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बुधवार, 13 जुलाई 2011

सहभावित कविता :आखिर हम चुन कर आये हैं .-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,वीरेंद

सहभावित कविता :आखिर हम चुन कर आये हैं .-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,वीरेंद्र शर्मा .
आओ अन्दर की बात कहें ,
कुछ तो दिल की बात सुनें .
माना एयर- पोर्ट पहुंचे थे ,हंस -हंस के पत्ते फेंटें थे ,
मंत्री ओहदे कितने ऊंचे ,ऐंठे साथ में कई अफसर थे ,
एक नहीं हम कई जने थे ,भीतर से सब चौकन्ने थे ,
बाबा को देना था झांसा ,झांसे में बाबा को फांसा ,
बाबा का कोई मान नहीं था ,हम को बस फरमान यही था .
एक हाथ समझौते का हो, दूजे हाथ में गुप्त छुरी,
रात में काँप उठी नगरी ,बाबा की सी सी निकली ,
तम्बू बम्बू सब उखड़े थे ,साड़ी पाजामे घायल थे ,
झटके में झटका कर डाला ,ऐसा शातिर दांव हमारा ,

क्या अब भी सरकार नहीं है ,क्या इसका इकबाल नहीं है ,
जाकर उस बाबा से पूछो ,क्या यही सलवार सही है ,
हमने परिधान बदल डाले ,नक़्शे तमाम बदल डाले ,
आखिर चुनकर आयें हैं ,नहीं -धूप में बाल पकाएं हैं ,
इसके पीछे अनुभव है ,खाकी का अपना बल है ,
सीमा पर अभ्यास करेंगें ,देश सुरक्षा ख़ास करंगें ,
सलवारें लेकर जायेंगें ,दुश्मन को पहना आयेंगें ,
तुम जनता हम मालिक हैं ,रिश्ता तो ये खालिस है ,
जय बोलो इंडिया माता की ,इंडिया के भाग्य विधाता की ,
जय कुर्ती और सलवार की ,इंडिया के पहरेदार की .
(२)

सोमवार, ११ जुलाई २०११

सहभावित कविता :खामोश अदालत ज़ारी है .-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,सहभाव :वीरुभाई .

(वागीश ,सहभाव :वीरुभाई) . सहभावित कविता :खामोश अदालत ज़ारी है .-डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश ,सहभाव :वीरुभाई .
खामोश अदालत ज़ारी है ,दिल्ली का संकेत यही है ,
वाणी पर तो लगी है बंदिश ,अब साँसों की बारी है .
खामोश अदालत ज़ारी है .

हाथ में जिसके है सत्ता वह लोकतंत्र पर भारी है ,
गई सयानाप चूल्हे में .बस चूहा एक पंसारी है .
कैसा जनमत किसका अनशन ,हरकत में जब शासन ,
संधि पत्र है एक हाथ में दूजे हाथ कटारी है .
खामोश अदालत ज़ारी है .
दिल्ली नै पुरानी दिल्ली ,परकोटे की रानी दिल्ली ,
सदियों से है लुटती आई ,मुग़ल फिरंगी या अबदल्ली,
दिल्ली ने यह भी देखा है ,दूध की है रखवाली बिल्ली ,
चोर- चोर मौसेरे भाई ,अफरा तफरी भारी है ,
कुर्सी- कुर्सी होड़ मची है ,पांच साल में बारी है ,
खामोश अदालत ज़ारी है .
ऐसी कथा लिखी शातिर ने ,कुटनी एक सन्नारी है ,
औरत, चैनल, मर्द, जवानी ,जफ्फा -जफ्फी ज़ारी है ,
सांसद बैठे लाल बुझक्कड़ ,खिल- खिल- खिल, खिलकारी है ,
बे -मतलब से एक अधे -रीड़ ,हंसती हाहाकारी है ,
यही नांच इंडिया ल्फ्टर ,सभी कला बलिहारी है ,
खामोश अदालत ज़ारी है .

राजनीति है ऐसी नटनी ,साथ मदारी काला चौगा ,इज्ज़त चादर एक चौकी है ,
हर नेता है बना दरोगा ,खौफ की ज़द में रात बिरानी ,
दिन भी खुद पर है शर्मिन्दा ,ऐसी काली करतूतों के ,
बीच रहा मैं अब भी ज़िंदा ,
भारत तो जा चुका भाड़ में .अब इंडिया की बारी है ,
खामोश अदालत ज़ारी है .

9 टिप्‍पणियां:

  1. वीरू भाई राम-राम !
    खामोश अदालत जारी है ...
    पर आज कसाब ने क्या अपना जन्मदिन मुबई में मनाया है ....जिसमें अबतक २१ जाने जा चुकी हैं घायलों की राम जाने ....

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  2. बहुत सुंदर लिखा है सर,
    पर मुम्बई की आज के घट्ना आहत कर गयी,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  3. सामयिक परिदृश्य को बयाँ करती जोरदार रचना ..

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।.......

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  5. आखिर हम चुन कर आये हैं
    खामोश अदालत जारी हैं

    और अभी क्या क्या होना बाकी है.

    हे प्रभु ! बस अब अवतरित ही हो जाईये.
    राम राम बीरू भाई.

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  6. एक हाथ समझौते का हो, दूजे हाथ में गुप्त छुरी
    beautiful poem

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  7. http://charchamanch.blogspot.com/
    शुक्रवार : चर्चा मंच - 576

    जानते क्या ? एक रचना है यहाँ पर |
    खोजिये, क्या आपका सम्बन्ध इससे ??

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