वे इन दिनों जीवन के शिखर पर थे। हालाकि मुकाम अभी कई और थे जिन्हें वे छू लेना चाहते थे। कई शख्श कई शरीरों में एक साथ रहते हैं। मन :भाव बने रहते हैं कइयों के। मुझे अक्सर ऐसा ही लगा वे मेरा भी एक्सटेंशन हैं। सम्पूर्ण थे शिव की तरह चन्द्र शेखर। जिस भी काम में हाथ डाला एक मुकाम हासिल किया। जीवन के हर अनुभव को उनके साथ सांझा किया था मैंने ,हमने परस्पर। ऐसा लगता है अब अपना ही एक अंग अलग हो गया है।
जीवन को एक सभाव जिया ,सहभावी रहे हम उनके। और अब यूं चले गए ,निष्कंटक।
बैठने कौन दे है फिर उसको जो तेरे आस्ताँ से उठता है ,
देख तो दिल के जाँ से उठता है ,ये धुआँ सा कहाँ से उठता है।
नाम सार्थक कर गए शेखर अपना ,एक शिखर को छू यूं निकलगए ,बे -इत्तला।
शिखा ,शिखर से बना है शेखर। जिसे शिव ने अपने मस्तक (शिखर )पे धारण किया हुआ है वे चन्द्रशेखर शिव ही हो सकते हैं। कलात्मक ,सौंदर्य सुरुचि संपन्न।
वीरुभाई !
1 टिप्पणी:
beautifully written
एक टिप्पणी भेजें