होते ही कृपा अनुभव में आने लगती है...
सुन्दर व्याख्या और जीवन दर्शन ...
आनंद आ गया ...
सत्य वचन...सुन्दर व्याख्या
एक टिप्पणी भेजें