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मंगलवार, 7 जून 2011

देर से आने के लिए माफ़ी -
अपना बनके जब उजियारे छलतें हों ,
अंधियारों का हाथ थामना अच्छा है ।
जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को ,
रिश्ते उससे रोज़ उलझतेंहैं .
जिसने भी परवाह नहीं की रिश्तों की ,
रिश्ते उससे अपने आप सुलझतें हैं .
भाई संदीप छा गए हैं आप हमारे मन पे कई सवालों के ज़वाब थमा देती है यह भाव कविता ।
एक शैर आपकी नजर इसी भाव को अग्रसारित करता -
रफीकों से रकीब अच्छे ,जो जलके नाम लेतें हैं ,
गुलों से खार बेहतर हैं ,जो दामन थाम लेतें हैं ।
एक लडकी को जब दो व्यक्ति एक साथ चाहतें हैं तो उनमें एक रफीक (नायक )औरदूसरा रकीब (खलनायक )होतें हैं .।
रही बात एक दिन में एक "पोस्ट "पोस्ट करने की प्रकाशित करने की भाई साहब मैं दिन भर में कमसे कम चार घंटा लिखता हूँ .गत कई दशकों से ऐसा हो रहा है .अब पहली बार दो लेप टॉप नसीब हुएँ हैं .तो रफ्तार ज्यादा है .बाकी पोस्ट्स का क्या करू .लिखना पेशन है ,ओबसेशन है .लिखने से मैं बच जाता हूँ ,तनाव कम होता है ,ब्लड प्रेशर भी नियमित रहता है ११०/७० डब्लू एच ओ के मानकों के अनुरूप ।
बधाई इतनी सुन्दर कविता के लिए .

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी बात को, मैं कैसे टाल सकता हूं,
    लगे रहो,
    मेरी तरह चार-चार घंटे लिखने/पढने में,
    फ़िर भी समय बच गया तो,
    निकल पडो कही किसी दिशा में

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  2. जिसने भी सुलझाना चाहा रिश्तों को ,
    रिश्ते उससे रोज़ उलझतेंहैं .....

    So true
    whoever wants to solve this complex riddle get caught in itself.

    जवाब देंहटाएं