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मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

ये पहरुवे हैं हमारे पर्यावरण के

सन्देश परक लघु कथा है .ऐसी कथा आप बा -कायदा लिख सकतें हैं बस थोड़ी सी शैली बदल दें .मसलन -वह पेड़ रास्ते को छाया देता था पक्षियों को आश्रय .घनी थी उसकी शाखाएं ,कोटर .कोटर में थे 

पक्षी .लटके थे पेड़ से और कई घोंसले भी थे ........एक दिन गुजरी बारात  उस बस्ती से .गए रात थे बाराती पूरी मस्ती में ....यहीं छोड़ी  गई बे -तहाशा आतिशबाजी झूमते हुए शराब की मस्ती में 

....बस 

इसी शैली में कहानी कथा लघु आगे जाए जिसमें  घटना होती है विवरण नहीं .,सन्देश होता है जैसा इस लघु कथा में है .

दिवाली की रात यह बदसुलूकी पूरे जीव जगत के साथ सलीके से होती है .गली के कुत्ते अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं .मैं यहाँ मुंबई के कोलाबा के एक ऐसे इलाके में रहता हूँ जहां पेड़ों का घना झुरमुट है 

यह पश्चिमी नेवल कमान का  मुख्यालय है नोफ्रा (NOFRA बोले तो नेवल ऑफिसर्स फेमिली रेज़ि-डेंसी -यल  एरिया ).यहाँ कौवों का हर शाख पे डेरा है .दिवाली के दो रोज़ पहले से ही रात को 

पटाखों का शोर रहने लगा .दिवाली की रात देर आधी रात तक और बाद इसके भी कई रोज़ तक ऐसा होता रहा .

बेचारे कौवे सुबह का  कलरव कई दिन भूले रहे उस रात उनमें  आपस में बातचीत नहीं हुई .एक गफलत पसरी रही पेड़ों पर .

पक्षियों की अपचयन दर (Metabolic rates )  बहुत ज्यादा होती है पर्यावरण की नव्ज़ की हरारत और सेहत ये सबसे पहले भांपते  हैं .पर्यावरण के गंधाने की पहली आहट के साथ ही यह बस्ती से 

उड़ जातें हैं -चल  उड़ जा रे पंछी के अब ये देश हुआ बेगाना ,तूने तिनका तिनका करके नगरी एक बसाई थी ........खत्म हुए दिन उस डाली के जिसपे तेरा बसेरा था ........तेरी किस्मत में लिख्खा था 

जीते जी मर जाना ....

एक टिपण्णी ब्लॉग पोस्ट :



Tuesday, 11 December 2012


बेतुकी खुशियाँ

 एक रास्ते के किनारे पर एक घना सा पेड़ है, उस पेड़ पर बसी पक्षियों की एक बस्ती है। जितना घना वो पेड़ उतनी घनी वो बस्ती हैं। बड़ी ही सुन्दर व दिलेफ़रोज़।
                       
                           इस सर्दी की वो काली रात जिस रात को किसी की बरात गुजरी उस पेड़ के नीचे से और बराती अपनी धुन में DJ पर मस्त नाच रहे थे और रह-रह कर पटाखे भी फोड़ रहे थे।
                      
                           पर पेड़ पर रहने वाले पक्षियों को इस शौरगुल की आदत थी ही नहीं। परिंदों के बच्चे डर के मारे दुबक गये प्रत्येक पटाखे की आवाज पर चीख निकल रही थी, पंख फड़-फड़ा  रहे थे,न ही वो उड़ पा रहे थे और न सो पा रहे थे। उनकी आँखों से नींद कोसों दूर जा चुकी थी।  अब बरात वहां से चली गयी लेकिन परिंदों ने वो सारी रात जाग कर गुजारी और अब सूरज निकलने में अभी 2 या 3 घंटे बाकी थे .. बेचारे पक्षियों को तनाव व थकान की वजह से झपकी लग गयी। अब चूँकि थकान व देर से सोने वाले को नींद गहरी आती है तो पक्षियों का भी शायद अब देर से जगना होगा। मगर ये क्या एक भूखे बिल्ले ने अपना दांव खेला और उस पेड़ पर चढ़ कर नींद में डूबी बस्ती पर हमला बोल दिया.
            
                          " सारी की सारी बस्ती उजड़ गई थी। रात को फड़-फड़ाने वाले पंख कुछ जमीं पर फैले पड़े थे कुछ अभी हवा में थे।  सन्नाटा पसरा पड़ा था। लेकिन पेड़ की टहनियों से टपकती लहू की बूंदों की आवाज के आगे उन पटाखों की आवाज बड़ी तुच्छ जान पड़ रही थी। किसी की खुशियाँ किसी की जान पर बन आई थी। बसी बसाई बस्तियों के उजड़ने के अंजाम पर किसी की बस्ती बस चुकी थी। "


                                                                  By:
                                                           ~* रोहित *~

( " ये मेरी पहली कहानी हैं .. आपको ये कैसी लगी और ये भी बताईयेगा की मैं कहानी लिखने के लायक हूँ की नहीं " )

ये पहरुवे हैं हमारे पर्यावरण के 






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