मंगलवार, 7 मार्च 2023

आज भी सुबह जब उठा वही होली यादों के दरीचों से झाँक रही थी। छत पे बैठा में होली की रौनक देखता हुआ ऊपर से ही रंग पे रंग बराबर फैंकता हुआ राहगीरों पर। वह दौर मिलनसारी का था ,सारा शहर (बुलंदशहर )एक कुनबे में बदल जाता था। हिन्दू कौन ?कौन तुर्क

मेरे बचपन का वह दौर रहा होगा (१९५० -१९६० )टेसू के फूलों से खेली जाती थी तब होली। हाँ रात को एक बड़े से टब या नांद में टेसू के फूल भिगो दिए जाते थे जो छज्जू पंसारी से हम खरीद कर रख लेते थे होली से पहले ही। इस घोल में चूना भी मिलाया जाता था ताकि रंग गहरा हो जाए।  मोहल्ले के छतरी वाले कुँए की होदी रंगों से भर दी जाती थी। गुंजिया और बेसन के सेव जमकर खाये जाते थे। गवैयों की टोली ढोलक मंजीरे लिए निकलती थी।नशा हो जाता था टेसू के रंगों में भीगने के बाद। 

आज बिरज में होरी रे रसिया ,होरी रे ह्री बरज़ोरी रे रसिया ,

कौन गाँव को किसन कन्हैया ,कौन गाँव की गोरी रे रसिया। .... 

होली का अपना नशा अलग था।संगीत का अलग।  बरस भर इंतज़ार करते थे होली का। दोपहर ढलते -ढलते म्यूज़िक कॉन्फ्रेंस जुट जाती थी। छत्ते वाले हालकमरे में। हमें भी गवाया जाता था साथ में तबले पर होते थे हमारे प्यारे सुख्खन मामा जी (उस्ताद अहमद जान थिरकवा ,लखनऊ घराना के होनहार शिष्य )  . 

आज भी सुबह जब उठा वही होली यादों के दरीचों से झाँक रही थी। छत पे बैठा में होली की रौनक देखता हुआ ऊपर से ही रंग पे रंग बराबर फैंकता हुआ राहगीरों पर। वह दौर मिलनसारी का था ,सारा शहर (बुलंदशहर )एक कुनबे में बदल जाता था। हिन्दू कौन ?कौन तुर्क ?दोपहर को बाद रंगों के हमारे मुस्लिम मित्र हमारे साथ मज़ा लेते थे आलू की टिक्की ,दही भल्लों का। अम्मा बनातीं थीं ,

ये यादें तो ज़िंदगी भर की हैं हाँ असली में ऐसी ही होती थी रंगों की होली शहर में कोई तनाव नहीं होता था।

अब यादें हैं सिर्फ यादें पर्वों में पर्वों का न उल्लास है न मिलनसारी। अपने खोल में दुबका बैठा है आदमी। 

कृपया यहां भी पधारें :

(१ )https://www.youtube.com/watch?v=nj8TiL150TA

(२ )https://www.youtube.com/watch?v=M2W1HKQtWuM

(३ )Videos


 


 

1 टिप्पणी:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

लम्बे अरसे के बाद वीरेंद्र जी आपके दर्शन हुऐ _/\_