कबीर के दोहे भावार्थ सहित
पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।
भावार्थ :जिस प्रकार पैनी छुरी को हाथ लगाकर आप उसका परीक्षण नहीं कर सकते उसी प्रकार पर नारी की धार से कोई विरला व्यक्ति ही बच सकता है परीक्षण के बाद। पर -नारी की भी आप पैनी छुरी की तरह परिक्षा नहीं कर सकते। कोई आत्मनिग्रही ही उससे ,उसकी धार से बच सकता है सामान्य जन नहीं।परीक्षण की भावना जगते ही वर्षों की तपस्या और साधना भंग हो जाएगी परीक्षण की भावना जगते ही पैनी छुरी चल पड़ेगी। आपको मालूम भी नहीं पड़ेगा। अपनी तपस्या और स्वयं का अहंकार लिए विश्वामित्र ऋषि आये और पैनी छुरी की धार पे घायल हो गए। भूलकर भी विनोद के भाव से भी पर -नारी को छेड़ना आज़माना नहीं चाहिए। वह हँस हँस के आपको खायेगी और आपको लगेगा जैसे करुणा से आंसू आ आ रहे हैं।
पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।
भावार्थ :
दूसरी नारी की गंध उसका रासना लहसुन की गंध के समान है।जैसे लहसुन से तैयार पकवान खाने के बाद भी छिपेगा नहीं प्रगट हो जाएगा वैसे ही पर नारी में आसक्ति छिपाकर भी रखो तो वह दिखाई देती है। लहसुन खाए जाने के बाद भी बोलता है भले एकांत में छिपके खाया जाए। वैसे ही पर नारी के प्रति आसक्ति छिपाए नहीं छिपती है।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
भावार्थ :
भावार्थ :
जो दूसरे को चोट पहुचाने वाला वचन है वह कुटिल हृदय से निकला है। नाभि से उठती है वाणी कंठ से नहीं। कंठ से उठने वाली वाणी को वैखरी कहा जाता है। कंठ से उठने वाली वाणी (वैखरी )के नीचे हृदय नहीं है। वह कुटिल है ,कुभाव से पैदा हुई है। कुभाव से निकला वचन उसको जलाके राख कर देता है जिसके प्रति निकला है। कोई साधक ही कुटिल वचन के प्रहार को सह सकता है उससे बच सकता है। साधारण जन झुलस जाता है। दूसरी ओर संतों की वाणी ,साधुओं का वचन अमृत धार की तरह बरसता है। अमृत धार की वर्षा है साधू का वचन। वह हृदय को सुख देता है। सुपथ पर चलने का रास्ता प्रेरित करता है।
शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।
भावार्थ :
शब्द किसी की पुष्टि के लिए प्रयुक्त नहीं होता है। कुछ लोग दूसरों को प्रसन्न करने के लिए चारण बनके इसका प्रयोग करते है। लेकिन शब्द तो अपनी जगह खड़ा है। शब्द सर्वत्र व्याप्त है। शब्द जब अपने स्वरूप को जानने का आलम्बन बनेगा ,तब गुरु शिष्य का संवाद पैदा होगा। दोनों की सत्ता यहीं से शुरू होगी।
शब्द किसी की पुष्टि के लिए प्रयुक्त नहीं होता है। कुछ लोग दूसरों को प्रसन्न करने के लिए चारण बनके इसका प्रयोग करते है। लेकिन शब्द तो अपनी जगह खड़ा है। शब्द सर्वत्र व्याप्त है। शब्द जब अपने स्वरूप को जानने का आलम्बन बनेगा ,तब गुरु शिष्य का संवाद पैदा होगा। दोनों की सत्ता यहीं से शुरू होगी।
कागा काको धन हरै कोयल काको देत
मीठे शब्द सुनाय के, सबका मन हर लेत।
न तो कौवा किसी के धन का अपहरण करता है न कोयल किसी को धन देती है। पर कौवा दिखायी दे जाए तो आदमी पत्थर उठा लेता है। कौवे की कर्कश ध्वनि से व्यवहार करोगे तो सब पत्थर ही मारेंगे। कोयल दूर से भी मीठे बोल सुना के सबके हृदय में स्थान बना लेती है। मीठे बोल बोलोगे तो दूसरोँ के हृदय में प्रवेश कर जाओगे। एक में आकर्षण हैं दूसरे में अपकर्षण।
शब्द बराबर धन नहीं, जो कोय जानै बोल
हीरा तो दामों मिलै, सब्दहिं मोल न तोल
अगर शब्द को सही अर्थों में प्रयोग करना सीख लिया ,उससे बड़ा फिर कोई और धन आपके पास नहीं है। शब्द की सही परम्परा को जानना ,उसको उसके सही परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त करना आदमी की सबसे बड़ी दौलत है फिर। हीरे जैसी बहुमूल्य वस्तु भी दाम देकर खरीदी जा सकती है। शब्द को आप खरीद नहीं सकते। शब्द पीढ़ियों के बल प्रयोग को लेकर चलते हैं। शब्द की संवेदना तक पहुंचना मुश्किल है। फिर उसके दाम भला कौन चुका सकता है।
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5 टिप्पणियां:
सुन्दर सार्थक दोहे .....
सुंदर सार्थक प्रस्तुति!
कबीर के दोहे मानव अनुभूतियों का निचोड़ है !
मैं
ईश्वर कौन हैं ? मोक्ष क्या है ? क्या पुनर्जन्म होता है ? (भाग २ )
कबीर को पढ़ना सदा ही सुखद है आभार !
अहा!
कबीर के दोहे जब भी पढ़ो बहुत अच्छा लगता है .... फिर यहां तो इनका अर्थ भी प्रस्तुति का दोगुना आनंद दे रहा है
आभार सहित सादर
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